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This Article is From Jan 20, 2017

लेखक का कोई धर्म नहीं होता: नासिरा शर्मा

लेखक का कोई धर्म नहीं होता: नासिरा शर्मा
साहित्य अकादमी का प्रतिष्ठित पुरस्कार पाने वाली प्रसिद्ध लेखिका नासिरा शर्मा
1948 में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में जन्मीं नासिरा शर्मा उपन्यास 'पारिजात' के लिए साहित्य अकादमी पुस्कार से सम्‍मानित किया गया. उनकी 10 कहानी संकलन, 6 उपन्यास और 3 निबंध संग्रह प्रकशित हैं. वह हिंदी के अलावा फारसी, अंग्रेजी, उर्दू और पोश्तो भाषाओं पर भी अच्छी पकड़ रखती हैं.

हिंदी की प्रख्यात लेखिका और साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता नासिरा शर्मा का मानना है कि 1947 में आजादी के बाद से लेकर अभी तक सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं. उनकी लेखनी का प्रमुख उद्देश्य हिंदू और मुसलमानों के बीच भेदभाव को कम करना है. वह मानती हैं कि लेखकों और सरकार के बीच टकराहट हमेशा से रही है. यह टकराहट किसी विशेष पार्टी या सरकार के साथ नहीं है. पेश हैं नासिरा शर्मा से बातचीत के कुछ खास अंश...

हिंदू-मुस्‍लिम मतभेद की बातों पर क्‍या है नासिरा की राय...
पहले हम लोग एक सूत्र में थे, लेकिन अब दो फाड़ हो चुके हैं. मैंने अपनी लेखनी के जरिए इसी मुद्दे को उठाया है. सच यह है कि आतकंवादियों को लेकर इस्लाम का नकारात्मक रूप दिखाया जाता है. मेरी सोच यह है कि जब कर्बला की जंग सामने लाएंगे, तो जो उसके मूल्य हैं, उस पर ज्यादा चर्चा होगी. तब शायद लोगों को शांति मिले.

लेखक का कोई धर्म नहीं...
लेखक यह सोचकर नहीं लिखता कि वह कहां का रहने वाला है या उसका धर्म क्या है. ऐसा सोचने की बजाय एक लेखक उत्पीड़न को बाहर लाने की कोशिश करता है. मुझे लगता है कि हिंदू और मुसलमान का एक बड़ा तबका पीड़ा से गुजर रहा है. उसको हटाने की कोशिश मुझे कलम के जरिए करनी चाहिए.

महिलाओं की स्थिति पर नासिरा की नजर...
आज के दौर में महिलाओं को समर्थन मिल रहा है, जिससे हमने खुद को बदला है और अपना हक पहचाना है. मेरे एक उपन्यास में भी इसी तरह का ताना-बाना बुना हुआ है. इसे पढ़ना बहुत मुश्किल है, लेकिन जो लोग इसे पढ़ना चाहते हैं, उन्हें इसे पढ़कर बहुत मजा आता है.

धर्म पर होने वाले फसाद के बारे में आपकी राय
हमारे यहां फसाद तो 1947 से होते आ रहे हैं. बात साफ है, जिन्हें पाकिस्तान जाना था वे चले गए. उसके बाद फसाद होने का कोई मतलब नहीं बनता, लेकिन फिर भी हो रहे हैं. मोदी सरकार से लोग इसलिए थोड़ा घबराए हुए हैं, क्योंकि उनके दिमाग में गुजरात दंगे की घटनाएं हैं. कुछ सरकारें अधिक मुखर नहीं थीं, लेकिन मोदी सरकार काफी मुखर है और हर बात बेबाकी से कहती है तो इससे लोगों में दहशत है. वे सामने न कहें, लेकिन अंदर से घबराए हुए हैं."

दंगों पर लेखिका की राय...
तकरीबन हर सरकार के इतिहास में दंगे दिख ही जाते हैं. कहीं छिपके होता है, तो कहीं खुलके. सरकार और लेखकों के बीच हमेशा टकराव रहा है, जो पूरी दुनिया में है. लेखक अपनी सरकार से कुछ सवाल-जवाब चाहते हैं. यह उनके लेखन में भी सामने आया है. लेखकों में भी दो धड़ें होते हैं जो एक ही मुद्दे पर अलग-अलग राय रखते हैं और यही हमारे हिंदुस्तान की बहुत बड़ी खूबी है.

अंग्रेजी और हिंदी पर बेबाक राय
हिंदी का बाजर हिंदी भाषी क्षेत्रों में ही है, लेकिन अंग्रेजी का बाजार बहुत बड़ा है. मैंने देखा है, कई बार हिंदी वाले खुद ही पक्षपाती हो जाते हैं. प्रकाशक पुस्तक की कवर तक का ध्यान नहीं करते. यह एकतरफा नहीं, चौतरफा समस्या है. इसे लेकर प्रकाशकों की पीठ पीछे बुराई करने की जरूरत नहीं है, सभी को एक साथ बैठकर बात करनी चाहिए.

कम नहीं हैं हिंदी पाठक
मैं इस बात से सहमत नहीं हूं. हिंदी के पाठक कम नहीं हो रहे हैं. मेरी किताबें बिकती हैं, मेरी पुरानी किताबें रीप्रिंट भी होती हैं.

लेखकों द्वारा पुरस्कार लौटाना कितना सही...
अगर सरकार से नाराजगी है, तो चाहे वह लेखक हो या आम आदमी, उसे संवाद से मसला हल करना चाहिए. सरकार को भी यह देखना होगा कि जनता क्या चाहती है? जनता की जरूरतें क्या हैं? सरकार लेखकों या बुद्धिजीवियों को साथ लेकर नहीं चलेगी तो शिकायतें तो होंगी ही. ऐसा नहीं है कि लोग भाजपा से ही नाराज हैं, कांग्रेस से भी नाराज थे. लेखक एक विचारधारा को लेकर नहीं चलते हैं. हम पूरी दुनिया को साथ लेकर चलते हैं.

--इनपुट आईएएनएस

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