कृषि में आए बदलाव के कारण ही आज हमारा किसान न केवल खुश है बल्कि देश के विकास में भी अहम योगदान निभा रहा है
नई दिल्ली:
आजादी के बाद निश्चित ही भारत ने लगभग हर क्षेत्र में आश्चर्यजनक तरक्की की है. शिक्षा, तकनीक, परिवहन आदि में भारत का लोहा दुनिया ले रही हैं. सूचना तकनीक में तो हमने चमत्कारिक परिवर्तन किए हैं. लेकिन ये सभी बदलाव या विकास कृषि का उल्लेख किए बिना अधुरे हैं. अगर हम किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं तो इसका श्रेय हमारे किसानों और कृषि वैज्ञानिकों को जाता है. कृषि के क्षेत्र में आज भारत न केवल 125 करोड़ लोगों का पेट भर रहा है, बल्कि विदेशों में भी विभिन्न अनाजों की आपूर्ति कर रहा है. साथ ही नौजवानों को भविष्य संवारने के अच्छे मौके भी इस क्षेत्र में मिल रहे हैं.
आजादी के बाद सबसे बड़े बदलाव में सबसे पहले जिक्र करना होगा हरित क्रांति का, जिसकी बदौलत आज भारत के भंडार अन्न से भरे हुए हैं.
हरित क्रांति- भारत में हरित क्रांति की शुरुआत सन 1966-67 से हुई. हरित क्रांति प्रारम्भ करने का श्रेय नोबल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर नारमन बोरलॉग को जाता है. और भारत में हरित क्रांति की शुरूआत की थी कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन ने. इस क्रांति के जरिए अच्छे बीजों और रासायनिक खादों का इस्तेमाल कर उत्पादन बढ़ाना था. 1960-1961 में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग प्रति हेक्टेअर दो किलोग्राम होता था, जो 2008-2009 में बढ़कर 128.6 किग्रा प्रति हेक्टेअर हो गया. देश में अधिक उपज देने वाले उन्नतशील बीजों का प्रयोग बढ़ा तथा बीजों की नई-नई किस्मों की खोज की गई़ं. 1951-1952 में देश में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन 5.09 करोड़ टन था, जो क्रमशः बढ़कर 2008-2009 में बढ़कर 23.38 करोड़ टन हो गया. वर्ष 1950-1951 में खाद्यान्नों का उत्पादन 522 किग्रा प्रति हेक्टेअर था, जो बढ़कर 008-2009 में 1,893 किग्रा प्रति हेक्टेअर हो गया.
श्वेत क्रांति- दूध उत्पादन में भारत विश्व में सबसे आगे है. श्वेत या सफेद क्रांति को ऑपरेशन फ्लड के रूप में जाना जाता है. ऑपरेशन फ्लड कार्यक्रम 1970 में शुरू हुआ था. प्रथम चरण के दौरान ऑपरेशन फ्लड ने देश के 18 प्रमुख दुग्ध शेड़ों को देश के चार मुख्य महानगरों –दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के उपभोक्ताओं के साथ जोड़ा और दूध का पाउडर बनाकर इसकी शुरूआत की. धीरे-धीरे यह योजना 18 से बढ़कर 136 हो गई. दूध 290 नगरों के बाजारों में उपलब्ध होने लगा. 1985 के अंत तक 43,000 आत्मनिर्भर ग्राम दूध सहकारी समितियों की व्यवस्था बन चुकी थी. घरेलू पाउडर उत्पादन जो योजना के पूर्व वर्ष में 22,000 टन था वह 1989 में बढ़ कर 1,40,000 टन हो गया.
पढ़ें: आजादी के 70 साल : वे सात कंपनियां जिन्होंने सफलता के परचम फहराए...
डॉ॰ वर्गीज़ कुरियन को 'फादर ऑफ़ द वाइट रेवोलुशन' माना जाता है. उन्हीं की बदौलत भारत दूध के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सका. सन 1970 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड द्वारा शुरु की गई इस योजना ने भारत को विश्व मे दूध का सबसे बड़ा उत्पादक देश बना दिया. 1949 मे डॉ कुरियन कैरा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ (के डी सी एम पी ऊ एल), जोकि अमूल के नाम से प्रसिद्ध है, से जुड़ गए.
