बिहार का 'लेनिनग्राद' और 'मिनी मास्को' के नाम से मशहूर बेगूसराय लोकसभा चुनाव 2019 में न सिर्फ देश के 'हॉट' सीटों में शुमार है, बल्कि राजनीति के केंद्र को भी अपनी ओर मोड़ने में अब तक कामयाब रहा है. बेगूसराय सीट पर उसी तरह पूरे देश की नजरें टिकी हैं, जैसे वाराणसी, अमेठी, रायबरेली और वायनाड की सीट पर. लोकसभा चुनाव के इस महासमर में बिहार की सियासत का केंद्र बन चुकी बेगूसराय सीट के लाइम लाइट में रहने की वजह जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के साथ-साथ बात-बात पर विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की नसीहत देने वाले बीजेपी के फायरब्रांड नेता गिरिराज सिंह हैं. हालांकि, महागठबंन की ओर से राजद प्रत्याशी तनवीर हसन की उम्मीदवारी ने भी मुकाबले को काफी दिलचस्प बना दिया है. कन्हैया कुमार पहले महागठबंधन की ओर से मैदान में उतरने वाले थे, मगर तेजस्वी यादव की ओर से हरी झंडी नहीं मिलने की वजह से महागठबंधन ने कन्हैया को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया. तभी से बिहार की सियासी फिजाओं में ऐसी हवाएं चल रही हैं कि क्यों तेजस्वी ने कन्हैया को राजद के टिकट से नहीं उतारा, क्या तेजस्वी कन्हैया की लोकप्रियता से डरते हैं या फिर युवा प्रतिनिधित्व का कुछ मसला है?
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दरअसल, कन्हैया को महागठबंधन की ओर से उम्मीदवार न बनाए जाने के बाद मीडिया में कई तरह की खबरें तैरती दिखीं. हर कोई अपने अनुसार इस फैसले की व्याख्या करता दिखा. कन्हैया और तेजस्वी को लेकर कई तरह की बातें की गईं, मसलन दोनों युवा हैं और तेजस्वी नहीं चाहते कि उनके रहते बिहार में कोई उनसे बड़ा युवा नेता खड़ा हो जाए आदि-आदि. अगर बेगूसराय आज मीडिया की सुर्खियां बटोर रहा है, तो इसमें कोई दोराय नहीं कि इसकी वजह कन्हैया कुमार की उम्मीदवारी है. कन्हैया कुमार की उम्मीदवारी ने बेगूसराय सीट को सुर्खियों में ला दिया है, इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कन्हैया की लोकप्रियता का ग्राफ कितना ऊंचा है और शायद तेजस्वी यादव इस बात को बखूबी जानते हैं.
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राजनीतिक विश्लेषक ऐसा मानते हैं कि महागठबंधन की ओर से कन्हैया कुमार को टिकट न मिलने की वजह तेजस्वी यादव का राजनीतिक डर भी रहा. तेजस्वी यादव कभी नहीं चाहेंगे कि उनके सामने बिहार में कोई उनसे बड़ा या उन्हें टक्कर देने वाला कोई युवा नेता सामने आ जाए. तेजस्वी को शायद इस बात का डर सता रहा था कि अगर वह कन्हैया को टिकट दे देते हैं, तो कल होकर कन्हैया उनकी लोकप्रियता को टक्कर देते दिख सकते हैं या फिर उनके सामांतर एक यूथ छवि को गढ़ते दिख सकते हैं. इस डर की कई वजहें भी हैं. कन्हैया युवाओं के बीच खासे लोकप्रिय हैं, इसकी बानगी वह कई मंचों से दिखा चुके हैं. तेजस्वी यादव को भी इसका एहसास है कि कन्हैया की जीत, कन्हैया को और भी ज्यादा पॉपुलर बना देगी और उनमें और भी धार आ जाएगा. साथ ही तेजस्वी यादव की तुलना कन्हैया कुमार से होने लगती. इसलिए राजनीति के दृष्टिकोण से देखें तो यह एक तरह से तेजस्वी के लिए खतरे की घंटी ही साबित हो सकते हैं.
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कन्हैया कुमार और तेजस्वी यादव की लोकप्रियता में बुनियादी अंतर भी है, जो जनमानस को अच्छे से पता है. तेजस्वी यादव की लोकप्रियता के पीछे उनके पिता लालू प्रसाद यादव का हाथ है. यूं कहें तो तेजस्वी यादव को राजनीति और लोकप्रियता उन्हें विरासत में मिली है. मगर कन्हैया कुमार के साथ ऐसा नहीं है. कन्हैया ने अपने दम पर लोकप्रियता हासिल की है. इतना ही नहीं, कन्हैया के साथ तेजस्वी की तरह कोई राजनीतिक विरासत भी नहीं है. तेजस्वी यादव को बनी बनाई राजनीतिक जमीन मिली, मगर कन्हैया ने अपनी जमीन खुद बनाई. बेगूसराय से आकर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रसंघ के प्रेसीडेंट से लेकर सीपीआई के नेता तक, कन्हैया कुमार ने अपने बल पर सब कुछ हासिल किया है. कन्हैया ने तेजस्वी यादव या अन्य नेताओं से इतर अपनी जमीन खुद बनाई है. यही वजह है कि कन्हैया इन मामलों में भी तेजस्वी को टक्कर दे सकते हैं. अगर बेगूसराय से कन्हैया को राजद का टिकट मिल जाता तो तेजस्वी यादव को फिर इन्हीं दिक्कतों का सामना करना पड़ता.
