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This Article is From Oct 15, 2015

बिहार : क़स्बों का शहर होना और शहर का कस्बा बने रहना

Ravish Kumar
जब तक आप एनफिल्ड का शो रूम देखते हैं तब तक लगता है कि पटना कितना बदल गया है  गंगा पुल से पटना में प्रवेश करते ही तमाम आटोमोबिल कंपनियों के शो रूम शहर में छिपी संभावनाओं के राज़दार लगते हैं लेकिन जैसे ही आप शो रूम से नज़र हटाते हैं आपको एक दूसरा पटना दिखता है। बल्कि वही पहला वाला पटना दिखता है जो बीस साल से एक जैसा है, बेतरतीब और बदरंग। पटना का अपना कोई सौंदर्यबोध नहीं है, पटना को विस्तार चाहिए। उसे अब हाजीपुर, बिहटा और जहानाबाद को अपने साथ लेकर बढ़ना होगा। इन शहरों को पटना बनाना होगा तभी बिहार के शहर आर्थिक तरक़्क़ी के ईंजन बन सकेंगे।

पटना एक ठहराव का एहसास कराता है, आपको मायूस करता है। शहर खचाखच भर गया है, इसके रास्ते दम घोंट देते हैं। सड़कें अच्छी हैं लेकिन जरूरत के मुताबिक़ नहीं है। यहां के लोगों में गांव क़स्बों का बोध और संस्कार ही ज्यादा दिखता है। जो पटना में रहता है वो सिर्फ पटना में नहीं रहता, उसका एक पांव और एक मन गांव क़स्बों में रहता है। किसी को अध्ययन करना चाहिए कि पटना के संपन्न लोगों में से कितनों ने एक मकान पटना में और एक अपने गांव या क़स्बे में बनाए हैं। वैसे पटना का एक मन दिल्ली मुंबई और बंगलुरू में भी रहता है। बस पटना वाला पटना में नहीं रहता है। पटना की अपनी बोली बिहार भर की बोलियों से टकराती रहती हैं। जब भाषा को लेकर शहर का कोई कैरेक्टर नहीं है तो शहर का अपना कैरेक्टर हो सकता है। मेरी नज़र से यही पटना की खूबी है। भारत की किसी भी राजधानी में बोलियों की इतनी विविधता नहीं दिखेगी।

इसलिए आपको दिल्लीवाला या कलकत्तावाला की तरह कोई पूरी तरह से पटनावाला नहीं मिलेगा। एक शहरी होने के लिए जरूरी है कि उसका अतीत से संबंध कमज़ोर हो, वो भविष्यवादी हो। बिहार एक ग्रामीण राज्य है इसलिए उसके शहरों का कस्बाई चरित्र होगा ही लेकिन बदलते बिहार की आकांक्षाएं अब बेहतर और किसी बड़े शहर की तलाश में बेचैन हैं। पटना में कई फ्लाईओवर जरूर बने हैं लेकिन जल्दी ही सारे के सारे जाम हो जाएंगे। यहां के लोग महंगी कार ख़रीद लेगें लेकिन कभी बस से नहीं चलेगें। सरकार की तरफ से सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था होनी चाहिए और इस मामले में पटना पूरी तरह से नाकाम है लेकिन शहर को पहले सामंती सोच से आज़ाद होना होगा। एक तबक़ा आजाद भी हुआ है लेकिन उसके लिए भी शहर तैयार नहीं है।

आप चाहें तो रिक्शा को सार्वजनिक परिवहन के रूप में देख सकते हैं। बांग्लादेश की राजधानी ढाका की तरह यह एक ऐसी राजधानी है जो रिक्शावालों को लेकर सहनशील है। शहर ने रिक्शावालों को जीने दिया है। बड़े महानगरों की तरह उनके लिए जगह तय नहीं की है। दिल्ली में लोगों ने शौक़ के लिए कारें ख़रीद कर हर खाली जगह भर दी है। चूंकि वो कार है इसलिए लोगों को लगता है कि तरक़्क़ी है लेकिन यही क्या कम है कि पटना ने रिक्शा से लगने वाले जाम को भी उसी तरह से स्वीकार किया है जैसे दिल्ली में हम कारों के प्रति संवेदनशील होते हैं। कार और रिक्शा से लगने वाले जाम में कोई अंतर नहीं है। बस एक जाम में अमीरी झलकती है और एक जाम में अमीरों को गंदगी दिखती है। आज हिन्दुस्तान के तमाम शहर इन्हीं कारों की वजह से दम तोड़ रहे हैं, रहने लायक नहीं रहे।

