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This Article is From Mar 31, 2019

आखिर ओडिशा की राजनीति में जीरो से हीरो कैसे बने नवीन पटनायक, पढ़ें- पूरी कहानी

राजनीति कब किसे कहां से कहां पहुंचा दे, यह किसी को पता नहीं है. कभी कोई हीरो से जीरो बन जाता है तो कोई जीरो से हीरो. ऐसी ही कहानी नवीन पटनायक की है.

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आखिर ओडिशा की राजनीति में जीरो से हीरो कैसे बने नवीन पटनायक, पढ़ें- पूरी कहानी
वीन पटनायक (Naveen Patnaik) ओडिशा की राजनीति में लगातार मजबूत होते गए हैं.
नई दिल्ली:

राजनीति कब किसे कहां से कहां पहुंचा दे, यह किसी को पता नहीं है. कभी कोई हीरो से जीरो बन जाता है तो कोई जीरो से हीरो. ऐसी ही कहानी नवीन पटनायक की है. 17 अप्रैल 1997 को ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक की जब मौत हुई तब उनके बेटे नवीन पटनायक का राजनीति से कोई दूर का वास्ता भी नहीं था. नवीन पटनायक (Naveen Patnaik) अमेरिका में रहते थे. ओड़िया भाषा और संस्कृति के साथ उनका कोई खास रिश्ता नहीं था और वह ठीक से ओड़िया भाषा भी नहीं बोल पाते थे. बीजू पटनायक की मौत के बाद पार्टी को कौन संभाले, इस बात लेकर बहस शुरू हो गई. बीजू पटनायक एक प्रभावशाली नेता थे. आज़ादी की लड़ाई के दौरान जेल में भी रहे थे. वह ओडिशा के दो बार मुख्यमंत्री रहने के साथ साथ कई बार सांसद और केंद्र में मंत्री भी रहे. बीजू पटनायक सबसे पहले कांग्रेस की तरफ से 1961 में दो साल के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली. फिर 1990 में पूरे पांच साल  जनता दल की तरफ से मुख्यमंत्री रहे.  

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नवीन पटनायक की  राजनीती में एंट्री और बीजद का गठन
बीजू पटनायक की जब मौत हुई तब वह आस्का लोकसभा सीट से सांसद थे. उनकी मौत के बाद नवीन पटनायक (Naveen Patnaik) 1997 में आस्का से लोकसभा उप-चुनाव लड़े और जीत हासिल की. नवीन तीन बार आस्का से चुनाव लड़े और जीतते रहे. वह अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री भी बने. बीजू पटनायक की मौत के आठ महीने बाद 26 दिसंबर 1997 को बीजू जनता दल का गठन हुआ. इसके पीछे विजय महापात्र का दिमाग माना जाता है.  बीजू जनता दल के संस्थापक सदस्यों में से एक विजय महापत्रा बीजू पटनायक के काफी करीब माने जाते थे और बीजू पटनायक की कैबिनेट में 1990 से 1995 तक मंत्री भी रहे. इसके अलावा पाटकुरा विधानसभा सीट से 20 साल तक विधायक रहे. पाटकुरा विधानसभा सीट केंद्रापड़ा लोक सभा सीट के अंदर आती है. बीजू पटनायक खुद केंद्रापड़ा से तीन बार सांसद चुने गए थे. बीजू पटनायक की मौत के बाद पार्टी के कई नेता कमान संभालना चाहते थे, जिसमें विजय महापात्र जैसे नेता भी शामिल थे. ओडिशा की राजनीति में नवीन पटनायक (Naveen Patnaik) की एंट्री कई नेताओं को पसंद नहीं आई.    

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नवीन पटनायक बनाम विजय महापात्र  
यह साल 2000 की बात है. ओडिशा में विधानसभा चुनाव होने वाले थे. विजय महापात्र और नवीन पटनायक के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था. नवीन (Naveen Patnaik) का ओडिशा की राजनीति में ज्यादा अनुभव नहीं था लेकिन विजय महापात्र काफी अनुभवी नेता थे. वह पॉलीटिकल अफेयर कमिटी के चेयरमैन भी थे और चुनाव के लिए उम्मीदवार भी चुन रहे थे. उस समय ओडिशा में कांग्रेस शासन से लोग खुश नहीं थे. दरअसल, 1995 में ओडिशा में कांग्रेस की सरकार बनी. पांच साल के कार्यकाल में कांग्रेस ने तीन बार मुख्यमंत्री बदले. कांग्रेस नेताओं के बीच गद्दी संभालने को लेकर संघर्ष चल रहा. अब बीजू जनता दल के पास एक मौका था. बीजू पटनायक की मौत के बाद ओडिशा में यह पहला विधान सभा चुनाव था और नेताओं को पता था कि बीजू पटनायक के नाम पर वोट मिलने वाले हैं. सबको लग रहा था अगर बीजू जनता दल को जनादेश मिलता है तो विजय महापात्र ही मुख्यमंत्री बनेंगे. 

