नयी दिल्ली:
देश के सामाजिक ताने बाने को हमेशा के लिए बदल कर रख देने वाले 1984 के सिख विरोधी दंगों की रौंगटे खड़े करने वाली दास्तां को कहानियों के रूप में एक नयी किताब में पेश किया गया है.
विक्रम कपूर द्वारा संपादित और अमेरिलिस पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित ‘‘1984: 1984 के सिख विरोधी दंगों के निजी संस्मरण और काल्पनिक कहानियां’’ शीषर्क वाली इस किताब में दंगा पीड़ितों के अनुभवों के आधार पर सच्ची कहानियों और वास्तविक घटनाओं पर रची गयी काल्पनिक कहानियां हैं. ये कहानियां उन पुरुषों, महिलाओं, बुजुर्गो और बच्चों की हैं जिनकी जिंदगी को उन दंगों ने एक त्रासदीपूर्ण मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था.
कपूर किताब के बारे में बताते हैं , ‘‘ इस किताब का गैर काल्पनिक हिस्सा जहां उस समय के तथ्यात्मक इतिहास को खंगालते हुए समाज के बदलते मिजाज की जांच करता है तो वहीं काल्पनिकता के ताने बाने में बुनी गयी कहानियां उन दहशत भरे दिनों का बखान करती हैं जब मानवीय आतंक रंग रूप बदल बदलकर सामने आया था.’’
‘‘1984 : एक समीक्षा ’’ में पंजाब के तत्कालीन डीजीपी कृपाल ढिल्लों कहते हैं कि 1984 की घटनाएं एक तानाशाह और दमनकारी राष्ट्र को बेनकाब करती हैं.
वह लिखते हैं , ‘‘1984 की उन खौफनाक घटनाओं के बाद जो असर पड़ा वह तात्कालिक नहीं बल्कि दशकों तक आतंकित करने वाला था तथा सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में जो टकराव और बिखराव अपने पैर पसार चुका था उसने लगातार शासन को गंभीर नुकसान पहुंचाया.’’
ढिल्लों को तीन जुलाई 1984 को पंजाब पुलिस प्रमुख नियुक्त किया गया था और इस नियुक्ति ने उन्हें एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा कर दिया. राज्य में सेना के हस्तक्षेप के चलते वह कई दहला देने वाली घटनाओं के पर्यवेक्षक थे तो इसके बाद उन घटनाओं से उपजे कुछ बेहद गंभीर मुद्दों को सुलझाने में उन्होंने सक्रिय भागीदारी निभायी.
पंजाबी की जानी मानी लेखिका अजीत कौर ने कहा कि सिख दंगों के दौरान डर का साया एक गिद्ध की तरह गांवों और शहरों के ऊपर मंडरा रहा था. ‘‘नवंबर 1984 ’’ में वह लिखती हैं, ‘‘ मैंने 31 अक्तूबर और नवंबर महीने के पहले तीन दिनों तक अपने घर के सभी खिड़की और दरवाजे बंद कर दिए और अपनी बेटी अर्पणा को लेकर घर के भीतर दुबकी रही। लेकिन जब यमुना पार की कालोनियों में हजारों लोगों को मारा जा रहा था तो घर में कायर की तरह बंद रहना संभव नहीं था। नरसंहार के बीच केवल अपनी सुरक्षा के बारे में सोचना अनैतिक था.’’ साहित्यिक प्रचारक प्रीति गिल 1984 के उन तीन दिनों में जो कुछ हुआ उसे भारत के इतिहास का त्रासदीपूर्ण समय मानती हैं.
‘‘पहचान का सवाल’’ में वह लिखती हैं , ‘‘मुझे हैरानी है कि सिख समुदाय 1984 की उस त्रासदी से उबर पाया है या नहीं...वो दिन कितने भौचक और आतंकित करने वाले थे.’’ दिल्ली निवासी लेखिका और स्तंभकार हुमा कुरैशी लिखती हैं कि उनके एक मित्र ने उनसे कहा कि उन्हें घर से बाहर निकलते समय सावधान रहना चाहिए क्योंकि ‘‘तुम सरदारनी सी लगती हो.’’
उनके अनुसार, दंगों का एक पहलू यह था कि इन्होंने सिखों और मुसलमानों को एक दूसरे के करीब ला दिया। वह कहती हैं, ‘‘शायद विभाजन के बाद पहली बार दोनों समुदायों के बीच दूरियां पहली बार सिमटने लगी थीं. कई सिख दोस्तों ने मुझे बताया कि सिख विरोधी दंगों की कड़वी सचाई का अनुभव करने के बाद वे समझ सकते हैं कि मुस्लिम बहुल इलाकों में जब भी दंगे होते हैं तो मुस्लिम समुदाय हर बार किस पीड़ा से गुजरता होगा.’’
