
कांशीराम और मुलायम सिंह यादव (फाइल फोटो)
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1993 में सपा और बसपा के बीच गठबंधन बना
उस वक्त मुलायम सिंह और कांशीराम ने इसका नेतृत्व किया
1995 में दोनों दल अलग हो गए और धुर विरोधी बन गए
मुलायम और कांशीराम की दोस्ती
अखिलेश के संकेत एक बार फिर करीब चौथाई सदी पहले बनी दो दलों की दोस्ती की याद ताजा करती है. उल्लेखनीय है कि मुलायम सिंह यादव ने 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन किया था और उसके एक साल बाद हुए चुनाव से पहले बसपा के साथ रणनीतिक गठबंधन किया था. उस वक्त बसपा की कमान कांशीराम के पास थी. उस समझौते के तहत सपा और बसपा ने क्रमश: 256 और 164 सीटों पर चुनाव लड़ा था. नतीजतन दोनों दलों को क्रमश: 109 और 67 सीटें मिली थीं. लेकिन यह दोस्ती बहुत लंबे समय तक नहीं चली और मई,1995 में बसपा ने मुलायम सिंह की सरकार से अपना समर्थन खींच लिया.
गेस्टहाउस कांड
उसका नतीजा यह हुआ कि सरकार अल्पमत में आ गई. उसके बाद 'गेस्टहाउस कांड' में मायावती के साथ दुर्व्यवहार की घटना हुई और उसके बाद इन दोनों दलों में इतनी तल्खी बढ़ी की आज तक ये किसी भी रूप में एक मंच पर नहीं दिखे और एक दूसरे के विकल्प के रूप में जनता के समक्ष पेश हुए. पिछले दो दशकों में यूपी की पूरी सियासत इन्हीं दोनों ध्रुवों के इर्द-गिर्द घूमती रही है. हालांकि बीच-बीच में बीजेपी का भी उभार देखने को मिला है लेकिन वह तकरीबन 15 वर्षों से यूपी में तीसरी ताकत ही बनकर रह पाई है. हालांकि बीजेपी में नरेंद्र मोदी के उदय के बाद से वह एक बार फिर देश में सबसे बड़ी ताकत के रूप में उभरी है.
अब मौजूदा परिदृश्य में सबकी निगाहें 11 मार्च के चुनावी नतीजों पर लगी है. दरअसल यूपी में स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की दशा में बीजेपी के पास विकल्प सीमित होंगे? उसको भी समर्थन के लिए मायावती की तरफ देखना होगा? वहीं सपा और बसपा का गठजोड़ एक बार फिर बीजेपी को सियासत के बियाबान में धकेल देगा. कुल मिलाकर इन परिस्थितियों में सत्ता की चाबी 'किंग मेकर' मायावती के पास होगी. हालांकि मायावती का इतिहास यह बताता है कि वह समर्थन देने में बहुत उदार नहीं रही हैं और उनकी शर्तें सपा और बीजेपी के लिए कठिन चुनौती साबित होगी. लेकिन यदि एक्जिट पोल की मानें तो यदि बीएसपी तीसरी ताकत ही बन पाती है तो 2019 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए मायावती किस तरफ का रुख करेंगी, यह कल चुनाव नतीजों के बाद ही तय होगा.
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