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This Article is From Dec 19, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : अनुपम मिश्र के बारे में आपको क्यों जानना चाहिए...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 19, 2016 21:43 pm IST
    • Published On दिसंबर 19, 2016 21:43 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 19, 2016 21:43 pm IST
सोचा नहीं था कि जिनसे ज़िंदगी का रास्ता पूछता था, आज उन्हीं के ज़िंदगी से चले जाने की ख़बर लिखूंगा. जाने वाले को अगर ख़ुद कहने का मौका मिलता तो यही कहते कि अरे मैं कौन सा बड़ा शख़्स हूं कि मेरे जाने का शोक समाचार दुनिया को दिया जाए. ज़िद करने लगते कि रहने दो. जो काम मैंने किया है वो मेरा थोड़े न है. मैंने तो बस जो मौजूद था इस दुनिया में उसी को उठाकर एक पन्ने पर रख दिया है. उन्हें कोई न तो बता सकता था न इस बात के लिए तैयार कर सकता था कि उन्होंने कुछ किया है. इसीलिए वे हम सबके हीरो थे. एक हीरो वो होता है जिसे दुनिया जानती है, एक हीरो वो होता है जो इस दुनिया को जानता है. सोमवार की सुबह दिल्ली के एम्स अस्पताल में अनुपम मिश्र ने अंतिम सांस ली. वो अब नहीं हैं तो कम से कम आज ज़िद नहीं कर सकते कि उनके जाने की ख़बर दुनिया को न बताई जाए. कोशिश करूंगा कि उनके बारे में कम बताऊं और उनके काम के बारे में ज़्यादा.
 
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यह किताब 1993 में छप गई थी लेकिन मेरे हाथ लगी 28 अगस्त, 2007 को. यही तारीख है और उस पर लिखा है कि अनुपम जी की ओर से सप्रेम भेंट. तब से इस किताब को हर साल और साल में कई बार पढ़ता हूं. इस किताब के पहले पन्ने पर लेखक का नाम नहीं है. भीतर कहीं बहुत छोटे से प्रिंट में संपादन अनुपम मिश्र लिखा है. ये उनकी फितरत की वजह से हुआ होगा कि कोई इस किताब की बजाए उनकी चर्चा न करने लगे, इसलिए वे बात को आगे रखते थे और अपने नाम को पीछे. 1993 में पहली बार प्रकाशित हुई थी. ढाई लाख प्रतियां हिन्दी में छपी हैं. दस साल तक भारत के अलग-अलग इलाकों में यात्राएं कर अनुपम मिश्र ने तालाब बनाने की हमारी विशाल परंपरा, उसकी तकनीक और शब्दों को जुटाया था लेकिन पहले पन्ने में लेखक अनुपम मिश्र नहीं लिखा. इस किताब की कॉपीराइट नहीं है. इस किताब से उन्होंने एक नया पैसा नहीं लिया. अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग संस्थाओं, प्रकाशकों और लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर भी इसे छापा, बेचा और बांटा. हिन्दी का ही अनुमानित हिसाब है कि इस किताब की ढाई लाख प्रतियां बिकी हैं. मलयाली, कन्नड़, तेलुगू, तमिल, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी, उर्दू के अलावा मंदारिन, अंग्रेज़ी और फ्रेंच में भी इसका अनुवाद है. ब्रेल में भी ये किताब छपी है. जिस किसी ने पढ़ा वो तालाब बनाने की भारतीय परंपरा का कायल हो गया और अपने स्तर पर तालाब बनाने लगा. यह सही है कि हमने तमाम तालाब मिटा दिये लेकिन यह भी सही है कि इस किताब को पढ़ने के बाद लोगों ने फिर से कई तालाब बना दिये. अनुपम मिश्र राजस्थान और बुंदेलखंड के गांव-गांव घूमते रहे, लोगों को बताते रहे कि आपकी तकनीक है, आपकी विरासत है, तालाब बनाने में कोई ख़र्चा नहीं आता है, मिलकर बना लो. क्यों हम सब अकाल, सुखाड़ से मर रहे हैं.

