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चुनावी रण में प्रशांत किशोर की जन सुराज: इतिहास बदलेगा या बनेंगे 'वोट-कटवा'?

कई राजनीतिक पार्टियों के लिए सफल चुनावी रणनीति बनाने वाले प्रशांत किशोर अब पाला बदल चुके हैं. वह बिहार में जन सुराज पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं और इस बार बिहार चुनाव में भाग्य आजमा रहे हैं. लेकिन क्या प्रशांत किशोर बिहार की राजनीतिक कहानी को बदल सकती है? बता रहे हैं जय म्रुग

चुनावी रण में प्रशांत किशोर की जन सुराज: इतिहास बदलेगा या बनेंगे 'वोट-कटवा'?

भारतीय राजनीति में कुछ ही चीज़ें इतनी रोमांचक होती हैं, जैसे एक मंझे हुए रणनीतिकार का चुनावी मैदान में उतरना. कई राजनीतिक पार्टियों के लिए सफल चुनावी रणनीति बनाने वाले प्रशांत किशोर अब पाला बदल चुके हैं. वह बिहार में जन सुराज पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं और इस बार बिहार चुनाव में भाग्य आजमा रहे हैं. बिना किसी औपचारिक चुनावी डेटा के पीके की इस यात्रा पर सबकी नज़र है. वह नतीजों से पहले कई बार कह चुके हैं या तो 'अर्श पे या फर्श पे' या तो इतनी सीट लाएंगे कि सरकार बना लेंगे या फिर खत्म हो जाएंगे. उनकी यह टिप्पणी उनके राजनीतिक डेब्यू एक जुए जैसी लगती है.

लेकिन राजनीति के नए खिलाड़ियों के बारे में इतिहास क्या कहता है? क्या जनसुराज गेम चेंजर साबित होगी या यह केवल वोट-कटवा यानी खेल बिगाड़ने की भूमिका निभाएगी?

राजनीति के नए उभरते खिलाड़ियों का उदय: भारत में नए दल आमतौर पर तीन कैटेगरी में से किसी एक से उभरते हैं.

जन आंदोलन या करिश्माई नेता
आंध्रप्रदेश में 1983 एन.टी. रामा राव की तेलुगु देशम पार्टी (TDP) और असम में 1985 असम गण परिषद (AGP) सबसे अच्छे उदाहरण हैं.

मिशन-आधारित या गैर-गठबंधन वाली इकाइयां
अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (AAP) और अब पीके की जन सुराज पार्टी.

छोटे वोट-शेयर वाले दल जो गठबंधन में चुनाव लड़ते हैं
इसमें क्षेत्रीय विभाजन या विचारधारा वाली पार्टियां हो सकती है.

इसमें पहली और दूसरी कैटेगरी से विजेता निकलते हैं, लेकिन तीसरी कैटेगरी के दल शायद ही पहले प्रयास में जीतते हैं. इसके बजाय, वे प्रमुख खिलाड़ियों के वोटों में सेंध लगाकर नतीजों को पलट देते हैं.


राजनीति में एकदम आकर पहले चुनाव से छा जाने वाले उदाहरण भी कई हैं.

  • TDP (1983): एन.टी.आर. की पार्टी ने 46% वोट हासिल किए और अकेले सरकार बनाई.
  • AGP (1985): असम आंदोलन से उभरी, 34.5% वोटों के साथ जीती.
  • AAP (2013): दिल्ली में 29.5% वोट और 28 सीटें जीतकर भाजपा के विजय रथ को रोका, लेकिन सरकार बनाने के लिए कांग्रेस के समर्थन की ज़रूरत पड़ी.

लेकिन अन्य दलों ने सीधे जीत हासिल न करते हुए भी परिणामों को काफी प्रभावित किया.

  • जैसे आंध्र प्रदेश (2009) में प्रजा राज्यम पार्टी (PRP), चिरंजीवी के नेतृत्व में, 16.32% वोट और 18 सीटें जीती, जिससे मुकाबला कांग्रेस के पक्ष में पलट गया.
  • 2009 में तमिलनाडु में DMDK 10.29% वोट हासिल किए, सीट नहीं जीती, लेकिन मार्जिन को प्रभावित किया.
  • 2020 में बिहार में लोजपा 5.66% वोट और केवल 1 सीट जीती. लेकिन 60 से अधिक सीटों पर जद (यू) के प्रदर्शन को प्रभावित किया. ये उदाहरण से समझ आता है कि वोट-शेयर हमेशा सीट-शेयर में तब्दील नहीं होता, लेकिन यह राजनीतिक परिदृश्य को फिर से आकार दे सकता है.

जनसुराज का डेब्यू: वोट-कटवा या दावेदार?

