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This Article is From Jun 07, 2022

GI टैग की रेस में शामिल होगा 'इंदौरी पोहा', जानें क्‍या है आवेदन की प्रक्रिया...

नमकीन और मिठाई के कारोबार से जुड़े स्थानीय लोगों ने इंदौरी पोहे को GI टैग दिलाने की कवायद पहली बार वर्ष 2019 में शुरू की थी.

GI टैग की रेस में शामिल होगा 'इंदौरी पोहा', जानें क्‍या है आवेदन की प्रक्रिया...
प्रतीकात्‍मक फोटो
इंदौर:

अपने स्वाद के लिए देश-दुनिया में मशहूर इंदौरी पोहे (Indori poha) को भौगोलिक पहचान (GI) का तमगा दिलाने की कवायद तीन साल के अंतराल के बाद तेज हो गई है. शहर के नमकीन और मिठाई कारोबारियों का एक संगठन, इंदौरी पोहे को जीआई टैग दिलाने के लिए चेन्नई स्थित जियोग्राफिकल इंडिकेशन्स रजिस्ट्री के सामने जल्द ही दावा पेश कर सकता है. शहर के नमकीन-मिष्ठान्न क्रेता एवं विक्रेता कल्याण संघ के सचिव अनुराग बोथरा ने मंगलवार को बताया,‘‘हम जियोग्राफिकल इंडिकेशन्स रजिस्ट्री के सामने जल्द से जल्द दावा पेश करेंगे कि अपने विशिष्ट स्वाद और अलग-अलग चीजें डाल कर इस व्यंजन को परोसने के खास अंदाज के लिए इंदौरी पोहे को जीआई टैग प्रदान किया जाए.''बोथरा ने कहा कि इंदौरी पोहे का स्वाद बढ़ाने के लिए इस पर कतरे हुए प्याज, सेव, बूंदी, जीरावन (स्थानीय स्तर पर तैयार चटपटा मसाला) और अन्य चीजें डालकर इसकी खास सजावट की जाती है.

गौरतलब है कि नमकीन और मिठाई के कारोबार से जुड़े स्थानीय लोगों ने इंदौरी पोहे को GI टैग दिलाने की कवायद पहली बार वर्ष 2019 में शुरू की थी, लेकिन पिछले तीन वर्षों में यह परवान नहीं चढ़ सकी. अब इस सिलसिले में हलचल तेज हुई है. बौद्धिक संपदा कानूनों के जानकार राकेश सोनी,  GI तमगे के लिए इंदौरी पोहे का दावा तैयार करने में स्थानीय कारोबारी संगठन की मदद कर रहे हैं. उन्होंने कहा,‘‘देश में पोहा वैसे तो कई राज्यों में विभिन्न रूपों और नामों से खाया जाता है. लेकिन इंदौर के पानी की तासीर और खास पाक कला के कारण इंदौरी पोहे का स्वाद अन्य स्थानों से एकदम अलग होता है.''सोनी ने कहा,'अगर स्थानीय कारोबारियों के संगठन को इंदौरी पोहे के लिए जीआई टैग प्रदान किया जाता है, तो उन्हें इस व्यंजन की ब्रांडिंग और मार्केटिंग में मदद मिलेगी. यही नहीं, वे देश-दुनिया के अन्य स्थानों पर इंदौरी पोहे के नाम से इस व्यंजन की अनधिकृत बिक्री रुकवाने के लिए कानूनी कदम भी उठा सकेंगे.'

बहरहाल, जानकारों का कहना है कि किसी भी व्यंजन पर जीआई चिन्ह का दावा साबित करना आसान नहीं होता. जानकारों के मुताबिक, पहचान के इस प्रतिष्ठित तमगे को हासिल करने के लिए आवेदनकर्ता को लम्बी प्रक्रिया से गुजरना होता है. इस दौरान उसे जियोग्राफिकल इंडिकेशन्स रजिस्ट्री के सामने पुख्ता दस्तावेजी सबूत पेश करने होते हैं कि संबंधित पकवान का नुस्खा किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में खोजा गया था तथा व्यंजन को इस इलाके में ऐतिहासिक तौर पर पकाया और खाया जा रहा है. अप्रैल 2004 से लेकर अब तक जिन भारतीय पकवानों को खाद्य उत्पादों की श्रेणी में GI टैग मिला है, उनमें धारवाड़ का पेड़ा (कर्नाटक), तिरुपति का लड्डू (आंध्र प्रदेश), बीकानेरी भुजिया (राजस्थान), हैदराबादी हलीम (तेलंगाना), जयनगर का मोआ (पश्चिम बंगाल), रतलामी सेव (मध्य प्रदेश), बंदर लड्डू (आंध्र प्रदेश), वर्धमान का सीताभोग (पश्चिम बंगाल), वर्धमान का ही मिहिदाना (पश्चिम बंगाल) और बांग्लार रसगुल्ला (पश्चिम बंगाल) शामिल हैं.

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(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)

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