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Priyadarshan Blog

'Priyadarshan Blog' - 366 News Result(s)
  • पंकज धीर चले गए, सबको महाभारत का कर्ण याद आया

    पंकज धीर चले गए, सबको महाभारत का कर्ण याद आया

    पंकज धीर चले गए. महाभारत का रौबीली मूंछों वाला कर्ण का वह किरदार फिर जिंदा हो गया. धीर ने कई रोल किए, लेकिन वह ताउम्र कर्ण ही रहे. पढ़िए कर्ण की कहानी...

  • गुरुदत्त की वह दास्तान, जिसमें रोशनी और अंधेरा साथ-साथ चलते रहे

    गुरुदत्त की वह दास्तान, जिसमें रोशनी और अंधेरा साथ-साथ चलते रहे

    शुरुआती संघर्ष का दौर बीतने के बाद 'बाजी' के साथ गुरुदत्त जो नई शुरुआत करते हैं, उससे कई कामयाब फिल्मों का सिलसिला बनता है- ऐसी फिल्मों का जो आम लोगों को भी रास आती हैं और शास्त्रीय सिनेमा की शर्तों को भी पूरा करती हैं. हालांकि गुरुदत्त की कामयाबियों के समानांतर एक कहानी नाकामी की भी है.

  • अब हिंदी में आई यह दलित-कथा ज़रूर देखी जानी चाहिए

    अब हिंदी में आई यह दलित-कथा ज़रूर देखी जानी चाहिए

    'धड़क 2' को देखना भारत में जातिगत उत्पीड़न के उन प्रत्यक्ष और परोक्ष अनुभवों से आंख मिलाना है, जिसे वृहत्तर भारतीय समाज पहचानने से भी इनकार करता है- यह कहता हुआ कि यह तो किसी पुराने ज़माने या पिछड़े इलाक़े की बात लगती है.

  • टेनिस खेलती, गोली खाती लड़की

    टेनिस खेलती, गोली खाती लड़की

    कात्यायनी की कविता में वह शुक्रवार का दिन था. लेकिन इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में टेनिस खेलने और सबको सिखाने का सपना देख रही राधिका यादव के जीवन में शुक्रवार नहीं आया.

  • पूर्णिया का डायन कांड... और रेणु की 'परती परिकथा', जहां परती बढ़ी, परिकथा बदल गई...

    पूर्णिया का डायन कांड... और रेणु की 'परती परिकथा', जहां परती बढ़ी, परिकथा बदल गई...

    लेकिन क्या पूर्णिया में सोमवार को जो कुछ हुआ, उसे रेणु की ग्राम कथा से जोड़ा जा सकता है? निश्चय ही नहीं. बस यह घटना यही बताती है कि हमारे समाज में पुरानी विकृतियां और अंधविश्वास किस तरह अब भी बने हुए हैं...

  • ‘सैटेनिक वर्सेज़’ पर नहीं चलेगी पाबंदी - किसी भी रचना पर नहीं चलती

    ‘सैटेनिक वर्सेज़’ पर नहीं चलेगी पाबंदी - किसी भी रचना पर नहीं चलती

    उम्मीद करनी चाहिए कि इस बार सलमान रुश्दी की किताब पर नए सिरे से पाबंदी नहीं लगेगी. हमारा समाज और हमारी सरकारें अब यह सयानापन दिखाती हैं कि जो भी पाबंदी हो, वह अलिखित हो, अदृश्य हो. ऐसी कई पाबंदियों का दबाव हमारे लेखक और संस्कृतिकर्मी महसूस करते रहे हैं.

  • एक ख़त कमाल के नाम

    एक ख़त कमाल के नाम

    कमाल साहब, हम दोनों को जो चीज़ जोड़ती थी, वह भाषा भी थी- लफ़्ज़ों के मानी में हमारा भरोसा, शब्दों की नई-नई रंगत खोजने की हमारी कोशिश और अदब की दरबानी का हमारा जज़्बा. पत्रकारिता के सतहीपन ने आपको भी दुखी किया और मुझे भी.