नवंबर 2024 के बिहार उपचुनावों में, जनसुराज ने चार सीटों पर चुनाव लड़ा.

इमामगंज: जनसुराज के जितेंद्र पासवान ने 37,103 वोट हासिल किए, जिससे NDA की जीत का अंतर 6,000 वोटों से कम हो गया.

बेलगंज: मो. अमजद ने 17,285 वोट हासिल किए, जो दशकों से आरजेडी के कब्जे वाली सीट पर उसके नुकसान में योगदान बना.

हालांकि जनसुराज कोई सीट नहीं जीत सकी, लेकिन उसके गेम में रहने से जीत के अंतर को बदल दिया, जो पीके की चिंता को सही साबित करता है. पार्टी या तो नतीजे ला सकती या गायब हो सकती है.

बिहार का चुनावी इतिहास: डेटा क्या कहता है?

1957 से 2000 तक, बिहार में कई अकेले या गैर-गठबंधन वाले दलों ने चुनाव लड़ा. अगर इसी अवधि पर नजर रखें तो हमें वोट शेयर और उससे मिलने वाली सीटों का अच्छा डेटा मिलता है.

0% से 7% वोट शेयर वाले दलों के लिए, संभावित सीट 0 से 5 सीटों तक रही है. जिन दलों को 7% से 14% वोट शेयर मिला. उन्होंने आमतौर पर 5 से 20 सीटें जीती हैं.

14% से 17% वोट शेयर प्राप्त करने वाले दलों के लिए 21 से 40 सीटें जीतने की संभावना रही.

17% से अधिक वोट शेयर वाले दल संभावित सफलता हासिल करने की स्थिति में आ जाते हैं.

उदाहरण (1995 बिहार विधानसभा चुनाव)

समता पार्टी: 7% वोट, 7 सीटें- कम, लेकिन व्यापक रूप से फैला हुआ आधार.

भाजपा: 13% वोट, 41 सीटें- केंद्रित समर्थन के कारण अधिक सीटें.

CPI: 5% वोट, 26 सीटें- गठबंधन से मिली बढ़त.

17-18% से ऊपर, पार्टियां अक्सर बड़ी दावेदार बन जाती हैं. इससे नीचे, वह ज्यादातर बाजी पलटने का काम करती हैं.

18% की दहलीज क्यों मायने रखती है?

भारत की 'फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट' सिस्टम का मतलब है कि वोटों में छोटे बदलाव भी बड़ी सीट स्विंग का कारण बन सकते हैं. इन्हें भी डेटा से समझते हैं. जैसे- 

यूपी (2012): सपा (29%) ने 224 सीटें जीतीं; बसपा (26%) ने 80; भाजपा (15%) ने 403 में से 47.

बिहार (1995): आरजेडी ने सिर्फ 28% वोटों के साथ बहुमत (324 में से 167 सीटें) जीता.

यह दर्शाता है कि 20% से ऊपर शेयर, वोट से सीट में बदलने की प्रोसेस अप्रत्याशित होती है. लेकिन 18% से नीचे, दलों पर अप्रासंगिक होने का खतरा मंडराता है.

प्रशांत किशोर की 'अर्श पे या फर्श पे' वाली टिप्पणी इसी सच्चाई को दर्शाती है. वह जानते हैं कि उन्हें जीतने के लिए 35% की जरूरत नहीं है, लेकिन खेल में बने रहने के लिए 18% को पार करना होगा. जनसुराज का उपचुनावों में प्रदर्शन बताता है कि वह सीधे सीटें न जीतने पर भी नतीजों को प्रभावित कर सकती है. लेकिन एक वोट कटवा से एक गंभीर दावेदार बनने के लिए उसे 18% वोट-शेयर की दहलीज को पार करना होगा.

वेस्टमिंस्टर मॉडल की अनिश्चितताओं को देखते हुए यदि जनसुराज का वोट शेयर सिंगल डिजिट में आया तो पार्टी को इसकी सजा मिल सकती है और इससे उसके अप्रासंगिक होने का जोखिम पैदा हो सकता है. बिहार जैसे राज्य में, जहां चुनावी अंतर अक्सर बहुत कम होते हैं, कुछ प्रतिशत वोट भी यह तय कर सकते हैं कि कौन सत्ता में आएगा. किशोर का दांव साहसिक है, लेकिन इतिहास दिखाता है कि यह नामुमकिन नहीं है. जनसुराज अर्श (आसमान) पर होगा या फर्श (ज़मीन) पर, यह न केवल उसके वोट-शेयर पर, बल्कि इस बात पर भी निर्भर करेगा कि उसका समर्थन कितना केंद्रित और रणनीतिक है.

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