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मैं रिश्तों की बलि दे दूंगा... जानें पीएम मोदी के लिए अब क्यों 'बढ़िया' नहीं हैं नवीन बाबू?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि मैं ओडिशा के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपने आप को खपा दूंगा.इसके लिए अगर मुझे अपने संबंधों को बलि चढ़ाना पड़ेगा तो ओडिशा की भलाई के लिए मैं अपने संबंधों की बलि चढ़ा दूंगा.

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मैं रिश्तों की बलि दे दूंगा... जानें पीएम मोदी के लिए अब क्यों 'बढ़िया' नहीं हैं नवीन बाबू?
नई दिल्ली:

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने कहा है कि वो ओडिशा की भलाई के लिए अपने निजी संबंधों की बलि चढ़ा दूंगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्यूज एजेंसी एएनआई को दिए इंटरव्यू में यह बात कही. इस दौरान उन्होंने आरोप लगाया कि ओडिशा में पिछले 25 साल से विकास ठप पड़ा है. प्रधानमंत्री ने इस साल फरवरी-मार्च  में ओडिशा में आयोजित कार्यक्रम में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक (CM Naveen Patnaik) को अपना दोस्त बताया था.इसके बाद से इस बात की चर्चा तेज हो गई थी कि लोकसभा (Loksabha Election 2024) और विधानसभा चुनाव (Odisha Assembly Election 2024) के लिए बीजेपी (BJP) और बीजेडी (BJD) में समझौता हो सकता है, लेकिन यह समझौता नहीं हो पाया.अब प्रधानमंत्री विकास के लिए अपने निजी संबंधों की बलि चढाने की बात कर रहे हैं.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा क्या है?

एएनआई को दिए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने कहा,''हिंदुस्तान के सभी राजनीतिक दलों से हमारे संबंध अच्छे ही हैं, लोकतंत्र में राजनीतिक दलों से हमारी दुश्मनी नहीं होती है,हमारे संबंध अच्छे होने ही चाहिए. मेरे सामने सवाल यह है कि मैंने अपने संबंधों को संभालू या ओडिशा के भाग्य की चिंता करुं, ऐसे में मैंने चुना कि मैं ओडिशा के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपने आप को खपा दूंगा.इसके लिए अगर मुझे अपने संबंधों को बलि चढ़ानी पड़ेगी तो ओडिशा की भलाई के लिए मैं अपने संबंधों की बलि चढ़ा दूंगा.''

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उन्होंने कहा कि चुनाव के बाद मैं सबको यह समझाने की कोशिश करुंगा कि मेरी किसी से दुश्मनी नहीं है.लेकिन 25 साल से ओडिशा में प्रगति नहीं हो रही है. यह सबसे बड़ी चिंता है. एक टोली है, जिसने ओडिशा की व्यवस्था पर कज्बा कर लिया है, ऐसा लगता है कि ओडिशा की पूरी व्यवस्था को बंधक बना लिया है.ऐसे में यह स्वाभाविक है कि ओडिशा जब इन बंधनों से बाहर आएगा तो ओडिशा खिलेगा. यह ओडिशा की अस्मिता का सवाल है.'' 

ओडिशा में चुनाव 

ओडिशा में लोकसभा की 21 संसदीय सीटों और विधानसभा की 147 सीटों के लिए चुनाव हो रहा है. चार चरणों में होने वाले इस चुनाव के तीन चरणों का मतदान हो चुका है. अंतिम दौर का मतदान 1 जून को कराया जाएगा. इस चरण में लोकसभा की चार और विधानसभा की 42 सीटों के लिए मतदान कराया जाएगा.

पहले इस बात की चर्चा थी कि इन चुनावों के लिए बीजेपी और बीजेडी में समझौता हो सकता है. दोनों दल कई मौकों पर एक दूसरे की मदद करते नजर आए थे. तीन फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ओडिशा के संबंलपुर और पांच मार्च को चंडीखोल आए थे. इस अवसर पर उन्होंने मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को अपना मित्र और लोकप्रिय मुख्यमंत्री बताया था.इस दौरान उन्होंने पटनायक सरकार के कामकाज पर कोई टिप्पणी नहीं की थी.लेकिन कई दौर के बातचीत के बाद दोनों दलों में कोई समझौता आकार नहीं ले सका.इसके बाद बीजेपी ने 23 मार्च को अकले ही चुनाव में जाने का फैसला किया. 

बीजेपी का अकेले चुनाव लड़ने का फैसला

अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष मनमोहन सामल ने की थी. सोशल मीडिया पर लिखि अपनी पोस्ट में सामल ने पिछले 10 सालों में राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर मोदी सरकार को समर्थन देने के लिए बीजेडी का आभार भी जताया था.  इससे इस बात को बल मिला कि दोनों दल चुनाव के बाद भी समझौता कर सकते हैं.सामल ने भी बीजेडी, ओडिशा सरकार, या मुख्यमंत्री नवीन पटनायक पर एक शब्द भी नहीं कहा था.उन्होंने केवल ओड़िया अस्मिता, गौरव और जनहित की बात कही थी. 

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ओडिशा में बीजेडी से समझौते की चर्चा बीजेपी के नेता ही ज्यादा कर रहे थे. बीजेडी के नेता इसको लेकर संयम बरत रहे थे. बीजेडी नेताओं का कहना था कि वे अपने बूते लोकसभा और विधानसभा चुनाव जीत सकते हैं.बीजेडी ने नंबर दो की हैसियत और पटनायक के काफी करीबी पूर्व आईएएस अधिकारी वीके पांडियन ने कहा था कि न विधानसभा चुनाव जीतने के लिए नवीन को बीजेपी की जरूरत है और न ही मोदी को लोकसभा चुनाव जीतने के लिए बीजेडी का समर्थन चाहिए.

ओडिशा में समझौते से किसे होता फायदा?

ओडिशा में दरअसल समझौता दोनों दलों की जरूरत थी. एक तरफ बीजेपी एनडीए का कुनबा बढ़ाना चाहती थी, जिससे 'अबकी बार 400 पार'के नारे को जमीन पर उतारने में मदद मिले. वहीं समझौते के बाद राज्य सरकार में हिस्सेदारी भी मिलती. वहीं बीजेडी को इस बात का डर था कि बीजेपी से समझौता न करने पर कहीं उसका भी हाल वहीं न हो जाए जो विपक्ष की दूसरी सरकारों का हुआ था. बीजेडी की इस चुनाव में सत्ता विरोधी लहर का डर भी सता रहा है.इसलिए वो अपनी मुख्य विरोधी दल से ही हाथ मिलाना चाह रही थी. सीटों के बंटवारे और सत्ता की भागीदारी को लेकर समझौता नहीं हो सका. लेकिन दोनों दलों ने चुनाव के बाद समझौते की उम्मीदों को जिंदा रखा है.

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