हम राजनेताओं के जाने पर काफी कुछ बताते हैं, अभिनेताओं के जाने पर काफी कुछ बताते हैं, अनुपम जी के जाने पर अगर थोड़ा भी कम बताया तो मुझे आज नींद नहीं आएगी. आपको क्यों जानना चाहिए अनुपम मिश्र के बारे में. हो सकता है कि आपकी कोई दिलचस्पी न हो लेकिन पानी को पानी समझने के लिए तो जाना ही जा सकता है. शहर के शहर बरसात की बाढ़ के शिकार हो रहे हैं और नदियां पानी को तरस रही हैं. जब नदियां ही मरणासन्न हैं, तो शहरों में बाढ़ कहां से आती है. अगर आपकी दिलचस्पी इसमें भी नहीं है तो अनुपम जी के शब्दों में कोई बात नहीं. अपना काम है, अच्छा-अच्छा काम करते जाना. किताब का मुखड़ा बताया है तो पन्नों पर लिखी कुछ बातें भी बताऊंगा.

सागर, सरोवर, सर चारों तरफ मिलेंगे. सागर लाड़ प्यार से सगरा भी हो जाता है और प्राय: बड़े ताल के अर्थ में काम आता है. सरोवर कहीं सरवर भी है. सर संस्कृत शब्द सरस से बना है. आकार में बड़े और छोटे तालाबों का नामकरण पुलिंग और स्त्रीलिंग शब्दों की इन जोड़ियों से जोड़ा जाता रहा है. जोहड़-जोहड़ी, बंध-बंधिया, ताल-तलैया, पोखर-पोखरी. डिग्गी हरियाणा और पंजाब में कहा जाता है. कहीं चाल कहीं खाल, कहीं ताल तो कहीं तोली तो कहीं चौरा. चौपड़ा, चौधरा, तिघरा, चार घाट तीन घाट, अठघट्टी पोखर. तालाब के अलग-अलग घाट अलग-अलग काम के लिए होते थे. छत्तीसगढ़ में तालाब के डौका घाट पुरुषों के लिए तो डौकी घाट स्त्रियों के लिए. गुहिया पोखर, अमहा ताल. डबरा, बावड़ी, गुचकुलिया, खदुअन. जिस तालाब में मगरमच्छ होते थे उनके नाम होते थे मगरा ताल, नकरा ताल. संस्कृत का शब्द है नकरा जिसका मतलब मगरमच्छ ही होता है. बिहार में बराती ताल भी होता है. बिहार के लखीसराय में कोई रानी हुई जो हर दिन एक तालाब में नहाती थी तो वहां 365 तालाब बन गए. स्वाद के हिसाब से महाराष्ट्र में तालाब का नाम जायकेदार या चवदार ताल पड़ा. ऐरी, चेरी दक्षिण में तालाब को कहा गया. पुड्डुचेरी राज्य के नाम का मतलब ही है नया तालाब.

इतने सारे नाम इसलिए बताए ताकि हम याद रखें कि यह सब किसी इंजीनियरिंग कॉलेज की देन नहीं है, बल्कि हमारी संस्कृति और उसकी समझ का हिस्सा है, जिसके बारे में हम नहीं जानते हैं. अलग-अलग जानते भी होंगे, लेकिन एक साथ इन नामों को रख कर देखिये तो फिर पता चलेगा कि हमने कितना कुछ गंवा दिया है. इसी किताब में रीवा के जोड़ौरी गांव का ज़िक्र है, जहां 2500 की आबादी पर 12 तालाब थे. किताब 1993 की है, तो अब क्या हालत बताना मुश्किल है, फिर भी 150 आबादी पर एक तालाब का औसत. अनुपम जी ने यह सवाल उठाया कि आखिर क्या हुआ कि जो तकनीक और परंपरा कई हज़ार साल तक चली वो बीसवीं सदी के बाद बंद हो गई. लिखते हैं कि कोई सौ बरस पहले मास प्रेसिडेंसी में 53000 तालाब थे और मैसूर में 1980 तक 39000 तालाब. उन्हीं के शब्द हैं कि इधर उधर बिखरे ये सारे आंकड़े एक जगह रखकर देखें तो बीसवीं सदी के प्रारंभ तक भारत में 11-12 लाख तालाब थे. ये तालाब इंजीनियरिंग कॉलेज की देन नहीं थे. लोगों ने बनाए थे.