विक्रम कपूर द्वारा संपादित और अमेरिलिस पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित ‘‘1984: 1984 के सिख विरोधी दंगों के निजी संस्मरण और काल्पनिक कहानियां’’ शीषर्क वाली इस किताब में दंगा पीड़ितों के अनुभवों के आधार पर सच्ची कहानियों और वास्तविक घटनाओं पर रची गयी काल्पनिक कहानियां हैं. ये कहानियां उन पुरुषों, महिलाओं, बुजुर्गो और बच्चों की हैं जिनकी जिंदगी को उन दंगों ने एक त्रासदीपूर्ण मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था.
कपूर किताब के बारे में बताते हैं , ‘‘ इस किताब का गैर काल्पनिक हिस्सा जहां उस समय के तथ्यात्मक इतिहास को खंगालते हुए समाज के बदलते मिजाज की जांच करता है तो वहीं काल्पनिकता के ताने बाने में बुनी गयी कहानियां उन दहशत भरे दिनों का बखान करती हैं जब मानवीय आतंक रंग रूप बदल बदलकर सामने आया था.’’
‘‘1984 : एक समीक्षा ’’ में पंजाब के तत्कालीन डीजीपी कृपाल ढिल्लों कहते हैं कि 1984 की घटनाएं एक तानाशाह और दमनकारी राष्ट्र को बेनकाब करती हैं.
वह लिखते हैं , ‘‘1984 की उन खौफनाक घटनाओं के बाद जो असर पड़ा वह तात्कालिक नहीं बल्कि दशकों तक आतंकित करने वाला था तथा सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में जो टकराव और बिखराव अपने पैर पसार चुका था उसने लगातार शासन को गंभीर नुकसान पहुंचाया.’’
ढिल्लों को तीन जुलाई 1984 को पंजाब पुलिस प्रमुख नियुक्त किया गया था और इस नियुक्ति ने उन्हें एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा कर दिया. राज्य में सेना के हस्तक्षेप के चलते वह कई दहला देने वाली घटनाओं के पर्यवेक्षक थे तो इसके बाद उन घटनाओं से उपजे कुछ बेहद गंभीर मुद्दों को सुलझाने में उन्होंने सक्रिय भागीदारी निभायी.
पंजाबी की जानी मानी लेखिका अजीत कौर ने कहा कि सिख दंगों के दौरान डर का साया एक गिद्ध की तरह गांवों और शहरों के ऊपर मंडरा रहा था. ‘‘नवंबर 1984 ’’ में वह लिखती हैं, ‘‘ मैंने 31 अक्तूबर और नवंबर महीने के पहले तीन दिनों तक अपने घर के सभी खिड़की और दरवाजे बंद कर दिए और अपनी बेटी अर्पणा को लेकर घर के भीतर दुबकी रही। लेकिन जब यमुना पार की कालोनियों में हजारों लोगों को मारा जा रहा था तो घर में कायर की तरह बंद रहना संभव नहीं था। नरसंहार के बीच केवल अपनी सुरक्षा के बारे में सोचना अनैतिक था.’’ साहित्यिक प्रचारक प्रीति गिल 1984 के उन तीन दिनों में जो कुछ हुआ उसे भारत के इतिहास का त्रासदीपूर्ण समय मानती हैं.
‘‘पहचान का सवाल’’ में वह लिखती हैं , ‘‘मुझे हैरानी है कि सिख समुदाय 1984 की उस त्रासदी से उबर पाया है या नहीं...वो दिन कितने भौचक और आतंकित करने वाले थे.’’ दिल्ली निवासी लेखिका और स्तंभकार हुमा कुरैशी लिखती हैं कि उनके एक मित्र ने उनसे कहा कि उन्हें घर से बाहर निकलते समय सावधान रहना चाहिए क्योंकि ‘‘तुम सरदारनी सी लगती हो.’’
उनके अनुसार, दंगों का एक पहलू यह था कि इन्होंने सिखों और मुसलमानों को एक दूसरे के करीब ला दिया। वह कहती हैं, ‘‘शायद विभाजन के बाद पहली बार दोनों समुदायों के बीच दूरियां पहली बार सिमटने लगी थीं. कई सिख दोस्तों ने मुझे बताया कि सिख विरोधी दंगों की कड़वी सचाई का अनुभव करने के बाद वे समझ सकते हैं कि मुस्लिम बहुल इलाकों में जब भी दंगे होते हैं तो मुस्लिम समुदाय हर बार किस पीड़ा से गुजरता होगा.’’
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