10 सितम्बर 1943 को जन्मी एक आधुनिक शैली की लेखिका, जिनकी कलम हमेशा समाज के दबे और कमजोर वर्ग के साथ खड़ी रही, आज भी उसी तेजी से लिख रही हैं, उसी गर्मजोशी और युवाभाव के साथ, जिससे की उन्होंने 1964 में शुरुआत की थी.
आपने अक्सर देखा होगा किसी गरीब, दलित या निम्न परिवार के बच्चे को अपने लिए या अपने समाज के लिए आवाज उठाते हुए. लेकिन क्या कभी किसी उच्च वर्ग, सम्पन्न परिवार के महज 5 साल के बच्चे को ऐसा करते देखा है. ऐसा करने वाली वह नन्ही बच्ची आज लाखों पिछड़ों, दलितों, मजदूरों और महिलाओं की आवाज बन गई है. वह खुद में एक प्रेरणा हैं कुछ कर दिखाने की, कुछ बदल डालने की...
मैं बात कर रही हूं अधुनिक युग की विख्यात लेखिका चित्रा मुद्गल की. तमाम सुविधाओं के बीच भी जो कलम फूल, सौन्दर्य और प्रेम को छोड़ कर संघर्ष को तलाश ले और उस संघर्ष में रह कर, उसे भोग कर ही उसे अक्षरों में गढ़े, तो अनुमान लगा लीजिए कि उनकी हर रचना का एक-एक अक्षर कितना अनमोल और सटीक होगा.
मानव भावों और परिवर्तन की इस लेखिका से एक खास मुलाकात के कुछ अंश...
थर्ड जेंडर पर आधारित अपने उपन्यास नालासोपारा पो. बॉक्स नं. 203 के बारे में कुछ बताएं. इसकी प्रेरणा कहां से मिली?
यह उपन्यास अपने आप में एक नई पहल है. यह शायद मनुष्य की बहुत बड़ी भूल है. एक किन्नर यौन विकलांग जरूर है, लेकिन एक मस्तिष्क का धनी भी है, जो हमेशा चार्ज रहता है. उसका दिमाग भी ठीक वैसे ही सोचता है जैसे कि आपका या मेरा. जरा सोचिए एक मनुष्य होकर दूसरे मनुष्य के साथ इतनी क्रूरता! कन्या के साथ तो समाज पहले से ही क्रूर था, उनकी चुपचाप हत्या या भ्रूण हत्या की जाती है. फिर भी जन्म होने पर उन्हें घर में रखा जाता था, उन्हें ब्याह कर घर से भेजा जाता था. लेकिन किन्नरों के साथ तो खुलेआम ऐसा किया जाता है. इन्हें जन्म होते ही फेंक दिया जाता है. माता-पिता अपने नवजात बच्चे को किन्नरों के समूह को सौंप देते हैं, सिर्फ इस वजह से कि वह यौग विकलांग है!
जब मैं मुंबई के नालासोपारा में रहती थी, तब मैं एक ऐसे ही युवक से मिली थी. उसे किन्नर होने के चलते घर से निकाल दिया गया. यह उपन्यास उसी युवक के विद्रोह की कहानी है. सामाजिक और धर्म की कंडिशन चली आ रही है, यह सृष्टि के लिए बाधक है. जरा सोचिए पहले जब बच्चा होता है, तो यही किन्नर उन्हें आशीर्वाद देने आते हैं. सबको अच्छा लगता है. लेकिन अगर दूसरे दिन वे फिर पहुंच जाएं, तो उन्हें धक्का मार दिया जाता है. महिला को अपनी कोख पर पूरा अधिकार जताना चाहिए. ऐसे बच्चों के लिए बदलाव की जरूरत है.
आपने बिलकुल सही कहा. पर आपको क्या लगता कि समाज में किन्नरों की इस स्थिति के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है?
