प्रतीकात्मक तस्वीर
नई दिल्ली:
संभावना है कि जीएम सरसों को खेतों में उगाने की अनुमति जल्दी ही सरकार दे देगी. इसके लिए ज़रूरी फील्ड ट्रायल किए जा चुके हैं. सरकार की जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी से इसे हरी झंडी मिल चुकी है. अगर जीएम सरसों के खेतों में उगाई गई तो यह भारत में पहली जीएम खाद्य फसल होगी. हम आपको समझाते हैं कि जीएम फसल क्या होती है और क्यों इस पर बहस चल रही है. (वीडियो देखें)
क्या है ‘जीएम’?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक जीएम ऑर्गेनिज्म (पौंधे, जानवर, माइक्रोऑर्गेनिज्म) में डीएनए को इस तरह बदला जाता है जैसे प्राकृतिक तरीके से होने वाली प्रजनन प्रक्रिया में नहीं होता. जीएम टेक्नोलॉजी को इन नामों से भी जाना जाता है.
1. जीन टेक्नोलॉजी
2. रिकॉम्बिनेंट डीएनए टेक्नोलॉजी
3. जैनेटिक इंजीनियरिंग
कैसे बनता है जीएम?
सरल भाषा में जीएम टेक्नोलॉजी के तहत एक प्राणी या वनस्पति के जीन को निकालकर दूसरे असंबंधित प्राणी/वनस्पति में डाला जाता है. इसके तहत हाइब्रिड बनाने के लिए किसी माइक्रोऑर्गेनिज्म में नपुंसकता पैदा की जाती है. जैसे जीएम सरसों को प्रवर्धित करने के लिए सरसों के फूल में होने वाले स्व-परागण (सेल्फ पॉलिनेशन) को रोकने के लिए नर नपुंसकता पैदा की जाती है. फिर हवा, तितलियों, मधुमक्खियों और कीड़ों के ज़रिये परागण होने से एक हाइब्रिड तैयार होता है. इसी तरह बीटी बैंगन में प्रतिरोधकता के लिए ज़हरीला जीन डाला जाता है ताकि बैंगन पर हमला करने वाला कीड़ा मर सके.
क्या मकसद है?
वैज्ञानिकों का दावा है कि जीएम फसलों की उत्पादकता और प्रतिरोधकता अधिक होती है. इन तकनीक के ज़रिये सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं से लड़ने वाली नस्लें तैयार की जा सकती हैं. बीटी बैंगन के मामले में कीड़े से अप्रभावित रहने वाली फसल और जीएम सरसों के मामले में कीटनाशक को सहने वाली (हर्बीसाइड रेज़िस्टेंस) फसल उगाने का दावा किया जा रहा है.
अभिनव प्रयोग
दुनिया के अनेक देशों में जेनेटिक इंजीनियरिंग के तहत अभिनव प्रयोग हो रहे हैं. जैसे जर्मनी में मकड़ी के जीन को बकरी के जीन में डालकर बकरी के दूध को गाढ़ा और रेशेदार बनाने की कोशिश हो रही है. वहां वैज्ञानिक इस विधि से दूध से यार्न निकाल कर रेशमी कपड़ा बनाने की कोशिश में हैं. दूसरी और चीन में जुगनू के जीन को पौधे में डालकर यह कोशिश की जा रही है कि फसल रात को जगमगा सके ताकि कीड़ों का हमला कम हो.
कौन से देश उगा रहे हैं?
वैसे तो आज दुनिया के 28 देशों में किसी न किसी स्तर पर जीएम फसल (खाद्य या अखाद्य) उगाई जा रही हैं या उगाने की तैयारी है लेकिन इसकी अधिक पैदावार केवल 6 देशों में ही हो रही है. ये 6 देश हैं – अमेरिका, ब्राज़ील, कनाडा, चीन, भारत और अर्जेंटीना. दुनिया में कुल 18 करोड़ हेक्टेयर में इसकी खेती हो रही है और उसमें 92% हिस्सा इन 6 देशों की कृषि भूमि का ही है. इसमें अमेरिका हिस्सा 40% और ब्राज़ील का हिस्सा 25% है जबकि बाकी 27% भारत, चीन, कनाडा और अर्जेंटीना की कृषि भूमि है जहां जीएम पैदावार हो रही है.
