World Book Day: टीनएजर्स के पास अब मोबाइल आसानी से उपलब्ध है. सोशल मीडिया का इस उम्र के बच्चों पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ रहा है, जिससे उनकी पढ़ाई-लिखाई प्रभावित हो रही है.माता-पिता को अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के सामने खड़ी इस चुनौती से पार पाने के लिए समझदारी से काम लेना होगा. 23 अप्रैल को यूनेस्को द्वारा पुस्तक पढ़ने की प्रवृति को बढ़ावा देने के लिए विश्वभर में विश्व पुस्तक दिवस मनाया जाता है. कोरोना काल में मोबाइल के अधिक प्रयोग के बाद से टीनएजर्स किताबों से दूर होते जा रहे हैं, इसके साथ ही सोशल मीडिया की दुनिया ने उन्हें मानसिक रूप से अन्य तरीकों से भी परेशान रखा है.
टीनएज बच्चों पर मोबाइल के अधिक प्रयोग की वजह से क्या असर पड़ा है, यह जानने के लिए हमने दिल्ली की जानीमानी काउंसलिंग साइकोलॉजिस्ट अंकिता जैन और ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट आभा से बातचीत की. एक शिक्षक की टीनएजर्स को सोशल मीडिया के इस दौर में बेहतर नागरिक बनाने में क्या भूमिका है, इसके लिए हमने दिल्ली स्कूल में अंग्रेज़ी की लेक्चरर साधना अग्रवाल से भी बात की.
टीनएजर्स के लिए रील और रीयल लाइफ में फर्क समझना जरूरी
अंकिता जैन को काउंसलिंग साइकोलॉजिस्ट के रूप में काम करने का बारह सालों का अनुभव है. टीनएजर्स पर मोबाइल का प्रभाव, सवाल पूछने पर वह कहती हैं कि अब बच्चे समय से पहले वयस्क हो जाते हैं. जो सामान इनकी उम्र में हमारे लिए बहुत कीमती हुआ करता था, वो अब इनको आसानी से उपलब्ध है. जैसे मोबाइल फोन, मोबाइल पहले बहुत कम लोगों के पास होता था और अब यह लगभग सभी बच्चों के पास उपलब्ध रहता है.
अंकिता कहती हैं कि टीनएजर्स बच्चे हमें स्कूल और कॉलेज के शुरुआती सालों में मिलते हैं, आजकल टीनएजर्स ऑनलाइन डेटिंग वेबसाइट्स के जरिए डेटिंग जाना चाहते हैं और अपने दोस्तों के साथ रात में घर से बाहर रहना चाहते हैं. वह अपने दोस्तों को रोज़ कॉफी पीते, सोशल मीडिया पर रील्स पोस्ट करते देखने के बाद अपने माता पिता से उनकी तरह ही जीने के लिए जिद करने लगते हैं, उन्हें इस बात से मतलब नहीं होता कि उनके दोस्त एक ही रील को रोज़ अपलोड भी कर सकते हैं.
टीनएज बच्चे इन सब से बाहर भी निकलना चाहते हैं, वह अपनी शिकायत लेकर मेरे पास पहुंचते हैं. जैसे एक सोलह साल की लड़की को शिकायत थी कि मैं अपने दोस्तों के साथ बाहर जाती हूं तो मेरे माता-पिता को इससे क्या दिक्कत है. इन बच्चों के लिए हम उनके माता-पिता से हमेशा कहते हैं कि उन्हें घर में थोड़ा खुला माहौल देना चाहिए. उनकी जिज्ञासा को शांत करना चाहिए. घर में ऐसा माहौल नहीं बना देना चाहिए कि बच्चे का दम घुटने लगे, वह अपनी बात किसी से न कह पाए.
टीनएजर्स से हम कोई रिश्ता खत्म करने के लिए नहीं कहते. अब आप बस ट्यूशन और स्कूल में ही किसी के साथ रिश्ते में नहीं आ सकते. अब आपके आपस सोशल मीडिया की दुनिया है, जहां आप किसी से भी मिल सकते हैं. अगर इन सब के साथ आपका काम सही चल रहा है तो ठीक है. टीनएजर्स को इस बारे में सही गलत बताना बहुत जरूरी है. सोशल मीडिया एक फेक वर्ल्ड है, इन बच्चों को रील और रीयल लाइफ में फर्क समझना चाहिए.