उपन्यास 'नालासोपारा पो. बॉक्स नं. 203’ का अहम किरदार किन्नर अपनी मां का पता तलाश कर उनसे खत के जरिए बातें करता है. मां जोकि उसे छोड़ चुकी है, खत के जवाब तो देती है, लेकिन वह चाहती है इसके बारे में किसी को पता न चले. मां को लगता है कि अगर यह बात खुलेगी तो उसकी जगहंसाई होगी, बच्चों की शादियों में अड़चन आएगी. उपन्यास के जरिए मैंने किन्नरों के जीवन के कई पहलुओं को पेश करने की कोशिश की है. किस तरह वह पहले भावनात्म शोषण और फिर राजनीति का भी शिकार होता है. उपन्यास का नायक सरकार से आरक्षण की मांग नहीं करता. वह बस इतना चाहता है कि उसके मां-बाप को कटघरे में लिया जाए. उनसे पूछा जाए और उन्हें समझाया जाए कि वे अपनी संतान के साथ ऐसा व्यवहार न करें. आखिर क्यों केवल यौन रूप से विकलांग होने पर उन्हें समाज से निकाल कर आरक्षण दिया जाए, क्यों न उनके मां-बाप को दंडित करने का प्रावधान बनें.
आपने समाज में महिलाओं की स्थिति पर बहुत लिखा है. बचपन से ही आपके अंदर विद्रोही स्वर रहे. क्या आपको लगता है कि आज समाज में महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है या नहीं?
हां, मुझे ऐसा लगता है कि बदलाव हुआ है. उस जमाने में जब मैं छोटी थी. लड़कियां घर के द्वार पर नहीं घर के भीतर आंगन में खेला करती थीं, क्योंकि उन्हें बाहर जाने की अनुमति नहीं थी. अगर वे बाहर जाती थीं, तो किसी के साथ. एक और बात जो मैं यहां तुमको बताना चाहूंगी वह यह कि यह बंधन सवर्ण महिलाओं के लिए ही ज्यादा थे. वे लोग जिन्हें निचले तबके के कहा जाता था, उनकी महिलाएं और बच्चियां अकेले बाहर जा सकती थीं. यह बात मुझे कई बार बहुत बुरी लगती थी.
क्या आपने कभी मां या दादी से शिकायत नहीं की इन बातों की? शिकायत करने पर वे आपको कैसे जवाब देती थीं?
हां, अक्सर करती थी. पर आज तक एक बात नहीं समझ पाई कि मां ने कभी मेरी बातों का जवाब क्यों नहीं दिया. कभी कभी लगता है कि खुद उनके पास उत्तर नहीं थे, तो कभी लगता है कि शायद वे मुझे इन बातों का जवाब देना ही नहीं चाहती थीं. लगता है शायद उनके मन में भी ड़र था.
आपके अनुसार आज की स्त्री की स्थिति में सुधार है, लेकिन फिर भी बाजारवाद में वह जिस तरह घिर रही है उसके विषय में क्या कहेंगी?
हां, यह लाजमी सवाल है. वास्तव में यह विडम्बना है. आज स्त्री को बाजारवाद ने बहुत प्रभावित किया है. हर स्त्री के लिए गोरा होना तो मानों अनिवार्य सा हो गया है. विदेशी कंपनियां अपना काम चलाने के लिए युवाओं के दिमाग में यह चीज भर रही हैं कि यदि वे गोरे नहीं तो सुंदर नहीं. कहां गया वह सौन्दर्य वर्णन जिसमें गोरी महिला स्याम रंग मांगती है. हमारे लिए तो सलोनी लड़कियां बेहद खूबसूरत होती थीं. सांवली सलोनी लड़कियों का सौन्दर्य अलग ही होता है. लेकिन आज के बाजारवाद ने सुंदरता को केवल गोरेपन और मेकअप उत्पादों तक ही सीमित कर दिया है. औरत को देह से मुक्त करने की कोशिश में उसे देह पर ही लाकर छोड़ देती है. जरूरत इस बात की है कि त्वचा से स्त्री के मस्तिष्क की भी कद्र हो.
'आंवा' ट्रेड यूनियन पर आधारित उपन्यास है. इसकी प्रेरणा कहां से मिली आपको?
अगर सच पूछो, तो किसी एक पल को ही इसकी प्रेरणा कह पाना कठिन है. बचपन से ही मेरा मन आंदोलनकारी रहा. एक बार मैंने हमारे घर काम करने वाली डोमिन काकी को छू लिया था. जिसके चलते मुझे बहुत मार पड़ी. मुझे समझ नहीं आया, जिसे काकी कहा है उसे भला छूने में क्या परहेज और उन्हें छू कर मैं कैसे मैली हुई कि मुझे नहलाया गया. इसके बाद मुम्बई आना हुआ. जीवन आगे चलता रहा और उसके साथ ही ऐसे अनुभव भी जुड़ते रहे.