अनुपम जी ने लिखा है कि इस नए समाज के मन में इतनी भी उत्सकुता नहीं बची है कि उससे पहले के दौर में इतने सारे तालाब भला कौन बनाता था. गजधर यानी जो नापने के काम आता है. तीन हाथ की लोहे की छड़ लेकर घूमता था. समाज ने इसे मिस्त्री नहीं कहा, सुंदर सा नाम दिया गजधर. गजधर वास्तुकार थे. गजधर हिन्दू थे और बाद में मुसलमान भी. कभी-कभी सिलावटा भी कहलाए. इसलिए राजस्थान के पुराने शहरों में सिलावटपाड़ा मोहल्ले मिल जाएंगे और कराची में भी सिलावटों का पूरा-पूरा मोहल्ला है. गजधर में भी सिद्ध होते थे जो सिर्फ अंदाज़े से बता देते थे कि यहां पानी है. यहां तालाब बनाओ. हर जाति और तबके के लोगों ने तालाब बनाने का काम किया. इस किताब में दिल्ली का ज़िक्र है. अंग्रेज़ों के आने के पहले दिल्ली में 350 तालाब थे. उसी दौर में दिल्ली में नल लगे. जब बारात पंगत में बैठ जाती तो स्त्रियां गाती थी कि फिरंगी नल मत लगवाय दियो. लेकिन नल लगते गए और तालाब कुएं और बावड़ियों के बदले अंग्रेज़ों द्वारा नियंत्रित वाटर वर्क्स से पानी आने लगा. किताब में मध्य प्रदेश के सागर का एक प्रसंग है. कोई 600 साल पहले लाखा बंजारे ने सागर नाम का विशाल तालाब बनाया. इसके किनारे शहर बसा जिसका नाम सागर हो गया. अब यहां नए समाज की तमाम संस्थाएं हैं. विश्वविद्यालय, ज़िला मुख्यालय, पुलिस प्रशिक्षण केंद्र है. एक बंजारा यहां आया और विशाल सागर बनाकर चला गया लेकिन नए समाज की ये साधन संपन्न संस्थाएं इस सागर का देखभाल नहीं कर सकीं.

आप भी इस किताब को इसी तरह बांच सकते हैं. हम पानी पीते तो हैं, मगर पानी के बारे में कम जानते हैं. धीरे-धीरे कंपनियों के नाम जानेंगे और पानी के बारे में भूल जाएंगे. अनुपम मिश्र की किताब की अंतिम पंक्ति यही है, अच्छे-अच्छे काम करते जाना. गांधी मार्ग पत्रिका की भाषा में उतर कर देखिये आपको चिढ़ हिंसा, कुढ़न, आक्रोश का नामो निशान नहीं मिलेगा. ऐसी भाषा बहुत कम लोग लिख पाते हैं. पूरी तरह से लोकतांत्रिक व्यक्तित्व.

अनुपम मिश्र गए हैं, ये बड़ी बात नहीं है, पानी को जानने वाला समाज चला गया ये बड़ी बात है. उस समाज का दस्तावेज़ भी तैयार है, फिर भी किसी को फर्क नहीं पड़ता ये बड़ी बात है. आप ये न समझियेगा कि कोई लेखक गया है, आदमी को आदमी बनाने का एक स्कूल बंद हो गया है.
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