लेकिन मध्यमवर्ग गरीब विरोधी होता है, वो इंतज़ार कर रहा है कि कब रिक्शा हटे और वो अपनी कारों से शहर को भर दे। पटना एक अविकसित शहर होने के बावजूद इस बात के लिए संतोष कर सकता है और करना चाहिए कि उसने गरीब और बेघर रिक्शावालों को जगह दी है। ग़रीबों को भी लगता है कि शहर के सौंदर्य की ख़ातिर उसे कोई विस्थापित नहीं कर सकता, ये शहर गरीब विरोधी नहीं है।

इस एक सूचकांक के अलावा पटना में और क्या है यह भी सोचना चाहिए। उच्च शिक्षा का भयंकर पतन है, केंद्र से लेकर तमाम राज्य सरकारें उच्च शिक्षा के साथ भेड़ बकरी जैसा व्यवहार कर रही हैं। प्रोफ़सरों ने दशकों पहले क्लास लेना छोड़ दिया था। कुछ को छोड़ दिया जाए तो सबसे पहले इन्हीं शिक्षकों ने पतन की शुरूआत की है। अब यही लोग सरकार को गरियाते हैं । बेशक सरकार में दोष तो है । वह औसत दर्जे के लोगों को वाइस चांसलर बनाती है और जिसकी सरकार आती है चाहे वो दिल्ली हो या पटना, कालेजों में नियुक्तियाँ राजनीतिक निष्ठा के आधार पर होने लगती है । फिर भी प्रोफ़सरों को वेतन तो मिल ही रहा है।

छात्रों को पता करना चाहिए चंद निष्ठावान शिक्षकों के अलावा कौन पढ़ा रहा है। कम से कम ऐसे शिक्षकों की सूची बनाकर कॉलेज की दीवारों पर तो लगा ही सकते हैं कि शर्मा जी सुबह आठ से रात दस बजे तक कोचिंग में दस लेक्चर लेते हैं लेकिन कालेज में हफ्ते में चार लेक्चर भी नहीं।

बुद्धिजीवियों का यही तबक़ा ग़रीबों के जातिवाद के ख़िलाफ़ लेक्चर देता है लेकिन सवर्णों के जातिवाद को विकास का सहारा लेकर प्रगतिशील घोषित करते चलता है। इसी कारण से पटना में मेडिकल की पढ़ाई का भी सत्यानाश हुआ है। प्रगतिशील और विकास की चाह रखने वाले डाक्टरों का नेटवर्क पता कीजिये, किस तरीके से मरीज़ों का सौदा होता है। लेकिन आप इस तबके को विकास पर खूब बातें करते देखेंगे और यही तबक़ा गरीब मरीज़ों के साथ क्या कर रहा है बताने की जरूरत नहीं है। अकारण नहीं है कि बिहार चुनाव में अस्पतालों को लेकर कोई बात नहीं कर रहा है ।

बिहार के नौजवान बहुत अच्छे हैं, ज्यादातर लड़के लड़कियों से से मिलकर लगा कि वे पढ़ाई से भागना नहीं चाहते। लेकिन सरकारी शिक्षक और सिस्टम ने उनकी संभावना को कुंद कर दिया है। छात्रों का राजनीतिक प्रशिक्षण में एक घोर कमी है। वे इस सवाल को अपनी निष्ठा वाले दल के हिसाब से देखते हैं जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में सभी राज्यों और सभी दलों का रिकार्ड औसत ही है ।

यही कारण है कि बिहार के कस्बाई चरित्र के शहरों में आकांक्षाएं खौल रही हैं, उनका भाप इन बेतरतीब शहरों में निकल नहीं पा रहा है। जैसे तसले के भीतर चावल का पानी तो खौल रहा है लेकिन ढक्कन के कारण एक बार में बाहर नहीं आ पा रहा है। भाप बनकर उड़ जा रहा है। आरा, सासाराम, समस्तीपुर, भागलपुर, हाजीपुर को विस्तार की जरूरत है। अगर बिहार इस मामले में चूक गया तो इसका असर यह होगा कि उसके शहरों से बड़ी संभावनाएं ख़त्म हो जाएंगी। फ्रिज ओर स्कूटी के शो रूम का खुलना शहर का शहर होना नहीं है।

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