पढ़ें: आजादी के 70 साल : सात क्षेत्र जिनमें देश ने विकास की नई इबारत लिखी...
नीली क्रांति- मछली उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए एक विशेष योजना चलाई गई थी, जिसे नीली क्रांति का नाम दिया गया. नीली क्रांति की वजह से भारत मछली उत्पादन में विश्व का दूसरे नंबर का देश है. पांचवी पंच वर्षीय योजना में भारत सरकार ने 1970 में नीली क्रांति को शामिल किया था. तभी से मछली उत्पादन में भारत तेजी से आगे बढ़ रहा है. वर्ष 2019-20 तक इस योजना के तहत भारत में मछली उत्पादन 150 लाख टन प्रति वर्ष करना है.
कृषि शिक्षा- कृषि के तमाम क्षेत्र में हम लगातार आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन इसका आधार है कृषि शिक्षा. पहले कृषि केवल पूर्वजों से मिले ज्ञान के आधार पर ही की जाती थी. उसी ज्ञान को नई पीढ़ी आगे बढ़ा रही थी. पूर्वजों से मिला ज्ञान एक परिवार या समाज के कुछ लोगों के पेट भरने लायक तो पैदावार देता था, लेकिन आबादी बढ़ने के साथ अनाज उत्पादन में वह ज्ञान कम पड़ने लगा. फिर कृषि में शिक्षा का संचार हुआ और देखते ही देखते भारत कृषि मामलों में अग्रज की भूमिका निभाने लगा. कृषि में शिक्षा आई तो अनुसंधान भी होने लगे.
पढ़ें: आजादी के 70 साल : कितनी बदलीं जनता की सवारियां
भारत का पहला कृषि विश्वविद्यालय बिहार के समस्तीपुर जिले में पूसा में स्थित था. असल में यह 'इम्पीरियल कृषि अनुसंधान संस्थान' था जो ब्रिटिश काल में सन् 1903 में स्थापित किया गया था. वर्ष 1934 में बिहार में एक भयंकर भूकंप आया जिसमें यह संस्थान बुरी तरह तबाह हो गया. उसी साल इस संस्थान को नई दिल्ली स्थानान्तरित कर दिया गया जिसे 'पूसा कैम्प्स' कहा गया. बाद में यह संस्थान भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान बन गया. 1970 में भारत सरकार ने इसी को 'राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय' के रूप में बदल दिया. कृषि शिक्षा को देशभर में फैलाने के लिए कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग की स्थापना दिसम्बर, 1973 में की गई थी.
कृषि मशीनरी- किसानों की मेहनत और वैज्ञानिकों की खोज ने निश्चित ही भारत को कृषि के क्षेत्र में नई दिशा देने का काम किया, लेकिन अगर मशीनीकरण के युग में कृषि मशीनों की बात ना हो तो सारी बातें बेमानी हो जाएंगी. जहां पहले बैलों से खेत जोतकर किसान खून-पसीना बहाकर अपने परिवार के पेट भरने लायक ही अनाज पैदा कर पाता था, आज वही किसान उतनी ही जमीन में मशीनों का इस्तेमाल कर न केवल पूरे साल खेत से पैदावार लेता है, बल्कि उस मशीन के आधार पर अतिरिक्त आमदनी भी कर पाता है. मशीनों में सबसे आगे आता है ट्रैक्टर. ट्रैक्टर खेत पर सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाने वाली मशीन है. हरित क्रांति में ट्रैक्टर की भूमिका भी प्रमुख रही है. किसान ट्रैक्टर से ही जमीन को जोतकर तैयार करना, बीज डालना, पौध लगाना, फसल लगाना, फसल काटना, सिंचाई करना, थ्रेशिंग करना, पशुओं के लिए चारा काटना आदि काम कर रहा है. इन सब के बाद जब फसल कट कर तैयार हो जाती है तो उसे मंडी भी ट्रैक्टर के द्वारा ही पहुंचाया जाता है. और अब तो कृषि की इतनी मशीनें आ चुकी है कि इसका एक अलग ही बाजार खड़ा हो गया है.