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युवाओं में कन्हैया के प्रति सहानुभूति दिख रही है. राजनीति बीट को कवर करने वाले कुछ पत्रकार मानते हैं कि बेगूसराय में कन्हैया कुमार के साथ यूथ वोटर ही साथ जाते दिख रहे हैं. क्योंकि गिरिराज सिंह का अब भी भूमिहार वोटरों पर दबदबा है और राजद का अपना वोट बैंक है, जिसकी वजह से मुकाबला त्रिकोणीय है. कन्हैया सिर्फ बेगूसराय के युवाओं के बीच ही नहीं, बल्कि देश के विभिन्न इलाकों के युवाओं के बीच भी काफी फेमस हैं. तेजस्वी यादव शायद इस बात से भी अवगत रहे होंगे कि कन्हैया कुमार को राजद से टिकट देने का मतलब है कि अपने सामने खुद एक और युवा नेता खड़ा करना जो बाद में उनके लिए शायद मुश्किल खड़ी कर सकते हैं.
कन्हैया कुमार की पढ़ाई लिखाई की बात करें तो तेजस्वी यादव से वह काफी आगे हैं. कन्हैया पीएचडी की डिग्री ले चुके हैं, जबकि तेजस्वी यादव के क्वालिफिकेशन के बारे में मैट्रिक और नन मैट्रिक पर अब भी विवाद है. इस मामले में देखा जाए तो तेजस्वी यादव को भविष्य में इस बात से भी दिक्कत हो सकती है और काउंटर नैरेटिव तैयार करने में कन्हैया के पास तेजस्वी के खिलाफ यह बेहतर हथियार भी हो सकता है. राजद के भीतर ही कन्हैया और तेजस्वी यादव के बीच में तुलना होने लगती और फिर कई मानकों पर परखा जाता तो कन्हैया इस में बाजी भी मार सकते हैं. इसके अलावा, भाषण की कला में तेजस्वी यादव कन्हैया के सामने कमजोर साबित होते हैं. कन्हैया बीजेपी के प्रवक्ताओं के साथ बहस में अपनी इस कला का परिचय दे चुके हैं. इतना ही नहीं, वे अक्सर भाषणों में मोदी सरकार और सत्ता के विरोध में प्रखर दिखते हैं. मगर तेजस्वी के भाषण में कन्हैया जैसी धार नहीं दिखती.
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तेजस्वी यादव को कन्हैया की राजद से उम्मीदवारी पर एक और सबसे बड़ी दिक्कत ये थी कि कन्हैया कुमार अभी जेएनयू में देशविरोधी नारे के मामले में अभी आरोपी हैं. अगर तेजस्वी यादव उन्हें टिकट देते तो बीजेपी को यह बोलने का मौका मिल जाता कि राजद कथित 'देशद्रोही' को टिकट दे रही है. हालांकि, यह बात अलग है कि अब बीजेपी ने मालेगांव ब्लास्ट की आरोपी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को भोपाल से दिग्विजय सिंह के खिलाफ उतार दिया है. मगर तेजस्वी यादव कहीं से बीजेपी को राजद पर हमला बोलने का एक भी मौका नहीं देना चाहते थे. इसके अलावा, तनवीर हसन ने 2014 के चुनाव में मोदी लहर के बावजूद जिस तरह से प्रदर्शन किया था, तेजस्वी इस बात को भी नहीं नकार सकते थे, क्योंकि वह इस बात को जानते थे कि बीजेपी की ओर से भूमिहार जाति से ही उम्मीदवार होगा और कन्हैया भी उसी जाति से आते हैं, ऐसे में वह बीच में अपने पुराने कैंडिडेट पर भरोसा जताकर मुकाबले को जीत सकते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में राजद के प्रत्याशी हसन ने यहां भाजपा को जबरदस्त टक्कर दी थी, लेकिन भाजपा के भोला सिंह से वह 58,000 से ज्यादा मतों से हार गए थे. उस चुनाव में भाकपा के राजेंद्र प्रसाद सिंह तीसरे स्थान पर रहे थे. भोला सिंह को 4,28,227 मत तो तनवीर हसन को 3,69,892 मत मिले थे.
बहरहाल, बेगूसराय की राजनीति जाति पर आधारित रही है. बछवाड़ा, तेघड़ा, बेगूसराय, मटिहानी, बलिया, बखरी, चेरियाबरियारपुर सात विधानसभा क्षेत्र वाले बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र में एक अनुमान के मुताबिक, 19 लाख मतदाताओं में से भूमिहार मतदाता करीब 19 फीसदी, 15 फीसदी मुस्लिम, 12 फीसदी यादव और सात फीसदी कुर्मी हैं. यहां की राजनीति मुख्य रूप से भूमिहार जाति के आसपास घूमती है. इस बात का सबूत है कि पिछले 10 लोकसभा चुनावों में से कम से कम नौ बार भूमिहार सांसद बने हैं. बहरहाल, अभी बेगसराय में सभी जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं. हालांकि, इस रोचक जंग में किसकी जीत होगी, यह तो 23 मई के चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा.
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