गांव नागेपुर में लगाये गये शौचालय।
वाराणसी:
हर साल एक गांव को गोद लेने की योजना में कुछ ही सांसद अब तक गांव को गोद ले पाये हैं पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने दूसरे साल में दूसरे गांव को गोद लिया। गौरतलब है कि सांसद के गांव को गोद लेने पर विकास के लिये अलग से कोई फंड की व्यवस्था नहीं है। लिहाजा एजेंसियां और दूसरी संस्थायें विकास में मदद कर रही हैं पर उनके काम से गांव वाले संतुष्ट नहीं है। यह नाराजगी प्रधानमंत्री के अपने गोद लिये गांव नागेपुर में भी दिखाई पड़ती है।
प्रधानमंत्री के गोद लिये गांव नागेपुर में जब आप अंदर जायजा लेने जायेंगे तो जमीन पर धराशाई प्लास्टिक का डिब्बा नज़र आयेगा जो दरअसल शौचालय है। यह डिब्बा यहां लगने के लिये आया था पर तेज आंधी में टिक नहीं सका। ऐसे कई शौचालय गांव में गिरे नज़र आयेगे, पर बहुत से खड़े भी थे और काम भी कर रहे थे लेकिन उसकी अपनी कमियां भी हैं।
सबसे बड़ी समस्या उसके सोकपिट को लेकर है, जो सीट के नीचे ही आठ फीट गढ्ढे का बना है। शौचालय की जमीन भी प्लास्टिक की है जो भारी वजन से दबती है और नीचे सोकपिट का गढ्ढा है। लिहाजा लोग डरते हैं कि कहीं टूट गया और गिर गये तो जान ही चली जायेगी। इसे और स्पष्ट रूप से गांव की महिला नियासी बताती है कि " इसमें यही परेशानी है कि इसमे कौन दम है, आदमी बैठे तो नीचे गिर जाएगा तेज हवा चलेगा तो ये गिर जायेगा। हमके ईंटा के चाही एक ही दीजिये पर ठीक दीजिये..।'
प्लास्टिक के इस शौचालय में खामियां तो हैं ही, ये इसलिए भी इन्हें रास नहीं आ रहा है क्योंकि पहले ये गांव लोहिया ग्राम था और उसमे ईंट के पक्के शौचालय बने हैं। लोहिया ग्राम होने की वजह से यहां विकास पहले से हुआ पर उसमे भी दलित लोग वंचित रह गये थे। पीएम ने जब गांव को गोद लिया तो आस जगी पर इस बार इन्हें आंबेडकर की मूर्ति और पार्क तो मिला पर अभी तक मूलभूत सुविधा नहीं मिल पाई, जिसकी ये शिकायत करते नज़र आते हैं।
दलित बस्ती के राम चरण कहते हैं " यहां पर कुछ ऐसे काम हुए हैं कि शौचालय बना तो अन्य बिरादारी को मिला। हरिजन बिरादरी को एक भी नहीं मिला। कुछ रोड बने है जो मतलब है कि सामने पड़ा है कच्चा, वो नहीं बना ये दुबारा बन गई।हमारे यहां एक पार्क बना। बाकी पानी की समस्या है। बीजेपी के लोग आते हैं कहते हैं पर नहीं हुआ।
ऐसा नहीं कि इस गांव में कुछ नहीं हुआ। पीएम के गोद लेने के बाद आंगनबाड़ी के लिये नन्द घर बना, बस स्टेंड बना, बैठने के लिये बेंच लगीं और सबसे बड़ा काम एक 15 किलोवॉट का सोलर प्लांट लगा जिससे 25 घरों में बिजली मिल रही है। लेकिन 25 सौ आबादी वाले इस गांव में राजभर, पटेल दलित बिरादरी ज़्यादा है, जिनका मुख्य व्यवसाय बुनकरी है। कभी 500 घरों में करघे से नई नई साड़ी शक्ल अख्तियार करती थी पर आज सिर्फ 75 घरों में बमुश्किल करघा ज़िंदा है। ज़्यादातर कारीगर मजदूरी कर गुजर बसर को मजबूर हैं। लिहाजा प्रधानमंत्री से इनकी पहली मांग अपने पुश्तैनी धंधे को ज़िंदा करने की है।
इन कमियों के बावजूद भी एक अच्छी बात ये है कि देश के सांसद जहां अभी तक अपने गोद लिये गांव में काम नहीं करा पा रहे हैं और बहुतों ने तो गोद लिया भी नहीं है। ऐसे में प्रधानमंत्री का ये प्रयास सराहनीय तो है पर जिस तरह संस्थाएं काम को अंजाम दे रही है वह संतोष जनक नहीं है। इस पर प्रधानमंत्री को ध्यान देना चाहिये तब कहीं उनका मंसूबा पूरा हो पायेगा। वैसे भी प्रधानमंत्री जिस गांव को गोद लेते हैं, वहां लोगों की उम्मीदें बढ़ जाती है। जो काम हो रहा है वो इनकी उम्मीद से भी नीचे है। ऐसे में लोगों को कुछ नाराजगी भी है और सलाह भी दे रहे है कि एक काम करें पर ठोस करें। अब देखने वाली बात ये हैं कि इनकी ये सलाह प्रधानमंत्री के सलाहकारों तक पहुंचती है या नहीं....।