नवीन पटनायक का मास्टर स्ट्रोक
विजय महापत्रा ने समय रहते पाटकुरा विधानसभा सीट से अपना नॉमिनेशन भरा. यह नॉमिनेशन फाइल करने का आखिरी दिन था. विजय महापात्र भुवनेश्वर के एक होटल में मीटिंग करने पहुंचे. इस मीटिंग में पॉलीटिकल अफेयर कमिटी के कई और सदस्य भी शामिल हुए, लेकिन नवीन पटनायक (Naveen Patnaik) इस मीटिंग में नहीं पहुंचे. उस समय नवीन पार्टी के अध्यक्ष थे. विजय महापात्र मुख्यमंत्री के रेस में थे और अपने लिए लॉबिंग शुरू कर दी. वह ज्यादा से ज्यादा नेताओं को अपने पक्ष में करने में लग गए. ज्यादातर  टिकट अपने करीबी नेताओं को दिए. दूसरी तरफ, नवीन पटनायक (Naveen Patnaik) ने केंद्रीय मंत्री रहते हुए भी हिन्जिली विधानसभा सीट से नॉमिनेशन भरा. हिन्जिली सीट आस्का लोक सभा सीट के अंदर आती है, जहां से नवीन खुद सांसद थे. नॉमिनेशन भरने में कुछ घंटे बचे थे. इसी बीच विजय महापात्र के पास एक फ़ोन आता है और उन्हें बताया जाता है कि नवीन पटनायक ने पाटकुरा विधानसभा सीट से उनके नॉमिनेशन को रद्द कर दिया है और अतानु सब्यसाची को पाटकुरा से उम्मीदवार बनाया गया है. जब तक विजय महापात्र कुछ समझ पाते तब तक देर हो चुकी थी. विजय महापात्र के पास निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में नॉमिनेशन फाइल करने का भी समय नहीं बचा. दरअसल, भुवनेश्वर से पाटकुरा करीब 92 किलोमीटर दूर है और वहां पहुंचने में कम से कम ढाई घंटे लगते हैं, लेकिन नॉमिनेशन के लिए सिर्फ एक घंटे बचे थे. ऐसे में विजय महापात्र के पास कोई रास्ता नहीं बचा था. 

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...जब विजय महापात्र ने चला दांव    
विजय महापात्र को पता था कि लबीजू जनता दल में उनका कोई भविष्य नहीं है. इसके बाद उन्होंने पाटकुरा से तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार को अपना समर्थन दे दिया. तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार ने इस सीट से जीत भी हासिल की और नवीन पटनायक के उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा, लेकिन नवीन पटनायक (Naveen Patnaik) अपने प्लान में सफल हो गए. इसके बाद विजय महापात्र ने अपनी अलग पार्टी बनाई, लेकिन दोबारा कभी पाटकुरा से चुनाव नहीं जीत पाए. 2009 में विजय महापात्र ने बीजेपी का दामन थाम लिया. 10 साल बाद 2018 में उन्होंने बीजेपी को अलविदा कह दिया था. अब अब तीन दिन पहले उनकी दोबारा बीजेपी में वापसी हुई है. उम्मीद है कि विजय महापात्र पटकुरा विधानसभा सीट से बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे. 

बीजेपी से गठजोड़ और अलगाव की कहानी 
नवीन पटनायक एनडीए सरकार में मंत्री भी रहे. साल 2000 के विधानसभा चुनाव में पहली बार ओडिशा में बीजद और बीजेपी के बीच गठबंधन हुआ. 147 सीटों में से बीजद ने 68 सीट जीती और नवीन पटनायक (Naveen Patnaik) ओडिशा के मुख्यमंत्री बने. 2004 में भी बीजद और बीजेपी के बीच लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए गठबंधन हुआ. एक बार फिर गठबंधन को बहुमत मिला और नवीन (Naveen Patnaik) मुख्यमंत्री बने.  इस चुनाव में बीजद को 61 विधान सभा सीटें मिलीं, जबकि बीजेपी के खाते में 32 सीटें गईं. लोकसभा सीटों की बात करें तो 21 में 11 सीटों पर बीजद ने कब्जा जमाया, जबकि 7 सीट बीजेपी को मिली. हालांकि 2009 में बीजद और बीजेपी के बीच गठबंधन नहीं बन पाया. दोनों पार्टियों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा. इस चुनाव में बीजद ने शानदार प्रदर्शन किया. 147 विधानसभा सीटों में से 103 पर जीत हासिल की. जबकि बीजेपी सिर्फ 6 विधानसभा सीटों पर सिमट गई. वहीं लोकसभा में बीजद को 14 सीटें मिलीं,  जबकि बीजेपी को कोई भी सीट नहीं मिल पाई. कांग्रेस ने जरूर 6 सीटों पर जीत हासिल की.  

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पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भी बीजद ने शानदार प्रदर्शन किया था. विधानसभा की 147 सीटों में से बीजद को 117 सीटें मिली थीं, यानी 2009 से 14 सीट ज्यादा. तो वहीं लोकसभा सीटों की बात करें तो 2014 में बीजद ने 21 में से 20 सीटों पर जीत हासिल की थी. बीजेपी को सिर्फ एक सीट मिली थी. यानी चुनाव-दर-चुनाव बीजद और नवीन पटनायक मजबूत होते गए. 1997 में नवीन पटनायक (Naveen Patnaik) जब राजनीति में आए थे तब उनके पास कोई अनुभव नहीं था. कई लोगों को लग रहा था कि नवीन राजनीति में सफल नहीं होंगे और पिता की विरासत को आगे नहीं बढ़ा पाएंगे, लेकिन नवीन पटनायक ने सबको झूठा साबित किया.  

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