सहकारिता- भारत ने कृषि के क्षेत्र में जो मुकाम हासिल किया है उसके पीछे सहकारिता को ही मुख्य आधार कहा जाए तो कोई गलत नहीं होगा. श्वेत क्रांति हो या हरित क्रांति सभी के विकास के मूल में सहकारिता ही तो है. इसके चलते देशवासी आर्थिक रूप से समृद्ध तो हुए ही हैं, साथ ही बेरोजगारी की समस्या भी बहुत हद तक कम हुई है. दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है जिसका सहकारिता आंदोलन भारत जितना मज़बूत होगा. भारत में लगभग पांच लाख सहकारी समितियां हैं. देश की लगभग 50 फ़ीसदी चीनी उत्पादन में सहकारी समितियों का योगदान है. दूध के क्षेत्र में खेड़ा सहकारी दु्ग्ध उत्पादन संघ (अमूल) की सफलता किसी से छिपी नहीं है.
रासायनिक उर्वरक जिनके बल पर भारत ने हरित क्रांति की, उसका सबसे बड़ा उत्पादक इफको या 'इंडियन फार्मर्स फर्टिलाइजर कोआपरेटिव लिमिटेड' विश्व का सबसे बड़ा उर्वरक सहकारिता संस्था है. इफको में 40 हजार सहकारिताएं हैं. इस तरह से सहकारी बैंक हर जिले में किसानों के विकास की गाथा का भागीदार है.
प्रगतिशील किसान- हमारे पास सब कुछ है शिक्षा, संसाधन, मशीनरी आदि लेकिन अगर किसान के अंदर ही कुछ नया करने की ललक ना हो तो सारी बाते बेकार हो जाएंगी. हमारे प्रगतिशील किसानों की बदौलत ही हम कृषि के क्षेत्र में नित नई इबारत लिख रहे हैं. हमारे यहां ऐसे भी किसान हैं जिनकी वैज्ञानिक सोच के चलते बड़े-बड़े कृषि वैज्ञानिकों को उनकी बात मानने पर मजबूर होना पड़ा है. एक नहीं सैकड़ों , बल्कि हजारों किसान अपनी नई और प्रगतिशील सोच के कारण युवाओं को कृषि की ओर आकर्षित कर रहे हैं.
क्लिक करें: आजादी@70 पर हमारी खास पेशकश
आजादी के बाद सबसे बड़े बदलाव में सबसे पहले जिक्र करना होगा हरित क्रांति का, जिसकी बदौलत आज भारत के भंडार अन्न से भरे हुए हैं.
हरित क्रांति- भारत में हरित क्रांति की शुरुआत सन 1966-67 से हुई. हरित क्रांति प्रारम्भ करने का श्रेय नोबल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर नारमन बोरलॉग को जाता है. और भारत में हरित क्रांति की शुरूआत की थी कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन ने. इस क्रांति के जरिए अच्छे बीजों और रासायनिक खादों का इस्तेमाल कर उत्पादन बढ़ाना था. 1960-1961 में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग प्रति हेक्टेअर दो किलोग्राम होता था, जो 2008-2009 में बढ़कर 128.6 किग्रा प्रति हेक्टेअर हो गया. देश में अधिक उपज देने वाले उन्नतशील बीजों का प्रयोग बढ़ा तथा बीजों की नई-नई किस्मों की खोज की गई़ं. 1951-1952 में देश में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन 5.09 करोड़ टन था, जो क्रमशः बढ़कर 2008-2009 में बढ़कर 23.38 करोड़ टन हो गया. वर्ष 1950-1951 में खाद्यान्नों का उत्पादन 522 किग्रा प्रति हेक्टेअर था, जो बढ़कर 008-2009 में 1,893 किग्रा प्रति हेक्टेअर हो गया.