16 या 17 की उम्र में मुम्बई में सोमैया कालेज में पढ़ती थी. तब मजदूरों के नेता डा. दत्ता सामंत से मुलाकात होती थी. इसी दौरान उनके कहने पर कॉलेज से लौटते हुए कुछ समय मजदूर यूनियन कार्यालय जाया करती थी और उनके लिए काम करते करते कुछ घटनाएं ऐसी घटीं कि मैने 'आंवा' लिखा.
आपको मजदूर लेखिका कहा जाता है. इस पर क्या कहेंगी आप?
मैं खुश हूं कि मेरे पाठकों और समीक्षकों ने मुझे सही पहचाना है. असल में मैने कभी भी प्रेम या सौन्दर्य पर लिखने में खुद को सहज नहीं पाया. जब भी कलम उठाती हूं कोई न कोई सामाजिक मुद्दा मुझे टकटकी लगाए देख रहा होता है. वास्तव में मेरे आसपास के वातावरण और उस वातावरण से आंदोलित मेरे मन ने कभी सौन्दर्य या प्रेम को लिखने में रूचि ही नहीं दिखाई.
तो क्या हम यह मान लें कि आप प्रेम या सौन्दर्य पर कोई रचना नहीं करेंगी?
नहीं, ऐसा नहीं है. प्रेम या सौन्दर्य पर जरूर लिखूंगी. भले ही वह मेरी अंतिम रचना हो. मेरे मन में एक कहानी है, जिस पर मैं लिखना चाहती हूं. यह एक प्रेम कहानी होगी किंतु यह प्रेम शारीरिक नहीं है. यह कहानी दो ऐसे लोगों के बीच के प्रेम को उजागर करेगी, जिन्होंने शायद कभी एकदूजे को अपना प्रेम जाहिर भी न किया हो.
युवा लेखकों को क्या संदेश देना चाहेंगी आप?
सभी युवाओं से मुझे स्नेह है. मैं उनमें भविष्य देखती हूं. जो युवा लिखेंगे उसी से आज के और आने वाले समाज की दिशा तय होगी. युवाओं को मेरा यही संदेश है कि केवल प्रेम और सौन्दर्य पर ही न लिखो. अपने आस पास देखो, स्थितियों को परखो, उन्हें समझो और उन पर लिखो. स्वांत सुखाय का लेखन करने की बजाए समाज के हित को नजर में रख कर लेखन किया जाना चाहिए.
आपने अक्सर देखा होगा किसी गरीब, दलित या निम्न परिवार के बच्चे को अपने लिए या अपने समाज के लिए आवाज उठाते हुए. लेकिन क्या कभी किसी उच्च वर्ग, सम्पन्न परिवार के महज 5 साल के बच्चे को ऐसा करते देखा है. ऐसा करने वाली वह नन्ही बच्ची आज लाखों पिछड़ों, दलितों, मजदूरों और महिलाओं की आवाज बन गई है. वह खुद में एक प्रेरणा हैं कुछ कर दिखाने की, कुछ बदल डालने की...
मैं बात कर रही हूं अधुनिक युग की विख्यात लेखिका चित्रा मुद्गल की. तमाम सुविधाओं के बीच भी जो कलम फूल, सौन्दर्य और प्रेम को छोड़ कर संघर्ष को तलाश ले और उस संघर्ष में रह कर, उसे भोग कर ही उसे अक्षरों में गढ़े, तो अनुमान लगा लीजिए कि उनकी हर रचना का एक-एक अक्षर कितना अनमोल और सटीक होगा.
मानव भावों और परिवर्तन की इस लेखिका से एक खास मुलाकात के कुछ अंश...
थर्ड जेंडर पर आधारित अपने उपन्यास नालासोपारा पो. बॉक्स नं. 203 के बारे में कुछ बताएं. इसकी प्रेरणा कहां से मिली?
यह उपन्यास अपने आप में एक नई पहल है. यह शायद मनुष्य की बहुत बड़ी भूल है. एक किन्नर यौन विकलांग जरूर है, लेकिन एक मस्तिष्क का धनी भी है, जो हमेशा चार्ज रहता है. उसका दिमाग भी ठीक वैसे ही सोचता है जैसे कि आपका या मेरा. जरा सोचिए एक मनुष्य होकर दूसरे मनुष्य के साथ इतनी क्रूरता! कन्या के साथ तो समाज पहले से ही क्रूर था, उनकी चुपचाप हत्या या भ्रूण हत्या की जाती है. फिर भी जन्म होने पर उन्हें घर में रखा जाता था, उन्हें ब्याह कर घर से भेजा जाता था. लेकिन किन्नरों के साथ तो खुलेआम ऐसा किया जाता है. इन्हें जन्म होते ही फेंक दिया जाता है. माता-पिता अपने नवजात बच्चे को किन्नरों के समूह को सौंप देते हैं, सिर्फ इस वजह से कि वह यौग विकलांग है!
