
- साल 1989 में भागलपुर में हुए दंगे ने बिहार की राजनीति में बड़े बदलाव का सूत्रपात किया था.
- सरकारी आंकड़ों के अनुसार दंगों में 1100 से अधिक लोगों की मौत हुई थी और कई गांव प्रभावित हुए थे.
- IPS अधिकारी राकेश कुमार मिश्रा ने दंगे के दौरान पुलिस की निष्पक्षता और साहस दिखाते हुए कई जानें बचाईं.
Bhagalpur Riots 1989: बिहार के सियासी इतिहास में साल 1989 को बड़े बदलाव का साल माना जाता है. इस साल भागलपुर में भड़की भयानक दंगे ने बिहार की राजनीति ही बदल दी. इस दंगे के बाद बिहार में कांग्रेस के पतन का वो दौर शुरू हुआ, जिसकी किसी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. साल 1989 के भागलपुर दंगे ने बिहार की न सिर्फ राजनीति बदली बल्कि सरकार को भी बदल दिया. इसके बाद बिहार में लालू और फिर नीतीश का राज चला. इस दंगे के बाद बिहार में कांग्रेस की क्रब ऐसी खुदी कि वो अभी तक अपनी सियासी जमीन तलाश रही है. लेकिन आज इस दंगे की चर्चा क्यों...
दंगे में कई लोगों की जान बचाने वाले राकेश मिश्रा अब लड़ेंगे चुनाव
इस दंगे की चर्चा आज इसलिए की जा रही है क्योंकि उस समय दंगे में कई लोगों की जान बचाने वाले तब के IPS ऑफिसर अब बिहार की राजनीति में दो-दो हाथ करने उतर रहे हैं. बात हो रही भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी आर.के. मिश्रा की.
जन सुराज ने दरभंगा से राकेश मिश्रा को दिया है टिकट
आरके मिश्रा उर्फ राकेश कुमार मिश्रा को प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज ने दरभंगा से अपना उम्मीदवार घोषित किया है. आरके मिश्रा दरंभगा में भी कई साल तक नौकरी कर चुके हैं. लेकिन उनके करियर की सबसे बड़ी सफलता या विफलता भागलपुर से जुड़ती है. आइए जानते हैं पूरी कहानी.

सरकारी आंकड़े में भागलपुर दंगे में 1100 लोगों की मौत
1989 में भागलपुर में भड़के दंगे में सरकारी आंकड़ों में 1100 सौ से ज़्यादा लोगों की मौत हुई थी. लेकिन जमीनी हकीकत और सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुसार यह संख्या कहीं अधिक थी. दंगे की आग में 18 प्रखंडों के 194 गांव झुलस गए थे, आगजनी और सामूहिक नरसंहार की घटनाओं ने इंसानियत की सारी दीवारें तोड़ दी थीं.
राकेश कुमार मिश्रा: उन्माद के बीच एक 'निर्णायक' उपस्थिति
जब भागलपुर की गलियों में मौत नाच रही थी, तब IPS राकेश कुमार मिश्रा को बतौर एएसपी भागलपुर में पदस्थापित किया गया. बाद में उन्हें भागलपुर का सिटी एसपी भी बनाया गया. जब वह वहां पहुंचे, तो पुलिस महकमा निराशा, भ्रम और पक्षपात के आरोपों से घिरा हुआ था. उनकी पहली चुनौती थी – पुलिस के मनोबल को बहाल करना था.
- आरके मिश्रा को अहसास हुआ कि यह कोई सामान्य क़ानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है. यह एक ऐसा सामाजिक विस्फोट था जहाँ प्रशासन और जनता के बीच का पुल पूरी तरह टूट चुका था. उनकी सबसे बड़ी शक्ति उनकी निर्णायक कार्रवाई, साहस और निष्पक्षता थी.
- एक अधिकारी के रूप में उन्हें अक्सर ऐसी जगहों पर जाने से रोका जाता था, जहाँ हिंसा चरम पर थी और सुरक्षाबल भी जाने से डर रहा था. लेकिन उन्होंने हमेशा फ्रंट से लीड किया.
