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This Article is From May 02, 2014

रवीश की कलम से : बिस्मिल्लाह का बनारस

रवीश की कलम से : बिस्मिल्लाह का बनारस

आदरणीय ख़ां साहब,
सोचा आपको एक ख़त लिखूं। मैं आपकी मज़ार पर गया था। सहयोगी अजय सिंह की वजह से। अजय ने कहा कि वो मुझे कुछ याद दिलाना चाहते हैं। थोड़ी देर के लिए बिस्मिल्लाह ख़ान की मज़ार पर ले चलते हैं। दिलो दिमाग़ पर स्मृतियों की इतनी परतें हो गई हैं कि उनकी तह तक पहुंचने के लिए किसी पुरातत्ववेत्ता की ज़रूरत पड़ती है।

अजय ने वही किया। उस साल की याद दिला दी, जब आसमान बरस रहा था और नीचे खड़ा मैं माइक लिए दुनिया को बता रहा था कि बिस्मिल्लाह ख़ान को अपने बदन पर पड़ने वाली मिट्टी खुरदरी न लगे, कोई सख़्त टुकड़ा चुभ न जाए, इसलिए आसमान बरस कर नम कर रहा है। रो रहा है। हम सब अगस्त की बारिश में भींग कर आपके चले जाने का शोक मना रहे थे।

वो 2006 का साल था और ये 2014 का है। नेता आपकी मज़ार पर आने लगे हैं। शायद आप उन्हें मुसलमान नज़र आए हैं। राजनीति में कोई शहनाई के लिए नहीं आता। अख़बारों और टीवी पर खूब ख़बरें देखीं। अरविंद केजरीवाल आपकी मज़ार पर गए हैं। नरेंद्र मोदी के लोग आपके बेटों के पास गए हैं, ताकि वे प्रस्तावक बन जाएं। आपके बेटों ने मना कर दिया है। चर्चा चल रही है कि आपके ज़रिये गंगा-जमुनी टाइप संकेत देने की कोशिश में आप ध्यान में आए हैं। शहनाई वाले में एक मुसलमान दिखा है। आप तो जानते ही हैं कि हमारी राजनीति ऐसे ही बिस्मिल्लाह करती है।

हां तो मैं आपसे मज़ार पर जाने की बात कह रहा था। भारत रत्न बिस्मिल्लाह ख़ान की मज़ार पर। सोचा जो हिन्दुस्तान जिस बिस्मिल्लाह को हथेलियों पर रखता था, वो उसकी ख़ाक को मोतियों की माला में जड़ कर पहनता ही होगा। भारत में ज़िंदा बच गए लोग कई लोगों के लिए भारत रत्न की मांग करते हैं। ख़ूब सियासत होती है। अब तो भारत रत्न की मांग का लाइव कवरेज़ होता है। आपने तो ऐसा कुछ किया नहीं। कभी कभार टहलने के लिए राज्य सभा की मेंबरी नहीं मांगी।

इन्हीं सब बातों को सोचते हुए अब मैं पूरी तरह आपके पास लौट आया था। याद आने लगी वो बात, जब आपके पास मनाने गया था। आप ग़ुस्से में थे। गालियां दे रहे थे। मैंने तो इतना सा अर्ज़ किया था। कोई बुज़ुर्ग जब गाली देता है, तो वो गाली नहीं होती, आशीर्वाद है। ख़ां साहिब, मैं आने वाली पीढ़ी को बताऊंगा कि दुनिया ने बिस्मिल्लाह से शहनाई सुनी, लेकिन मैंने गालियां सुनी हैं। आप हंस दिए। आपकी शक्ल मेरे नाना जैसी मिलती थी। हमने अपने नाना-नानी को कम देखा जीया है। आपसे बातें होने लगी थी। आप इस बात पर भी शर्मा से गए थे।

