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    पहाड़ों का पहाड़ को ख़त : दरकता मैं

    पूरे साल अलग-अलग ऋतुओं के साथ मैं झूमता हूं गाता हूं, लेकिन बारिश आते ही मुझपर डर का साया मंडराने लगता है. हर साल मैं मौत का मंजर और तबाही की दास्तान लिखता हूं. न जाने कितनी जिंदगियों को मैंने अपने अंदर समेट लिया है. हंसते खेलते अनगिनत परिवार मेरे पास आकर बिखर गए हैं. किसी प्रेमी को मैंने उसके साथी से अलग किया, तो किसी मां से उसके बेटे को छीन लिया है. किसी के पिता की हत्या का इल्जाम मैं झेल रहा हूं तो किसी के पति की मौत का जिम्मेदार मुझे कहा जाता है. पर तुम ही बताओ क्या मैं सच में गुनहगार हूं?

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