पाकिस्तान में शायद ही किसी मामले पर इतनी ज्यादा राजनीतिक गहमागहमी और मीडिया हलचल होती है, जितनी सेना प्रमुख की नियुक्ति को लेकर पैदा होती है. पाकिस्तान में सैन्य तख्तापलट की आशंका रहती है, इस लिहाज से सेना प्रमुख की नियुक्त काफी बड़ा मुद्दा माना जाता है. पाकिस्तान में सेना प्रमुख की शक्तियां किसी कानूनी किताब के अनुसार तय नहीं होती हैं बल्कि प्रभुत्व के दम पर उसे शक्तियां मिली होती हैं. सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा 29 नवंबर को सेवानिवृत्त होने जा रहे हैं. उनके उत्तराधिकारी की नियुक्ति एक प्रशासनिक मामला है.
पाकिस्तान के परमाणु शक्ति संपन्न देश होने की वजह से सेना प्रमुख की नियुक्ति पर देश ही नहीं बल्कि दुनियाभर की नजर रहती है.
कानून के अनुसार वर्तमान प्रधानमंत्री के पास शीर्ष के तीन-स्टार जनरल में से किसी एक को सेना प्रमुख चुनने की शक्ति होती है, लेकिन राजनीतिक रूप से इसका मतलब अलग होता है. प्रधानमंत्री किसी ऐसे व्यक्ति को सेना प्रमुख चुनना चाहता है जो अपना काम करता रहे और उसके लिए चुनौती न बने.
पाकिस्तान के 75 से अधिक साल के इतिहास में आधे से ज्यादा समय तक देश पर शासन करने वाली सेना ने अब तक सुरक्षा और विदेश नीति के मामलों में अपनी शक्ति का काफी इस्तेमाल किया है. साल 1947 में पाकिस्तान की स्थापना हुई, जिसके बाद पहले दशक में एक के बाद एक सात प्रधानमंत्री बदले. देश में जब संवैधानिक शासन आपसी रस्साकशी और कुप्रबंधन की भेंट चढ़ गया तो, तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल अय्यूब खान ने 1958 में सैन्य शासन लागू कर सत्ता अपने हाथ में ले ली.
अय्यूब खान ने ताकत के दम पर राज किया और जब वह अलोकप्रिय हो गए तो अंतत: 1969 में उन्हें सत्ता से हटना पड़ा. लेकिन उनके हटने के बाद भी सत्ता सेना प्रमुख याहया खान के पास गई, जिन्होंने 1971 तक शासन किया. भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में हुए संक्षिप्त युद्ध के बाद याहया खान को सत्ता से हाथ धोना पड़ा. इस युद्ध के बाद बांग्लादेश के रूप में एक नया देश अस्तित्व में आया.
इसके बाद पाकिस्तान में दो सैन्य तानाशाहों का राज रहा. जनरल जिया उल हक ने 1977 से 1988 जबकि जनरल परवेज मुशर्रफ ने 1999 से 2008 तक पाकिस्तान पर शासन किया. दोनों का शासन पाकिस्तान में आंतरिक कलह और संघर्ष की कड़वी यादें छोड़ गया.
इस तरह पाकिस्तान के इतिहास में आधे से ज्यादा समय तक प्रत्यक्ष रूप से सेना का शासन रहा. जबकि आधे समय तक परोक्ष या छद्म रूप से सेना ने राज किया. यही वजह है कि पाकिस्तान के 19 निर्वाचित प्रधानमंत्रियों में से कोई भी अपना पांच साल का संवैधानिक कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया. 11 अन्य प्रधानमंत्रियों को चुनाव के मद्देनजर या अस्थायी रूप से अल्पावधि के लिए नियुक्त किया गया.
पाकिस्तान में तीन साल के लिए सेना प्रमुख की नियुक्ति की जाती है, लेकिन कई सेना प्रमुखों को सेवा विस्तार मिला है. इस फेहरिस्त में वर्तमान सेना प्रमुख जरनल बाजवा का नाम भी शामिल है, जिन्हें नवंबर 2016 में इस पद पर नियुक्त किया गया था, लेकिन साल 2019 में उन्हें तीन वर्ष के लिए सेवा विस्तार दे दिया गया.
जनरल बाजवा इस दौरान चार प्रधानमंत्रियों के साथ काम कर चुके हैं. इनमें से दो प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और इमरान खान रहे, जिन्हें कार्यकाल पूरा होने से पहले ही पद से हटना पड़ा. शरीफ को भ्रष्टाचार के मामले में अदालत से दोषी पाए जाने के बाद पद से हटा दिया गया था जबकि खान को संसद में अविश्वास प्रस्ताव के जरिए अपदस्थ किया गया.
शरीफ और खान दोनों ने खुद को प्रधानमंत्री पद से हटाए जाने के खिलाफ अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त की. शरीफ ने नपे-तुले शब्दों में सेना पर निशाना साधा तो खान ने सेना पर साजिश रचने का आरोप लगाया. खान को सेना के पूर्व जनरलों समेत कुछ पूर्व अधिकारियों का काफी समर्थन मिला, जिसके बाद मौजूदा सैन्य नेतृत्व हरकत में आया और खुफिया एजेंसी इंटर-सर्विसेस इंटेलिजेंस (आईएसआई) के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल नदीम अंजुम को संवाददाता सम्मेलन करके खान के आरोपों को खारिज करना पड़ा.
इसके अलावा, खान की मांग है कि नए चुनाव कराए जाएं और उसके बाद जो सरकार बने, वह नए सेना प्रमुख की नियुक्ति करे. उन्होंने बाजवा को एक और सेवा विस्तार देने की सलाह भी दी है.
सेना प्रमुख की नियुक्ति में देरी ने पाकिस्तान में अनिश्चितता और राजनीतिक भ्रम पैदा किया है. हालांकि 29 नवंबर को मौजूदा सेना प्रमुख की सेवानिवृत्ति के बाद यह साफ हो जाएगा कि सेना की बागडोर अब किसके हाथ में जाएगी.
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