माता-पिता की बच्चों से दोस्ती एक हद तक ही ठीक है
टीनएजर्स में मोबाइल के ज्यादा प्रयोग की वजह से बढ़ रही दिक्कतों को और ज्यादा समझने के साथ उसके समाधान को जानने के लिए हमने ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट आभा से मुलाकात की. ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट मानसिक और शारीरिक संतुलन को बनाए रखने में मदद करते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है. अपने काम में चौदह सालों का अनुभव प्राप्त आभा कहती हैं कि आजकल उनके पास मानसिक रूप से परेशान बच्चे ज्यादा आते हैं, जो डिप्रेशन जैसी समस्या से गुजर रहे होते हैं. वह कहती हैं कि हाल ही में मेरे पास एक बच्चा आया जिसने बोला कि मुझे दुख होता है कि मेरी मम्मी को शादी के बाद इस घर में प्यार नही मिला. आभा कहती हैं जब मैंने उससे पूछा कि आपसे ये सब किसने कहा तो वह बोला कि दादी. जैसी दादी की बातों ने उसकी उम्र से पहले की बात कर उसकी उम्र खत्म करी, ठीक वही काम आज सोशल मीडिया भी कर रहा है.
एक घटना का जिक्र करते आभा कहती हैं कि हाल ही में उन्हें एक लड़की मिली जो हाथ में चाकू पकड़े रहते थी, उसकी टीचर ने बताया कि वह बहुत गुस्सेल है और बिल्कुल भी सामाजिक नहीं है. उसके पापा ने कहा कि उनकी पत्नी नहीं है इसलिए उनकी बेटी स्कूल से बाकी वक्त में जब घर रहती है तो वह उसे मोबाइल देकर काम पर रहते हैं.
आभा बच्चों को वक्त देने की बात करते 'मी टाइम' नाम का नया कॉन्सेप्ट देते हुए कहती हैं कि परिवार में 'मी टाइम' होना चाहिए और अभिभावकों ने अपने बच्चों को भी इस बारे में बताना चाहिए. जैसे पापा- मम्मी, मां- बेटे और मां- बेटी का अपना- अपना मी टाइम हो और उस वक्त में कोई तीसरा व्यक्ति उनके बीच में न आए.
वह आगे कहती हैं कि सोशल मीडिया, ओटीटी प्लेटफॉर्म में टीनएजर्स का सीमित हस्तक्षेप रखने के किए पेरेन्टल कंट्रोल्स का सख्ती के साथ पालन किया जाना चाहिए. अगर कोई कंटेंट छह साल के बच्चों से ऊपर के लिए है तो उसका पालन किया जाना चाहिए. माता-पिता की अपने बच्चों के साथ दोस्ती होनी चाहिए पर इतनी भी नहीं कि वह उनके साथ बैठकर शराब पीने लगें.
अभिभावक उस माली की तरह, जो बच्चों को पौधें की तरह सींचते हैं
दिल्ली स्कूल में अंग्रेज़ी की लेक्चरर साधना अग्रवाल मोटिवेशनल स्पीकर भी हैं, वह कहती हैं बारह- तेरह साल के बच्चे अब सत्रह- अट्ठारह साल के बच्चों जैसी बातें करने लगे हैं, उनके सोचने का तरीका भी वैसा ही हो गया है और इसके लिए सीधे तौर पर यह मोबाइल और सोशल मीडिया जिम्मेदार हैं.
आगे वह कहती हैं कि सोशल मीडिया पर वक्त ज्यादा गुजारने की वजह से लड़कियों के सोशल मीडिया पर दोस्त तो हैं पर उनसे यह लड़कियां वो बात नहीं कर सकती जो अपने माता-पिता के साथ कर सकती हैं. अपने शरीर में आ रहे बदलाव के बारे में ये टीनएजर्स लड़कियां अपने अभिभावकों से कुछ नहीं कह पाती और डिप्रेशन जैसी समस्याओं से जूझने लगती हैं.
साधना कहती हैं कि वह अपने स्कूल के बच्चों से सोशल मीडिया पर खुलकर बात करती हैं और वह सोशल मीडिया के फायदे नुकसान से भी बच्चों को अवगत कराती रहती हैं.साधना कहती हैं कि हम छात्र छात्राओं के अभिभावकों से टीनएजर्स पर सोशल मीडिया के इस्तेमाल और उसके असर पर बातचीत करते रहते हैं.दिल्ली के स्कूलों में बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को सही बनाए रखने के लिए काउंसलर्स रखे जाते हैं, यह काउंसलर उनकी कैरियर संबंधी मदद भी करते हैं.
अपनी बात समाप्त करते साधना कहती हैं कि बच्चों के अभिभावक उस माली की तरह हैं जो उन्हें पौधें की तरह सींचते हैं. बच्चों का सही विकास सबसे पहले उनके अभिभावकों के नियंत्रण में ही है.अब पुराने समय की तरह संयुक्त परिवार नहीं हैं, जिस वजह से बच्चों के पास अपने माता-पिता के सिवाय अपनी बात साझा करने के लिए कोई नहीं होता और अभिभावकों को यह बात अच्छी तरह समझनी चाहिए.
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