श्वेत क्रांति- दूध उत्पादन में भारत विश्व में सबसे आगे है. श्वेत या सफेद क्रांति को ऑपरेशन फ्लड के रूप में जाना जाता है. ऑपरेशन फ्लड कार्यक्रम 1970 में शुरू हुआ था. प्रथम चरण के दौरान ऑपरेशन फ्लड ने देश के 18 प्रमुख दुग्ध शेड़ों को देश के चार मुख्य महानगरों –दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के उपभोक्ताओं के साथ जोड़ा और दूध का पाउडर बनाकर इसकी शुरूआत की. धीरे-धीरे यह योजना 18 से बढ़कर 136 हो गई. दूध 290 नगरों के बाजारों में उपलब्ध होने लगा. 1985 के अंत तक 43,000 आत्मनिर्भर ग्राम दूध सहकारी समितियों की व्यवस्था बन चुकी थी. घरेलू पाउडर उत्पादन जो योजना के पूर्व वर्ष में 22,000 टन था वह 1989 में बढ़ कर 1,40,000 टन हो गया.
पढ़ें: आजादी के 70 साल : वे सात कंपनियां जिन्होंने सफलता के परचम फहराए...
डॉ॰ वर्गीज़ कुरियन को 'फादर ऑफ़ द वाइट रेवोलुशन' माना जाता है. उन्हीं की बदौलत भारत दूध के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सका. सन 1970 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड द्वारा शुरु की गई इस योजना ने भारत को विश्व मे दूध का सबसे बड़ा उत्पादक देश बना दिया. 1949 मे डॉ कुरियन कैरा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ (के डी सी एम पी ऊ एल), जोकि अमूल के नाम से प्रसिद्ध है, से जुड़ गए.
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नीली क्रांति- मछली उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए एक विशेष योजना चलाई गई थी, जिसे नीली क्रांति का नाम दिया गया. नीली क्रांति की वजह से भारत मछली उत्पादन में विश्व का दूसरे नंबर का देश है. पांचवी पंच वर्षीय योजना में भारत सरकार ने 1970 में नीली क्रांति को शामिल किया था. तभी से मछली उत्पादन में भारत तेजी से आगे बढ़ रहा है. वर्ष 2019-20 तक इस योजना के तहत भारत में मछली उत्पादन 150 लाख टन प्रति वर्ष करना है.
कृषि शिक्षा- कृषि के तमाम क्षेत्र में हम लगातार आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन इसका आधार है कृषि शिक्षा. पहले कृषि केवल पूर्वजों से मिले ज्ञान के आधार पर ही की जाती थी. उसी ज्ञान को नई पीढ़ी आगे बढ़ा रही थी. पूर्वजों से मिला ज्ञान एक परिवार या समाज के कुछ लोगों के पेट भरने लायक तो पैदावार देता था, लेकिन आबादी बढ़ने के साथ अनाज उत्पादन में वह ज्ञान कम पड़ने लगा. फिर कृषि में शिक्षा का संचार हुआ और देखते ही देखते भारत कृषि मामलों में अग्रज की भूमिका निभाने लगा. कृषि में शिक्षा आई तो अनुसंधान भी होने लगे.
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भारत का पहला कृषि विश्वविद्यालय बिहार के समस्तीपुर जिले में पूसा में स्थित था. असल में यह 'इम्पीरियल कृषि अनुसंधान संस्थान' था जो ब्रिटिश काल में सन् 1903 में स्थापित किया गया था. वर्ष 1934 में बिहार में एक भयंकर भूकंप आया जिसमें यह संस्थान बुरी तरह तबाह हो गया. उसी साल इस संस्थान को नई दिल्ली स्थानान्तरित कर दिया गया जिसे 'पूसा कैम्प्स' कहा गया. बाद में यह संस्थान भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान बन गया. 1970 में भारत सरकार ने इसी को 'राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय' के रूप में बदल दिया. कृषि शिक्षा को देशभर में फैलाने के लिए कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग की स्थापना दिसम्बर, 1973 में की गई थी.