  • सूर्य कुमार यादव की जाति के बहाने

    सूर्य कुमार यादव की जाति के बहाने

    बेशक, यह स्थिति भी स्थायी नहीं रहेगी. सूर्य कुमार यादव या ऐसे दूसरे खिलाड़ियों का उदय बता रहा है कि पुरानी शक्ति-संरचनाएं टूट रही हैं और नई सामाजिक शक्तियां अपनी आर्थिक हैसियत के साथ अपना हिस्सा मांग और वसूल रही हैं. यह स्थिति सिर्फ किसी खेल में नहीं, हर क्षेत्र में देखी जा सकती है.

  • अब एक और हिंदी दिवस आ गया! 

    अब एक और हिंदी दिवस आ गया! 

    दिलचस्प यह है कि एक तरफ़ हिंदी के मसाले में रेत की यह मिलावट जारी है और दूसरी ओर शुद्धतावाद और पवित्रतावाद का प्रपंच भी चल रहा है.

  • अब विदेशी विश्वविद्यालयों से भी लीजिए ज्ञान!

    अब विदेशी विश्वविद्यालयों से भी लीजिए ज्ञान!

    उच्च शिक्षा के निजीकरण के बाद उसके भूमंडलीकरण की इस कोशिश के कुछ निहितार्थ तो स्पष्ट हैं. उच्च शिक्षा अब ग़रीबों की हैसियत से बाहर होने जा रही है. क्योंकि वे जिन सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई करते हैं, वे धीरे-धीरे आर्थिक और बौद्धिक रूप से विपन्न बनाए जा रहे हैं. यह सच है कि भारत के विश्वविद्यालय कभी भी बहुत साधन-संपन्न नहीं रहे.

  • नया साल और हिंदी-उर्दू का सवाल

    नया साल और हिंदी-उर्दू का सवाल

    यह सच है कि हिंदी और उर्दू को सांप्रदायिक पहचान के आधार पर बांटने वाली दृष्टि बिल्कुल आज की नहीं है. उसका एक अतीत है और किसी न किसी तरह यह बात समाज के अवचेतन में अपनी जगह बनाती रही है कि हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की.

  • बंद नोट और राजनीतिक नीयत का खोट

    बंद नोट और राजनीतिक नीयत का खोट

    सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने यह बात कही भी थी और मामला बंद देने का सुझाव दिया था. लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और वकील पी चिदबंरम की इस दलील ने उसे अपना विचार बदलने को मजबूर किया कि इससे नोटबंदी जैसे फ़ैसलों की संवैधानिक स्थिति स्पष्ट होगी. ये फ़ैसला बीते दिनों को भले पलट न सके, लेकिन आने वाले दिनों के लिए नज़ीर बन सकता है. 

  • अभद्र भाषा से लेकर गंभीर बीमारी तक बस नक़ली चिंता 

    अभद्र भाषा से लेकर गंभीर बीमारी तक बस नक़ली चिंता 

    भारतीय राजनीति ने इस कुत्ता शब्द के और भी बुरे इस्तेमाल देखे हैं. 2014 से पहले प्रधानमंत्री पद की दौड़ में लगे तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से पूछा गया कि 2002 के गुजरात दंगों का दर्द उन्हें नहीं है? 

  • बदरंग आस्था बनाम बेशरम रंग 

    बदरंग आस्था बनाम बेशरम रंग 

    एक दौर में राज कपूर, देवानंद और दिलीप कुमार की फिल्में भी ‘लड़कों को बिगाड़ने वाली’ मानी जाती थीं. बड़े-बूढ़े तो पूरी फिल्म संस्कृति को संदेह से और नाक-भौं सिकोड़ कर देखते थे.

  • ये अर्थव्यवस्था है नादान! 

    ये अर्थव्यवस्था है नादान! 

    जिस डिजिटल लेनदेन का नगाड़ा अगले कई दिनों तक ज़ोर-शोर से बजाया जाता रहा और जिस तरह राष्ट्रीय मुद्रा में लेनदेन का लगभग अवमूल्यन करते हुए डिजिटल भुगतान को बढ़ावा दिया गया, उसका उस पहले भाषण में लेश मात्र भी ज़िक्र नहीं था.  

