Anupam Mishra Died
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"पर्यावरण का अनुपम, अनुपम मिश्र है, उसकी 'पुण्याई' पर हम जैसे जी रहे हैं"
- Wednesday December 21, 2016
- प्रभाष जोशी
प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र पर यह लेख वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने 'अपने पर्यावरण का यह अनुपम आदमी' शीर्षक से 1993 में 'जनसत्ता' में लिखा था. इस आलेख को आज 'सत्याग्रह' ने प्रकाशित किया है. हम अपने पाठकों के लिए इसे 'सत्याग्रह' की अनुमति से प्रकाशित कर रहे हैं.
- ndtv.in
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प्राइम टाइम इंट्रो : अनुपम मिश्र के बारे में आपको क्यों जानना चाहिए...
- Monday December 19, 2016
- रवीश कुमार
सोचा नहीं था कि जिनसे ज़िंदगी का रास्ता पूछता था, आज उन्हीं के ज़िंदगी से चले जाने की ख़बर लिखूंगा. जाने वाले को अगर ख़ुद कहने का मौका मिलता तो यही कहते कि अरे मैं कौन सा बड़ा शख़्स हूं कि मेरे जाने का शोक समाचार दुनिया को दिया जाए.
- ndtv.in
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मैं अनुपम मिश्र को मिस कर रहा हूं...
- Monday December 19, 2016
- रवीश कुमार
अनुपम मिश्र को खूब पढ़ा है. तीन-चार किताबों को कई बार पढ़ा है. जब भी किताबों से धूलों की विदाई करता हूं, एक बार याद कर लेता हूं. जब भी लगता है कि भाषा बिगड़ रही है तो 'गांधी मार्ग' और 'आज भी खरे हैं तालाब' पढ़ लेता था. उनकी भाषा हिंसा रहित भाषा थी, चिन्ता रहित भाषा थी, आक्रोश रहित भाषा थी. हम सबकी भाषा में यह गुण नहीं हैं. इसीलिए वे अनुपम थे, हम अनुपम नहीं हैं. वे चले गए हैं.
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"पर्यावरण का अनुपम, अनुपम मिश्र है, उसकी 'पुण्याई' पर हम जैसे जी रहे हैं"
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प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र पर यह लेख वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने 'अपने पर्यावरण का यह अनुपम आदमी' शीर्षक से 1993 में 'जनसत्ता' में लिखा था. इस आलेख को आज 'सत्याग्रह' ने प्रकाशित किया है. हम अपने पाठकों के लिए इसे 'सत्याग्रह' की अनुमति से प्रकाशित कर रहे हैं.
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प्राइम टाइम इंट्रो : अनुपम मिश्र के बारे में आपको क्यों जानना चाहिए...
- Monday December 19, 2016
- रवीश कुमार
सोचा नहीं था कि जिनसे ज़िंदगी का रास्ता पूछता था, आज उन्हीं के ज़िंदगी से चले जाने की ख़बर लिखूंगा. जाने वाले को अगर ख़ुद कहने का मौका मिलता तो यही कहते कि अरे मैं कौन सा बड़ा शख़्स हूं कि मेरे जाने का शोक समाचार दुनिया को दिया जाए.
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मैं अनुपम मिश्र को मिस कर रहा हूं...
- Monday December 19, 2016
- रवीश कुमार
अनुपम मिश्र को खूब पढ़ा है. तीन-चार किताबों को कई बार पढ़ा है. जब भी किताबों से धूलों की विदाई करता हूं, एक बार याद कर लेता हूं. जब भी लगता है कि भाषा बिगड़ रही है तो 'गांधी मार्ग' और 'आज भी खरे हैं तालाब' पढ़ लेता था. उनकी भाषा हिंसा रहित भाषा थी, चिन्ता रहित भाषा थी, आक्रोश रहित भाषा थी. हम सबकी भाषा में यह गुण नहीं हैं. इसीलिए वे अनुपम थे, हम अनुपम नहीं हैं. वे चले गए हैं.
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