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पूर्व IPS अधिकारी को NDPS एक्ट में SC ने दी राहत, सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की निंदा की

सुप्रीम कोर्ट ने प्राकृतिक न्याय और निष्पक्ष सुनवाई के मूलभूत सिद्धांतों को बताते हुए मादक पदार्थ मामले में तीन व्यक्तियों को कथित रूप से गलत तरीके से फंसाने से संबंधित एक मामले में हरियाणा की एक पूर्व महिला IPS अधिकारी के खिलाफ मुकदमे को रद्द किया.

पूर्व IPS अधिकारी को NDPS एक्ट में SC ने दी राहत, सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की निंदा की
नई दिल्ली:

सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा की पूर्व IPS को बड़ी राहत दी है. महिला अफसर को फंसाने के लिए निचली अदालत के जज पर उठाए भी SC ने सवाल खड़े किए हैं. मादक पदार्थ मामले में तीन लोगों को झूठा फंसाने के आरोप भी रद्द किए गए हैं. ⁠SC ने कहा कि स्पेशल जज ने प्राकृतिक न्याय और निष्पक्ष सुनवाई के मूलभूत सिद्धांतों का पालन नहीं किया.

सुप्रीम कोर्ट ने प्राकृतिक न्याय और निष्पक्ष सुनवाई के मूलभूत सिद्धांतों को बताते हुए मादक पदार्थ मामले में तीन व्यक्तियों को कथित रूप से गलत तरीके से फंसाने से संबंधित एक मामले में हरियाणा की एक पूर्व महिला IPS अधिकारी के खिलाफ मुकदमे को रद्द किया. जस्टिस भूषण आर गवई,  जस्टिस पीके मिश्रा और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ ने नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस (NDPS) अधिनियम के तहत विशेष न्यायाधीश के आचरण की कड़ी आलोचना की⁠ और उन्हें पूर्व निर्धारित तरीके से काम करने और उचित प्रक्रिया का उल्लंघन करने के लिए फटकार लगाई.

भारती अरोड़ा, जो उस समय  कुरुक्षेत्र में पुलिस अधीक्षक के रूप में कार्यरत थीं, को NDPS अधिनियम की धारा 58 के तहत मुकदमे का सामना करना पड़ा. ⁠पीठ ने उनके अभियोजन में प्रक्रियात्मक खामियां और मौलिक कानूनी मानदंडों की अवहेलना पाई, अंततः कार्यवाही को कानून में अस्थिर करार दिया.

सर्वोच्च न्यायालय ने स्पेशल⁠ NDPS जज के लिए ट्रांसफर आदेश प्राप्त करने के बाद भी अरोड़ा के ट्रायल को जिस बिजली की गति से पूरा किया. अनियमितताओं को उजागर करते हुए, जस्टिस गवई ने कहा कि विद्वान विशेष न्यायाधीश ने पूर्वनिर्धारित तरीके से काम किया.

पीठ ने विशेष जज के 30 मई, 2008 को आदेश लिखवाने और टाइप करने, उसे सीलबंद लिफाफे में रखने और अपने उत्तराधिकारी को सुनाने के लिए छोड़ने के निर्णय पर निराशा व्यक्त की. ⁠पीठ ने कहा कि इस तरह की कार्रवाई प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों से पूरी तरह से अलग है.

⁠पीठ ने जोर देकर कहा कि अरोड़ा के खिलाफ प्रतिकूल निष्कर्ष दर्ज किए जाने से पहले उन्हें कोई नोटिस या सुनवाई का अवसर नहीं दिया गया. विद्वान स्पेशल जज ने उन्हें नोटिस दिए बिना ही, मामले की अंतिम सुनवाई के चरण में दिए गए तर्कों के आधार पर, उन्हें एनडीपीएस अधिनियम की धारा 58 के तहत दंडनीय अपराध का लगभग दोषी पाते हुए उनके खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणियां की.

इसके अलावा, ऐसा करते समय, न तो उन्हें कोई नोटिस दिया गया और न ही सुनवाई का कोई अवसर दिया गया. 24 फरवरी, 2007 के फैसले के बाद, स्पेशल ने 26 फरवरी, 2007 को अरोड़ा को नोटिस जारी किया. ⁠उनके द्वारा जवाब दाखिल करने और उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के बावजूद, विशेष न्यायाधीश ने मई 2008 में दस दिनों के भीतर सात सुनवाई निर्धारित की, जबकि उनके ट्रांसफर आदेशों के अनुसार उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा.

सुप्रीम कोर्ट ने एनडीपीएस अधिनियम की धारा 69 के प्रावधानों पर भी चर्चा की, जो अधिनियम के तहत सद्भावनापूर्वक किए गए कार्यों के लिए अधिकारियों को प्रतिरक्षा प्रदान करता है. ⁠प्रावधान के महत्व पर जोर देते हुए पीठ ने कहा कि सद्भावना की धारणा को केवल ठोस और पुख्ता सामग्री द्वारा ही खारिज किया जा सकता है. ऐसा निर्णय जो गलत प्रतीत होता है, जरूरी नहीं कि दुर्भावनापूर्ण हो या सद्भावना से रहित हो. इस कृत्य में किसी अधिकारी को प्रतिरक्षा से वंचित करने का अनुचित उद्देश्य अवश्य होना चाहिए.

दरअसल 2021 में अरोड़ा, जो उस समय अंबाला रेंज के पुलिस महानिरीक्षक (आईजीपी) के पद पर तैनात थीं और उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली थीं.

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