जब मैं मुंबई के नालासोपारा में रहती थी, तब मैं एक ऐसे ही युवक से मिली थी. उसे किन्नर होने के चलते घर से निकाल दिया गया. यह उपन्यास उसी युवक के विद्रोह की कहानी है. सामाजिक और धर्म की कंडिशन चली आ रही है, यह सृष्टि के लिए बाधक है. जरा सोचिए पहले जब बच्चा होता है, तो यही किन्नर उन्हें आशीर्वाद देने आते हैं. सबको अच्छा लगता है. लेकिन अगर दूसरे दिन वे फिर पहुंच जाएं, तो उन्हें धक्का मार दिया जाता है. महिला को अपनी कोख पर पूरा अधिकार जताना चाहिए. ऐसे बच्चों के लिए बदलाव की जरूरत है.
आपने बिलकुल सही कहा. पर आपको क्या लगता कि समाज में किन्नरों की इस स्थिति के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है?
उपन्यास 'नालासोपारा पो. बॉक्स नं. 203’ का अहम किरदार किन्नर अपनी मां का पता तलाश कर उनसे खत के जरिए बातें करता है. मां जोकि उसे छोड़ चुकी है, खत के जवाब तो देती है, लेकिन वह चाहती है इसके बारे में किसी को पता न चले. मां को लगता है कि अगर यह बात खुलेगी तो उसकी जगहंसाई होगी, बच्चों की शादियों में अड़चन आएगी. उपन्यास के जरिए मैंने किन्नरों के जीवन के कई पहलुओं को पेश करने की कोशिश की है. किस तरह वह पहले भावनात्म शोषण और फिर राजनीति का भी शिकार होता है. उपन्यास का नायक सरकार से आरक्षण की मांग नहीं करता. वह बस इतना चाहता है कि उसके मां-बाप को कटघरे में लिया जाए. उनसे पूछा जाए और उन्हें समझाया जाए कि वे अपनी संतान के साथ ऐसा व्यवहार न करें. आखिर क्यों केवल यौन रूप से विकलांग होने पर उन्हें समाज से निकाल कर आरक्षण दिया जाए, क्यों न उनके मां-बाप को दंडित करने का प्रावधान बनें.
आपने समाज में महिलाओं की स्थिति पर बहुत लिखा है. बचपन से ही आपके अंदर विद्रोही स्वर रहे. क्या आपको लगता है कि आज समाज में महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है या नहीं?
हां, मुझे ऐसा लगता है कि बदलाव हुआ है. उस जमाने में जब मैं छोटी थी. लड़कियां घर के द्वार पर नहीं घर के भीतर आंगन में खेला करती थीं, क्योंकि उन्हें बाहर जाने की अनुमति नहीं थी. अगर वे बाहर जाती थीं, तो किसी के साथ. एक और बात जो मैं यहां तुमको बताना चाहूंगी वह यह कि यह बंधन सवर्ण महिलाओं के लिए ही ज्यादा थे. वे लोग जिन्हें निचले तबके के कहा जाता था, उनकी महिलाएं और बच्चियां अकेले बाहर जा सकती थीं. यह बात मुझे कई बार बहुत बुरी लगती थी.
क्या आपने कभी मां या दादी से शिकायत नहीं की इन बातों की? शिकायत करने पर वे आपको कैसे जवाब देती थीं?
हां, अक्सर करती थी. पर आज तक एक बात नहीं समझ पाई कि मां ने कभी मेरी बातों का जवाब क्यों नहीं दिया. कभी कभी लगता है कि खुद उनके पास उत्तर नहीं थे, तो कभी लगता है कि शायद वे मुझे इन बातों का जवाब देना ही नहीं चाहती थीं. लगता है शायद उनके मन में भी ड़र था.
आपके अनुसार आज की स्त्री की स्थिति में सुधार है, लेकिन फिर भी बाजारवाद में वह जिस तरह घिर रही है उसके विषय में क्या कहेंगी?
