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तिरूवनंतपुरम:
केरल विधानसभा में सत्तारुढ़ कांग्रेस और विपक्ष के लेफ्ट गठबंधन में सिर्फ चार सीटों का अंतर है। सोमवार को होने वाले चुनाव में वोटों के महज़ .25 प्रतिशत बदलाव से यह स्थिति उलट सकती है। 140 सदस्यों की विधानसभा में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूडीएफ के पास 72 सीटे हैं, बहुमत 71 है और सीपीएम की अगुवाई वाली एलडीएफ के पास 68 सीटें हैं।
केरल की चुनावी ट्रेन
ऐतिहासिक आंकड़ों और मौजूदा गठबंधन पर नज़र डालें तो 100 सीटों को हासिल करके बहुमत पाने के लिए यूडीएफ को महज़ 3.5 प्रतिशत वोट अपने पक्ष में चाहिए, वहीं इस आंकड़े को छूने के लिए एलडीएफ को चार प्रतिशत वोट का फायदा चाहिए यानि टक्कर कांटे की है। राज्य में 1980 से ही बारी-बारी से कांग्रेस और सीपीएम के गठबंधन की सरकार बन रही है। केरल में छोटी पार्टियों ने कभी कांग्रेस तो कभी सीपीएम से हाथ मिलाकर विपक्ष एकता इन्डैक्स (IOU) को काफी ऊंचा बनाए रखा है।
बीजेपी की एंट्री
लेकिन फिर राज्य में बीजेपी का आना होता है जिसे वोटों का छह प्रतिशत हिस्सा मिलता है और 2011 में वह एक भी सीट नहीं जीत पाती है। लेकिन 2014 लोकसभा चुनाव होने तक बीजेपी ने राज्य में अपना वोट शेयर 11 प्रतिशत तक पहुंचा दिया यानि चार सीटों के बराबर और उसे उम्मीद है कि इस चुनाव में वह इस गति को कायम रखेगी।
16 मई को होने वाले केरल चुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन यूडीएफ या एलडीएफ की जीत पर असर डाल सकता है। बीजेपी की मजबूत स्थिति यूडीएफ के लिए मुसीबत का कारण बन सकती है। अगर इस बार चुनाव में बीजेपी को वोटों का 2 प्रतिशत हिस्सा भी मिल जाता है तो संभावना है कि इसमें से 1.5 प्रतिशत हिस्सा वह यूडीएफ से छीनेगा। ऐसा होने से एलडीएफ को बहुमत मिल सकता है। अगर बीजेपी को पांच प्रतिशत वोट मिलते हैं तो उसमें से चार प्रतिशत यूडीएफ का हिस्सा होगा और इस तरह एलडीएफ के खाते में 79 सीटें जा सकती हैं।
गौरतलब है कि यूडीएफ ने पिछले दो चुनाव जीते हैं - 2011 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में भी उसने करीब 80 विधानसभा सीटों के बराबर जीत हासिल की थी। लेकिन एलडीएफ को उम्मीद इस बात से है कि छह महीने पहले पंचायत चुनाव में उनका पलड़ा भारी रहा था और यह भी कि पिछले 36 सालों में कोई भी पार्टी या गठबंधन दोबारा सत्ता में नहीं आया है। पंचायत चुनावों के परिणामों से अक्सर केरल के विधानसभा चुनाव के रुख़ को समझा जाता रहा है। 19 मई को चार राज्यों के अलावा केरल में भी वोटों की गिनती होनी है और उसी दिन दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
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ऐतिहासिक आंकड़ों और मौजूदा गठबंधन पर नज़र डालें तो 100 सीटों को हासिल करके बहुमत पाने के लिए यूडीएफ को महज़ 3.5 प्रतिशत वोट अपने पक्ष में चाहिए, वहीं इस आंकड़े को छूने के लिए एलडीएफ को चार प्रतिशत वोट का फायदा चाहिए यानि टक्कर कांटे की है। राज्य में 1980 से ही बारी-बारी से कांग्रेस और सीपीएम के गठबंधन की सरकार बन रही है। केरल में छोटी पार्टियों ने कभी कांग्रेस तो कभी सीपीएम से हाथ मिलाकर विपक्ष एकता इन्डैक्स (IOU) को काफी ऊंचा बनाए रखा है।
बीजेपी की एंट्री
लेकिन फिर राज्य में बीजेपी का आना होता है जिसे वोटों का छह प्रतिशत हिस्सा मिलता है और 2011 में वह एक भी सीट नहीं जीत पाती है। लेकिन 2014 लोकसभा चुनाव होने तक बीजेपी ने राज्य में अपना वोट शेयर 11 प्रतिशत तक पहुंचा दिया यानि चार सीटों के बराबर और उसे उम्मीद है कि इस चुनाव में वह इस गति को कायम रखेगी।
16 मई को होने वाले केरल चुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन यूडीएफ या एलडीएफ की जीत पर असर डाल सकता है। बीजेपी की मजबूत स्थिति यूडीएफ के लिए मुसीबत का कारण बन सकती है। अगर इस बार चुनाव में बीजेपी को वोटों का 2 प्रतिशत हिस्सा भी मिल जाता है तो संभावना है कि इसमें से 1.5 प्रतिशत हिस्सा वह यूडीएफ से छीनेगा। ऐसा होने से एलडीएफ को बहुमत मिल सकता है। अगर बीजेपी को पांच प्रतिशत वोट मिलते हैं तो उसमें से चार प्रतिशत यूडीएफ का हिस्सा होगा और इस तरह एलडीएफ के खाते में 79 सीटें जा सकती हैं।
गौरतलब है कि यूडीएफ ने पिछले दो चुनाव जीते हैं - 2011 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में भी उसने करीब 80 विधानसभा सीटों के बराबर जीत हासिल की थी। लेकिन एलडीएफ को उम्मीद इस बात से है कि छह महीने पहले पंचायत चुनाव में उनका पलड़ा भारी रहा था और यह भी कि पिछले 36 सालों में कोई भी पार्टी या गठबंधन दोबारा सत्ता में नहीं आया है। पंचायत चुनावों के परिणामों से अक्सर केरल के विधानसभा चुनाव के रुख़ को समझा जाता रहा है। 19 मई को चार राज्यों के अलावा केरल में भी वोटों की गिनती होनी है और उसी दिन दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
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