'Priyadarshan Blog' - 366 News Result(s)
  • पंकज धीर चले गए, सबको महाभारत का कर्ण याद आया

    पंकज धीर चले गए, सबको महाभारत का कर्ण याद आया

    पंकज धीर चले गए. महाभारत का रौबीली मूंछों वाला कर्ण का वह किरदार फिर जिंदा हो गया. धीर ने कई रोल किए, लेकिन वह ताउम्र कर्ण ही रहे. पढ़िए कर्ण की कहानी...

  • गुरुदत्त की वह दास्तान, जिसमें रोशनी और अंधेरा साथ-साथ चलते रहे

    गुरुदत्त की वह दास्तान, जिसमें रोशनी और अंधेरा साथ-साथ चलते रहे

    शुरुआती संघर्ष का दौर बीतने के बाद 'बाजी' के साथ गुरुदत्त जो नई शुरुआत करते हैं, उससे कई कामयाब फिल्मों का सिलसिला बनता है- ऐसी फिल्मों का जो आम लोगों को भी रास आती हैं और शास्त्रीय सिनेमा की शर्तों को भी पूरा करती हैं. हालांकि गुरुदत्त की कामयाबियों के समानांतर एक कहानी नाकामी की भी है.

  • अब हिंदी में आई यह दलित-कथा ज़रूर देखी जानी चाहिए

    अब हिंदी में आई यह दलित-कथा ज़रूर देखी जानी चाहिए

    'धड़क 2' को देखना भारत में जातिगत उत्पीड़न के उन प्रत्यक्ष और परोक्ष अनुभवों से आंख मिलाना है, जिसे वृहत्तर भारतीय समाज पहचानने से भी इनकार करता है- यह कहता हुआ कि यह तो किसी पुराने ज़माने या पिछड़े इलाक़े की बात लगती है.

  • टेनिस खेलती, गोली खाती लड़की

    टेनिस खेलती, गोली खाती लड़की

    कात्यायनी की कविता में वह शुक्रवार का दिन था. लेकिन इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में टेनिस खेलने और सबको सिखाने का सपना देख रही राधिका यादव के जीवन में शुक्रवार नहीं आया.

  • पूर्णिया का डायन कांड... और रेणु की 'परती परिकथा', जहां परती बढ़ी, परिकथा बदल गई...

    पूर्णिया का डायन कांड... और रेणु की 'परती परिकथा', जहां परती बढ़ी, परिकथा बदल गई...

    लेकिन क्या पूर्णिया में सोमवार को जो कुछ हुआ, उसे रेणु की ग्राम कथा से जोड़ा जा सकता है? निश्चय ही नहीं. बस यह घटना यही बताती है कि हमारे समाज में पुरानी विकृतियां और अंधविश्वास किस तरह अब भी बने हुए हैं...

  • ‘सैटेनिक वर्सेज़’ पर नहीं चलेगी पाबंदी - किसी भी रचना पर नहीं चलती

    ‘सैटेनिक वर्सेज़’ पर नहीं चलेगी पाबंदी - किसी भी रचना पर नहीं चलती

    उम्मीद करनी चाहिए कि इस बार सलमान रुश्दी की किताब पर नए सिरे से पाबंदी नहीं लगेगी. हमारा समाज और हमारी सरकारें अब यह सयानापन दिखाती हैं कि जो भी पाबंदी हो, वह अलिखित हो, अदृश्य हो. ऐसी कई पाबंदियों का दबाव हमारे लेखक और संस्कृतिकर्मी महसूस करते रहे हैं.

  • एक ख़त कमाल के नाम

    एक ख़त कमाल के नाम

    कमाल साहब, हम दोनों को जो चीज़ जोड़ती थी, वह भाषा भी थी- लफ़्ज़ों के मानी में हमारा भरोसा, शब्दों की नई-नई रंगत खोजने की हमारी कोशिश और अदब की दरबानी का हमारा जज़्बा. पत्रकारिता के सतहीपन ने आपको भी दुखी किया और मुझे भी.

