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गैंगरेप में अपराध साबित करने के लिए पीड़िता के प्राइवेट पार्ट पर चोट के निशान होना जरूरी नहीं- इलाहाबाद HC

महोबा के चरखारी थाने में दर्ज गैंगरेप के मामले में आठ साल के बाद फैसला देते हुए कोर्ट ने दोषियों की क्रिमिनल अपील पर कहा कि इस मामले में दूसरी संभावना यह भी हो सकती है कि पीड़िता किसी नशीले पदार्थ जैसे शराब या किसी अन्य नशीली दवा के हानिकारक प्रभाव के कारण बेहोश या अर्ध-बेहोशी (Semi-Conscious) की हालत में हो जिसके कारण वह विरोध करने में असमर्थ हो.

गैंगरेप में अपराध साबित करने के लिए पीड़िता के प्राइवेट पार्ट पर चोट के निशान होना जरूरी नहीं- इलाहाबाद HC
(फाइल फोटो)
  • इलाहाबाद HC ने गैंगरेप के मामले में पीड़िता के प्राइवेट पार्ट पर चोट न होना अपराध न होने का संकेत नहीं माना है
  • कोर्ट ने कहा कि पीड़िता की अर्ध बेहोशी या डराने की स्थिति में बल प्रयोग न होना भी संभव है
  • महोबा के गैंगरेप मामले में चार आरोपियों में से तीन को संदेह का लाभ देते हुए बरी किया गया है
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महोबा:

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने महोबा से जुड़े गैंगरेप के एक मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा है कि गैंगरेप मामले के अपराध को साबित करने के लिए हमेशा यह जरूरी नहीं कि पीड़िता के प्राइवेट पार्ट पर चोट के निशान हो. हाईकोर्ट ने कहा कि रेप पीड़िता के प्राइवेट पार्ट पर चोट न लगना उन मामलों में अपराध को अंजाम देते समय बल के प्रयोग न करने के कारण हो सकता है जहां उसे इस हद तक डरा दिया गया हो कि उसने अपराध का विरोध न किया हो.

महोबा के चरखारी थाने में दर्ज गैंगरेप के मामले में आठ साल के बाद फैसला देते हुए कोर्ट ने दोषियों की क्रिमिनल अपील पर कहा कि इस मामले में दूसरी संभावना यह भी हो सकती है कि पीड़िता किसी नशीले पदार्थ जैसे शराब या किसी अन्य नशीली दवा के हानिकारक प्रभाव के कारण बेहोश या अर्ध-बेहोशी (Semi-Conscious) की हालत में हो जिसके कारण वह विरोध करने में असमर्थ हो. जस्टिस जेजे मुनीर की सिंगल बेंच ने महोबा के एडिशनल सेशंस जज/फास्ट ट्रैक कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए गैंगरेप के एक आरोपी की दोषसिद्धि को बरकरार रखा. वहीं हाईकोर्ट ने उसके तीन सह-आरोपियों को संदेह का लाभ (Benefit of Doubt) देते हुए उनकी दोषसिद्धि को रद्द करते हुए बरी कर दिया है.

मामले के अनुसार महोबा के चरखारी थाने में 13 जनवरी 2015 को एक एफआईआर दर्ज की गई थी, जिसमें 20 वर्षीय पीड़िता ने आरोप लगाया था कि जब वो 11 जनवरी 2015 को घर से अपने पिता के लिए गुटखा खरीदने निकली थी तो रास्ते में जबरदस्ती एक खंडहर इमारत में ले जाकर उसका मुंह दबाकर चार लोगों द्वारा उसको जबरन शराब पिलाई और उसके साथ गैंगरेप की वारदात को अंजाम दिया गया था. इस मामले में पीड़िता यानी अभियोक्ता (Prosecutrix) ने सभी के खिलाफ आईपीसी की धारा 376-D में दो नामजद और दो अज्ञात के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई थी.

इस मामले में महोबा के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश/फास्ट ट्रैक कोर्ट ने 2 मार्च 2017 को आदेश देते हुए इरफान, इरफान उर्फ ​​गोलू, रितेश उर्फ ​​शानू और मानवेंद्र उर्फ ​​कल्लू को आईपीसी की धारा 376-डी के तहत दोषी ठहराते हुए सभी को 20 साल के कठोर कारावास (Rigorous Imprisonment) की सजा सुनाई. इसके अलावा कोर्ट ने सभी पर बीस हजार का जुर्माना भी लगाया था. फास्ट ट्रैक कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए सभी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में 28 मार्च 2017 को क्रिमिनल अपील दाखिल की थी.

इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट में आठ साल तक सुनवाई चली. कोर्ट में दोनों पक्षों की तरफ से कई दलीलें पेश की गई. अपीलकर्ता के वकीलों ने तर्क दिया कि यह झूठे आरोप का मामला है. अपीलकर्ताओं के अधिवक्ता ने दलील दी कि मेडिकल रिपोर्ट के अनुसार पीड़िता के निजी अंगों पर कोई चोट के निशान नहीं पाए गए है. मुख्य आरोपी के अलावा दो आरोपियों का नाम पीड़िता ने एफआईआर में दर्ज नहीं कराया था.

यह भी दलील दी गई कि अभियोजन पक्ष द्वारा अज्ञात की पहचान घटना के 7-8 महीने बाद की गई थी जो पूरी तरह से अविश्वसनीय है. यह भी दलील दी गई कि शुरुआत में पीड़िता ने केवल आरोपी इरफान उर्फ ​​गोलू द्वारा मारपीट की बात बताई थी लेकिन इसके बाद अगली शाम चार लोगों द्वारा गैंगरेप का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज करवाई थी. कोर्ट ने कहा कि चारों अपराधियों की संलिप्तता भी अच्छी तरह स्थापित है लेकिन उनकी पहचान एक उचित संदेह का विषय है जो उनके हित में होना चाहिए. इस संबंध में हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के 2025 में राजू उर्फ उमाकांत बनाम मध्य प्रदेश राज्य के फैसले का हवाला दिया, जिसमें मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भले ही पीड़िता के होंठ पर चोट के अलावा कोई अन्य चोट मौजूद न हो इसका मतलब यह नहीं है कि उसके खिलाफ यौन उत्पीड़न नहीं किया गया था.

हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने अपने 44 पन्नों के फैसले में यह माना कि पीड़िता अर्ध बेहोशी (Semi-Conscious) अवस्था में थी और उन अपराधियों की पहचान करने में उसकी भूमिका पर भरोसा नहीं किया जा सकता जिन्हें वह पहले से नहीं जानती थी. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पीड़िता द्वारा जघन्य अपराध (Gruesome Crime) सहने के विवरण पर पूरी तरह से विश्वास नहीं किया जाना चाहिए सिर्फ़ इसलिए कि उसके प्राइवेट पार्ट को कोई चोट नहीं आई थी. हाईकोर्ट ने अपीलकर्ताओं इरफ़ान, रितेश उर्फ ​​शानू और मानवेंद्र उर्फ ​​कल्लू की क्रिमिनल अपील स्वीकार कर ली और उन्हें संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया. हालांकि, हाईकोर्ट ने अपीलकर्ता इरफ़ान उर्फ ​​गोलू की अपील को खारिज कर दिया और ट्रायल कोर्ट द्वारा उसकी दोषसिद्धि और 20 साल की सजा को बरकरार रखा है.

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