प्रधानमंत्री के गोद लिये गांव नागेपुर में जब आप अंदर जायजा लेने जायेंगे तो जमीन पर धराशाई प्लास्टिक का डिब्बा नज़र आयेगा जो दरअसल शौचालय है। यह डिब्बा यहां लगने के लिये आया था पर तेज आंधी में टिक नहीं सका। ऐसे कई शौचालय गांव में गिरे नज़र आयेगे, पर बहुत से खड़े भी थे और काम भी कर रहे थे लेकिन उसकी अपनी कमियां भी हैं।
सबसे बड़ी समस्या उसके सोकपिट को लेकर है, जो सीट के नीचे ही आठ फीट गढ्ढे का बना है। शौचालय की जमीन भी प्लास्टिक की है जो भारी वजन से दबती है और नीचे सोकपिट का गढ्ढा है। लिहाजा लोग डरते हैं कि कहीं टूट गया और गिर गये तो जान ही चली जायेगी। इसे और स्पष्ट रूप से गांव की महिला नियासी बताती है कि " इसमें यही परेशानी है कि इसमे कौन दम है, आदमी बैठे तो नीचे गिर जाएगा तेज हवा चलेगा तो ये गिर जायेगा। हमके ईंटा के चाही एक ही दीजिये पर ठीक दीजिये..।'
प्लास्टिक के इस शौचालय में खामियां तो हैं ही, ये इसलिए भी इन्हें रास नहीं आ रहा है क्योंकि पहले ये गांव लोहिया ग्राम था और उसमे ईंट के पक्के शौचालय बने हैं। लोहिया ग्राम होने की वजह से यहां विकास पहले से हुआ पर उसमे भी दलित लोग वंचित रह गये थे। पीएम ने जब गांव को गोद लिया तो आस जगी पर इस बार इन्हें आंबेडकर की मूर्ति और पार्क तो मिला पर अभी तक मूलभूत सुविधा नहीं मिल पाई, जिसकी ये शिकायत करते नज़र आते हैं।
दलित बस्ती के राम चरण कहते हैं " यहां पर कुछ ऐसे काम हुए हैं कि शौचालय बना तो अन्य बिरादारी को मिला। हरिजन बिरादरी को एक भी नहीं मिला। कुछ रोड बने है जो मतलब है कि सामने पड़ा है कच्चा, वो नहीं बना ये दुबारा बन गई।हमारे यहां एक पार्क बना। बाकी पानी की समस्या है। बीजेपी के लोग आते हैं कहते हैं पर नहीं हुआ।
ऐसा नहीं कि इस गांव में कुछ नहीं हुआ। पीएम के गोद लेने के बाद आंगनबाड़ी के लिये नन्द घर बना, बस स्टेंड बना, बैठने के लिये बेंच लगीं और सबसे बड़ा काम एक 15 किलोवॉट का सोलर प्लांट लगा जिससे 25 घरों में बिजली मिल रही है। लेकिन 25 सौ आबादी वाले इस गांव में राजभर, पटेल दलित बिरादरी ज़्यादा है, जिनका मुख्य व्यवसाय बुनकरी है। कभी 500 घरों में करघे से नई नई साड़ी शक्ल अख्तियार करती थी पर आज सिर्फ 75 घरों में बमुश्किल करघा ज़िंदा है। ज़्यादातर कारीगर मजदूरी कर गुजर बसर को मजबूर हैं। लिहाजा प्रधानमंत्री से इनकी पहली मांग अपने पुश्तैनी धंधे को ज़िंदा करने की है।
इन कमियों के बावजूद भी एक अच्छी बात ये है कि देश के सांसद जहां अभी तक अपने गोद लिये गांव में काम नहीं करा पा रहे हैं और बहुतों ने तो गोद लिया भी नहीं है। ऐसे में प्रधानमंत्री का ये प्रयास सराहनीय तो है पर जिस तरह संस्थाएं काम को अंजाम दे रही है वह संतोष जनक नहीं है। इस पर प्रधानमंत्री को ध्यान देना चाहिये तब कहीं उनका मंसूबा पूरा हो पायेगा। वैसे भी प्रधानमंत्री जिस गांव को गोद लेते हैं, वहां लोगों की उम्मीदें बढ़ जाती है। जो काम हो रहा है वो इनकी उम्मीद से भी नीचे है। ऐसे में लोगों को कुछ नाराजगी भी है और सलाह भी दे रहे है कि एक काम करें पर ठोस करें। अब देखने वाली बात ये हैं कि इनकी ये सलाह प्रधानमंत्री के सलाहकारों तक पहुंचती है या नहीं....।
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