आपका ग़ुस्सा शहनाई पर धुन बनने के लिए बेचैन हो रहा था। आप ही ने कहा कि आजतक किसी के लिए अकेले नहीं बजाया। तुमको सुनाता हूं। कैमरा चालू था। कमरे से बाक़ी लोग बाहर कर दिए गए। आपका फेफड़ा हांफने लगा। मैं मना करने लगा, तो आपने कहा कि कई दिनों से नहीं बजाया है, इसलिए शहनाई रूठ गई है। मान जाएगी। एक बाप की तरह आप मेरे लिए बेचैन हो गए थे।

तो आपकी मज़ार पर मैं खड़ा था। शाम हो गई थी। अजय वहां तक ले गए, जहां तक आपका हिस्सा इस लोक की मिट्टी में बचा हुआ था। दीवार पर भारत रत्न बिस्मिल्लाह ख़ान का पोस्टर। दिलफेंक मुस्कुराहट। आपकी हंसी का कोई मुक़ाबला नहीं। ऐसा लगा, जैसे पूछ रहे हों कि बताओ ये धुन कैसी लगी। सुनी तुमने बिस्मिल्लाह की शहनाई। आपकी शरारती आंखें। उफ्फ। जिस बनारस का आप क़िस्सा सुनाते रहे, उसी बनारस में आप एक क़िस्सा हैं।

लेकिन उसी बनारस में दस साल में भी आपकी मज़ार पूरी नहीं हो सकी। एक तस्वीर है और घेरा ताकि पता चले कि जिसकी शहनाई से आज भी हिन्दुस्तान का एक हिस्सा जागता है, वो यहां सो रहा है। जो रेडियो सुनते हैं, वो ये बात जानते हैं। मज़ार के पास खड़े एक शख़्स ने बताया कि आपकी मज़ार इसलिए कच्ची है, क्योंकि इस जगह को लेकर शिया और सुन्नी में विवाद है। मुक़दमा चल रहा है। फ़ैसला आ जाए तो आज बना दें।

ये आपकी नहीं इस मुल्क की बदनसीबी है कि आपको एक अदद क़ब्र भी नसीब नहीं हुई। इसके लिए भी किसी जज की क़लम का इंतज़ार है। हम किसलिए किसी को भारत रत्न देते हैं। भारत रत्न देकर भी गोतिया पट्टीदार की पोलटिक्स से मुक्ति मिलेगी कि नहीं। क्या शिया और सुन्नी आपकी शहनाई में नहीं हैं। क्या वो दो गज ज़मीन आपके नाम पर नहीं छोड़ सकते। क्या बनारस आपके लिए पहल नहीं कर सकता। किस बात का बनारस के लोग बनारस-बनारस गाते फिरते हैं।

आपकी शख़्सियत और शहनाई पर लिखने के क़ाबिल नहीं हूं, इसलिए सोचा कि आपको ख़त लिखूं। इस बात की माफ़ी मांगते हुए कि आपको मैं भी भूल गया हूं। आप याद आते हैं, पर कभी आपकी ख़बर नहीं ली। आपसे मिलकर लौटते हुए यही सोच रहा था कि कितना कम मिला आपसे, मगर कितना ज़्यादा दे दिया है आपने। ठीक-ठीक तो नहीं, पर मुझे कुछ-कुछ याद आ रहा है। जो मैं आपके निधन पर लाइव प्रसारण में बोल रहा था। बिस्मिल्लाह ख़ान बनारस के बाप थे। आज बनारस से उसके बाप का साया उठ गया है। हम सब ऐसे ही हैं ख़ां साहिब। आप जानते ही हैं। इसलिए आपको मुस्कुराता देख अच्छा लगा। इस बाप ने जीते जी कुछ नहीं चाहा, तो एक क़ब्र या एक मज़ार की क्या बिसात। मैंने भी एक तस्वीर खिंचा ली।

आपका
रवीश कुमार एनडीटीवी वाला

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