मीडिया में अदालतों में विचाराधीन मामलों की रिपोर्टिंग (Reporting on pending Cases) पर अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में चिंता जताई. एजी केके वेणुगोपाल ने अदालत में कहा कि न्यायालय में लंबित मामलों में जजों की सोच को प्रभावित करने के लिए प्रिंट और टीवी में बहस चलती है, इसने संस्था को बहुत नुकसान पहुंचाया है. यह मुद्दा आज गंभीर अनुपात में चल रहा है. एजी ने कहा कि जब कोई जमानत की अर्जी सुनवाई के लिए आती है तो टीवी अभियुक्तों और किसी के बीच के संदेशों को फ्लैश करता है.यह अभियुक्तों के लिए हानिकारक है और यह जमानत की सुनवाई के दौरान सामने आता है. ठीक इसी तरह उदाहरण के तौर पर अगर अदालत में रफाल को सुनवाई है तो एक लेख सामने आ जाएगा. यह अदालत की अवमानना है. वर्ष 2009 के प्रशांत भूषण अवमानना मामले की सुनवाई के दौरान एजी ने ये दलील दी. मामले को 4 नवंबर तक स्थगित कर दिया गया है.
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जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिसकृष्ण मुरारी की बेंच ने सुनवाई की. अदालत को इनबड़े मुद्दों पर विचार करना है कि किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ शिकायत व्यक्त करने की प्रक्रिया क्या है, किन परिस्थितियों में इस तरह के आरोप लगाए जा सकते हैं और जब कोई मामला लंबित है, तो मीडिया या किसी अन्य माध्यम से मामले में किस हद तक बयान दिया जा सकता है? SC ने इन मुद्दों पर अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल की मदद मांगी थी.
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गौरतलब है कि शीर्ष अदालत ने 10 अगस्त को भूषण के ''खेद'' और 2009 के मामले में उनके बयान के लिए स्पष्टीकरण को स्वीकार करने से इनकार करते हुए एक आदेश पारित किया था और आदेश दिया था कि अदालत इस बात की जांच करेगी कि क्या भूषण के बयान से अवमानना की गई. वर्ष 2009 में भूषण ने तहलका पत्रिका को दिए एक इंटरव्यू में न्यायपालिका के खिलाफ विवादित टिप्पणी देने के अलावा भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के खिलाफ आरोप लगाए थे.
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