मुख्य जीएम फसलें
दुनिया में जितनी भी जीएम फसल पैदा हो रही है उसमें सोयाबीन, मक्का, कपास, कैनोला (सरसों) का हिस्सा 99% है. यानी यही चार मुख्य फसलें हैं जो जीएम फसलों के तहत दुनिया में उगाई जा रही हैं. बाकी 1% में आलू, पपीता, बैंगन जैसी फसलें हैं जिन्हें कुछ देश उगा रहे हैं.
विवाद क्या है?
जहां वैज्ञानिक उत्पादकता, प्रतिरोधकता का तर्क दे रहे हैं वहीं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सवाल उठाया है कि जीएम फसलों का स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा, इस पर विस्तृत और पूरा अध्ययन नहीं किया गया है. हालांकि डब्लूएचओ की वेबसाइट बताती है कि दुनिया के जिन देशों में जीएम फसलें उगाई जा रही हैं वहां की मानक एजेंसियों ने कहा है कि ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं कि इस फसलों का स्वास्थ्य पर कोई बुरा प्रभाव पड़ रहा हो. विवाद जैव-विविधता यानी बायो डायवर्सिटी को लेकर भी है. सामाजिक संगठनों का कहना है कि इस बारे में अध्ययन किए जाने की ज़रूरत है कि हमारे देश की जैव विविधता पर जीएम फसलों से बुरा असर तो नहीं पड़ेगा.
आर्थिक जंग
जीएम फसलों को लेकर आर्थिक पहलू काफी अहम और विवाद खड़े करने वाला है. अमेरिका का जीएम फसलों के उत्पादन में बड़ा हिस्सा है और इसलिए वह चाहता है कि वैश्विक बाज़ार में जीएम को लेकर अधिक से अधिक स्वीकार्यता और सहमति बने. यह महत्वपूर्ण है कि अमेरिका ही नहीं बल्कि जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड जैसे देशों की कंपनियां इसमें पेटेंट अधिकारों को लेकर बड़ी मुहिम चला रही हैं.
यह बड़ा दिलचस्प है कि जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड की सरकारों ने अपने देश में जीएम फूड पर पाबंदी लगाई हुई है लेकिन इन देशों की कंपनियों पूरे विश्व बाज़ार में जीएम के माध्यम से एकाधिकार तलाश रही हैं. जीएम फसलों के खिलाफ लड़ रही कविता कुरुगंटी का कहना है 'जीएम तकनीक के माध्यम से जितनी आसानी से कंपनियों को पेटेंट मिलता है, वह शायद दूसरी कृषि-तकनीकों में नहीं मिल पाता. मिसाल के तौर पर प्रकृति में सरसों के पौधे में 85 हज़ार से अधिक जीन मौजूद होते हैं और जीएम तकनीक के तहत सिर्फ दो या तीन जीन बाहर से डालकर आप उस पूरी प्रजाति पर पेटेंट का दावा कर सकते हैं. इस तरह से मिलने वाले पेटेंट के बाद बाज़ार में इन बड़ी कंपनियों के एकाधिकार का खतरा है.'
हल क्या है?