हां, यह लाजमी सवाल है. वास्तव में यह विडम्बना है. आज स्त्री को बाजारवाद ने बहुत प्रभावित किया है. हर स्त्री के लिए गोरा होना तो मानों अनिवार्य सा हो गया है. विदेशी कंपनियां अपना काम चलाने के लिए युवाओं के दिमाग में यह चीज भर रही हैं कि यदि वे गोरे नहीं तो सुंदर नहीं. कहां गया वह सौन्दर्य वर्णन जिसमें गोरी महिला स्याम रंग मांगती है. हमारे लिए तो सलोनी लड़कियां बेहद खूबसूरत होती थीं. सांवली सलोनी लड़कियों का सौन्दर्य अलग ही होता है. लेकिन आज के बाजारवाद ने सुंदरता को केवल गोरेपन और मेकअप उत्पादों तक ही सीमित कर दिया है. औरत को देह से मुक्त करने की कोशिश में उसे देह पर ही लाकर छोड़ देती है. जरूरत इस बात की है कि त्वचा से स्त्री के मस्तिष्क की भी कद्र हो.
'आंवा' ट्रेड यूनियन पर आधारित उपन्यास है. इसकी प्रेरणा कहां से मिली आपको?
अगर सच पूछो, तो किसी एक पल को ही इसकी प्रेरणा कह पाना कठिन है. बचपन से ही मेरा मन आंदोलनकारी रहा. एक बार मैंने हमारे घर काम करने वाली डोमिन काकी को छू लिया था. जिसके चलते मुझे बहुत मार पड़ी. मुझे समझ नहीं आया, जिसे काकी कहा है उसे भला छूने में क्या परहेज और उन्हें छू कर मैं कैसे मैली हुई कि मुझे नहलाया गया. इसके बाद मुम्बई आना हुआ. जीवन आगे चलता रहा और उसके साथ ही ऐसे अनुभव भी जुड़ते रहे.
16 या 17 की उम्र में मुम्बई में सोमैया कालेज में पढ़ती थी. तब मजदूरों के नेता डा. दत्ता सामंत से मुलाकात होती थी. इसी दौरान उनके कहने पर कॉलेज से लौटते हुए कुछ समय मजदूर यूनियन कार्यालय जाया करती थी और उनके लिए काम करते करते कुछ घटनाएं ऐसी घटीं कि मैने 'आंवा' लिखा.
आपको मजदूर लेखिका कहा जाता है. इस पर क्या कहेंगी आप?
मैं खुश हूं कि मेरे पाठकों और समीक्षकों ने मुझे सही पहचाना है. असल में मैने कभी भी प्रेम या सौन्दर्य पर लिखने में खुद को सहज नहीं पाया. जब भी कलम उठाती हूं कोई न कोई सामाजिक मुद्दा मुझे टकटकी लगाए देख रहा होता है. वास्तव में मेरे आसपास के वातावरण और उस वातावरण से आंदोलित मेरे मन ने कभी सौन्दर्य या प्रेम को लिखने में रूचि ही नहीं दिखाई.
तो क्या हम यह मान लें कि आप प्रेम या सौन्दर्य पर कोई रचना नहीं करेंगी?
नहीं, ऐसा नहीं है. प्रेम या सौन्दर्य पर जरूर लिखूंगी. भले ही वह मेरी अंतिम रचना हो. मेरे मन में एक कहानी है, जिस पर मैं लिखना चाहती हूं. यह एक प्रेम कहानी होगी किंतु यह प्रेम शारीरिक नहीं है. यह कहानी दो ऐसे लोगों के बीच के प्रेम को उजागर करेगी, जिन्होंने शायद कभी एकदूजे को अपना प्रेम जाहिर भी न किया हो.
युवा लेखकों को क्या संदेश देना चाहेंगी आप?
सभी युवाओं से मुझे स्नेह है. मैं उनमें भविष्य देखती हूं. जो युवा लिखेंगे उसी से आज के और आने वाले समाज की दिशा तय होगी. युवाओं को मेरा यही संदेश है कि केवल प्रेम और सौन्दर्य पर ही न लिखो. अपने आस पास देखो, स्थितियों को परखो, उन्हें समझो और उन पर लिखो. स्वांत सुखाय का लेखन करने की बजाए समाज के हित को नजर में रख कर लेखन किया जाना चाहिए.
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