  • सूर्य कुमार यादव की जाति के बहाने

    सूर्य कुमार यादव की जाति के बहाने

    बेशक, यह स्थिति भी स्थायी नहीं रहेगी. सूर्य कुमार यादव या ऐसे दूसरे खिलाड़ियों का उदय बता रहा है कि पुरानी शक्ति-संरचनाएं टूट रही हैं और नई सामाजिक शक्तियां अपनी आर्थिक हैसियत के साथ अपना हिस्सा मांग और वसूल रही हैं. यह स्थिति सिर्फ किसी खेल में नहीं, हर क्षेत्र में देखी जा सकती है.

  • अब एक और हिंदी दिवस आ गया! 

    अब एक और हिंदी दिवस आ गया! 

    दिलचस्प यह है कि एक तरफ़ हिंदी के मसाले में रेत की यह मिलावट जारी है और दूसरी ओर शुद्धतावाद और पवित्रतावाद का प्रपंच भी चल रहा है.

  • अब विदेशी विश्वविद्यालयों से भी लीजिए ज्ञान!

    अब विदेशी विश्वविद्यालयों से भी लीजिए ज्ञान!

    उच्च शिक्षा के निजीकरण के बाद उसके भूमंडलीकरण की इस कोशिश के कुछ निहितार्थ तो स्पष्ट हैं. उच्च शिक्षा अब ग़रीबों की हैसियत से बाहर होने जा रही है. क्योंकि वे जिन सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई करते हैं, वे धीरे-धीरे आर्थिक और बौद्धिक रूप से विपन्न बनाए जा रहे हैं. यह सच है कि भारत के विश्वविद्यालय कभी भी बहुत साधन-संपन्न नहीं रहे.

  • नया साल और हिंदी-उर्दू का सवाल

    नया साल और हिंदी-उर्दू का सवाल

    यह सच है कि हिंदी और उर्दू को सांप्रदायिक पहचान के आधार पर बांटने वाली दृष्टि बिल्कुल आज की नहीं है. उसका एक अतीत है और किसी न किसी तरह यह बात समाज के अवचेतन में अपनी जगह बनाती रही है कि हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की.

  • बंद नोट और राजनीतिक नीयत का खोट

    बंद नोट और राजनीतिक नीयत का खोट

    सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने यह बात कही भी थी और मामला बंद देने का सुझाव दिया था. लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और वकील पी चिदबंरम की इस दलील ने उसे अपना विचार बदलने को मजबूर किया कि इससे नोटबंदी जैसे फ़ैसलों की संवैधानिक स्थिति स्पष्ट होगी. ये फ़ैसला बीते दिनों को भले पलट न सके, लेकिन आने वाले दिनों के लिए नज़ीर बन सकता है. 

  • अभद्र भाषा से लेकर गंभीर बीमारी तक बस नक़ली चिंता 

    अभद्र भाषा से लेकर गंभीर बीमारी तक बस नक़ली चिंता 

    भारतीय राजनीति ने इस कुत्ता शब्द के और भी बुरे इस्तेमाल देखे हैं. 2014 से पहले प्रधानमंत्री पद की दौड़ में लगे तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से पूछा गया कि 2002 के गुजरात दंगों का दर्द उन्हें नहीं है? 

  • बदरंग आस्था बनाम बेशरम रंग 

    बदरंग आस्था बनाम बेशरम रंग 

    एक दौर में राज कपूर, देवानंद और दिलीप कुमार की फिल्में भी ‘लड़कों को बिगाड़ने वाली’ मानी जाती थीं. बड़े-बूढ़े तो पूरी फिल्म संस्कृति को संदेह से और नाक-भौं सिकोड़ कर देखते थे.

  • ये अर्थव्यवस्था है नादान! 

    ये अर्थव्यवस्था है नादान! 

    जिस डिजिटल लेनदेन का नगाड़ा अगले कई दिनों तक ज़ोर-शोर से बजाया जाता रहा और जिस तरह राष्ट्रीय मुद्रा में लेनदेन का लगभग अवमूल्यन करते हुए डिजिटल भुगतान को बढ़ावा दिया गया, उसका उस पहले भाषण में लेश मात्र भी ज़िक्र नहीं था.