- उन्होंने खुद खतरनाक और संवेदनशील इलाक़ों में गश्त करना शुरू किया, ताकि यह संदेश जाए कि पुलिस अभी भी सक्रिय है.
- उन्होंने दोनों समुदायों के प्रमुख लोगों से बातचीत शुरू की, शांति समितियों का गठन किया और टूटे हुए विश्वास को फिर से जोड़ने की कोशिश की.
जब खूनी भीड़ के सामने दीवार बन गए IPS मिश्रा
दंगे के समय की एक घटना उनकी निर्भीकता को दर्शाती है. दंगे के शुरुआती दिनों में एक विशेष समुदाय के सैकड़ों लोग एक इलाके में फंस गए थे और बाहर से आई एक बड़ी हथियारबंद भीड़ उन्हें घेरे हुई थी. स्थानीय पुलिस बल या तो भाग चुका था या उसने हस्तक्षेप करने से मना कर दिया था.
जब राकेश कुमार मिश्रा कुछ भरोसेमंद जवानों के साथ, घटनास्थल पर पहुंचे. उन्होंने देखा कि भीड़ उन्माद में थी और किसी भी क्षण नरसंहार हो सकता था. बिना समय गंवाए, उन्होंने अपने जवानों को एक सुरक्षा घेरा बनाने का निर्देश दिया और निडर होकर भीड़ के सामने खड़े हो गए.

राकेश मिश्रा की चेतावनी से ठिठक गई उन्मादी भीड़
उन्होंने भीड़ को चेतावनी दी कि यदि वे एक इंच भी आगे बढ़े तो पुलिस आत्मरक्षा में गोली चलाने को मजबूर होगी. यह जानते हुए भी कि भीड़ की संख्या बहुत अधिक थी, उनकी आवाज में दृढ़ता और आँखों में निष्पक्षता थी. कुछ ही क्षणों में, उनकी दृढ़ता और साहस के आगे भीड़ हिचकिचाई. यह क्षण बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह पुलिस की निष्पक्ष उपस्थिति का एक दुर्लभ उदाहरण बन गया, जिससे सैकड़ों जानें बचीं.
जांच के दायरे में आए, आयोग ने ‘दोषी' अधिकारी बताया
दंगे थमने के बाद, राकेश कुमार मिश्रा ने फरवरी 1990 में विधानसभा चुनाव के लिए माहौल तैयार करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. हिंसाग्रस्त, डरे हुए और विभाजित माहौल में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती थी, जिसे उन्होंने अपनी कुशल पुलिसिंग से संभव कर दिखाया. चुनाव आयोग ने भी उनके इस कार्य की सराहना की.
हालांकि, 1989 के दंगे की पूरी कहानी सिर्फ़ वीरता की नहीं है. नीतीश सरकार द्वारा गठित जस्टिस एन.एन. सिंह आयोग ने दंगे से जुड़े 22 मामलों की जांच की और 28 फरवरी 2015 को अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंपी. आयोग ने कई पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही तय की. यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण था कि आयोग ने तत्कालीन वरीय पुलिस अधीक्षक वी. नारायणन, ग्रामीण एसपी शीलवर्द्धन सिंह और सिटी एसपी आर.के. मिश्रा जैसे आईपीएस अधिकारियों को भी दोषी पाया.
जान जोखिम में डाल बचाई कई लोगों की जान
यह फैसला दिखाता है कि दंगे की त्रासदी इतनी बड़ी थी कि उस दौरान शीर्ष प्रशासनिक स्तर पर भी गंभीर चूक और निर्णय लेने में कमियाँ थीं. जहाँ एक ओर मिश्रा ने अपनी जान जोखिम में डालकर अनगिनत लोगों की जान बचाई, वहीं आयोग की रिपोर्ट ने प्रशासनिक विफलता की व्यापकता को उजागर किया.
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