कृषि मशीनरी- किसानों की मेहनत और वैज्ञानिकों की खोज ने निश्चित ही भारत को कृषि के क्षेत्र में नई दिशा देने का काम किया, लेकिन अगर मशीनीकरण के युग में कृषि मशीनों की बात ना हो तो सारी बातें बेमानी हो जाएंगी. जहां पहले बैलों से खेत जोतकर किसान खून-पसीना बहाकर अपने परिवार के पेट भरने लायक ही अनाज पैदा कर पाता था, आज वही किसान उतनी ही जमीन में मशीनों का इस्तेमाल कर न केवल पूरे साल खेत से पैदावार लेता है, बल्कि उस मशीन के आधार पर अतिरिक्त आमदनी भी कर पाता है. मशीनों में सबसे आगे आता है ट्रैक्टर. ट्रैक्टर खेत पर सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाने वाली मशीन है. हरित क्रांति में ट्रैक्टर की भूमिका भी प्रमुख रही है. किसान ट्रैक्टर से ही जमीन को जोतकर तैयार करना, बीज डालना, पौध लगाना, फसल लगाना, फसल काटना, सिंचाई करना, थ्रेशिंग करना, पशुओं के लिए चारा काटना आदि काम कर रहा है. इन सब के बाद जब फसल कट कर तैयार हो जाती है तो उसे मंडी भी ट्रैक्टर के द्वारा ही पहुंचाया जाता है. और अब तो कृषि की इतनी मशीनें आ चुकी है कि इसका एक अलग ही बाजार खड़ा हो गया है.
सहकारिता- भारत ने कृषि के क्षेत्र में जो मुकाम हासिल किया है उसके पीछे सहकारिता को ही मुख्य आधार कहा जाए तो कोई गलत नहीं होगा. श्वेत क्रांति हो या हरित क्रांति सभी के विकास के मूल में सहकारिता ही तो है. इसके चलते देशवासी आर्थिक रूप से समृद्ध तो हुए ही हैं, साथ ही बेरोजगारी की समस्या भी बहुत हद तक कम हुई है. दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है जिसका सहकारिता आंदोलन भारत जितना मज़बूत होगा. भारत में लगभग पांच लाख सहकारी समितियां हैं. देश की लगभग 50 फ़ीसदी चीनी उत्पादन में सहकारी समितियों का योगदान है. दूध के क्षेत्र में खेड़ा सहकारी दु्ग्ध उत्पादन संघ (अमूल) की सफलता किसी से छिपी नहीं है.
रासायनिक उर्वरक जिनके बल पर भारत ने हरित क्रांति की, उसका सबसे बड़ा उत्पादक इफको या 'इंडियन फार्मर्स फर्टिलाइजर कोआपरेटिव लिमिटेड' विश्व का सबसे बड़ा उर्वरक सहकारिता संस्था है. इफको में 40 हजार सहकारिताएं हैं. इस तरह से सहकारी बैंक हर जिले में किसानों के विकास की गाथा का भागीदार है.
प्रगतिशील किसान- हमारे पास सब कुछ है शिक्षा, संसाधन, मशीनरी आदि लेकिन अगर किसान के अंदर ही कुछ नया करने की ललक ना हो तो सारी बाते बेकार हो जाएंगी. हमारे प्रगतिशील किसानों की बदौलत ही हम कृषि के क्षेत्र में नित नई इबारत लिख रहे हैं. हमारे यहां ऐसे भी किसान हैं जिनकी वैज्ञानिक सोच के चलते बड़े-बड़े कृषि वैज्ञानिकों को उनकी बात मानने पर मजबूर होना पड़ा है. एक नहीं सैकड़ों , बल्कि हजारों किसान अपनी नई और प्रगतिशील सोच के कारण युवाओं को कृषि की ओर आकर्षित कर रहे हैं.
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