जीएम को लेकर चल रही बहस के बीच ये कहना बड़ा कठिन है कि आखिर लकीर कहां खींची जाए लेकिन एक महत्वपूर्ण हल सुझाया जाता है कि पैकेजिंग कानूनों को मज़बूत किया जाए और उन्हें सख्ती से लागू किया जाए. यानी जीएम फूड को बेचते वक्त पैकेट पर लगे लेबल पर सभी जानकारियां साफ-साफ लिखी हों. इससे लोगों को पता चल सकेगा कि वह क्या खा रहे हैं. इस तरह जिन लोगों को जीएम फूड से दूर रहना हो वह इसका इस्तेमाल नहीं करेंगे.
क्या है ‘जीएम’?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक जीएम ऑर्गेनिज्म (पौंधे, जानवर, माइक्रोऑर्गेनिज्म) में डीएनए को इस तरह बदला जाता है जैसे प्राकृतिक तरीके से होने वाली प्रजनन प्रक्रिया में नहीं होता. जीएम टेक्नोलॉजी को इन नामों से भी जाना जाता है.
1. जीन टेक्नोलॉजी
2. रिकॉम्बिनेंट डीएनए टेक्नोलॉजी
3. जैनेटिक इंजीनियरिंग
कैसे बनता है जीएम?
सरल भाषा में जीएम टेक्नोलॉजी के तहत एक प्राणी या वनस्पति के जीन को निकालकर दूसरे असंबंधित प्राणी/वनस्पति में डाला जाता है. इसके तहत हाइब्रिड बनाने के लिए किसी माइक्रोऑर्गेनिज्म में नपुंसकता पैदा की जाती है. जैसे जीएम सरसों को प्रवर्धित करने के लिए सरसों के फूल में होने वाले स्व-परागण (सेल्फ पॉलिनेशन) को रोकने के लिए नर नपुंसकता पैदा की जाती है. फिर हवा, तितलियों, मधुमक्खियों और कीड़ों के ज़रिये परागण होने से एक हाइब्रिड तैयार होता है. इसी तरह बीटी बैंगन में प्रतिरोधकता के लिए ज़हरीला जीन डाला जाता है ताकि बैंगन पर हमला करने वाला कीड़ा मर सके.
क्या मकसद है?
वैज्ञानिकों का दावा है कि जीएम फसलों की उत्पादकता और प्रतिरोधकता अधिक होती है. इन तकनीक के ज़रिये सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं से लड़ने वाली नस्लें तैयार की जा सकती हैं. बीटी बैंगन के मामले में कीड़े से अप्रभावित रहने वाली फसल और जीएम सरसों के मामले में कीटनाशक को सहने वाली (हर्बीसाइड रेज़िस्टेंस) फसल उगाने का दावा किया जा रहा है.
अभिनव प्रयोग
दुनिया के अनेक देशों में जेनेटिक इंजीनियरिंग के तहत अभिनव प्रयोग हो रहे हैं. जैसे जर्मनी में मकड़ी के जीन को बकरी के जीन में डालकर बकरी के दूध को गाढ़ा और रेशेदार बनाने की कोशिश हो रही है. वहां वैज्ञानिक इस विधि से दूध से यार्न निकाल कर रेशमी कपड़ा बनाने की कोशिश में हैं. दूसरी और चीन में जुगनू के जीन को पौधे में डालकर यह कोशिश की जा रही है कि फसल रात को जगमगा सके ताकि कीड़ों का हमला कम हो.
कौन से देश उगा रहे हैं?
वैसे तो आज दुनिया के 28 देशों में किसी न किसी स्तर पर जीएम फसल (खाद्य या अखाद्य) उगाई जा रही हैं या उगाने की तैयारी है लेकिन इसकी अधिक पैदावार केवल 6 देशों में ही हो रही है. ये 6 देश हैं – अमेरिका, ब्राज़ील, कनाडा, चीन, भारत और अर्जेंटीना. दुनिया में कुल 18 करोड़ हेक्टेयर में इसकी खेती हो रही है और उसमें 92% हिस्सा इन 6 देशों की कृषि भूमि का ही है. इसमें अमेरिका हिस्सा 40% और ब्राज़ील का हिस्सा 25% है जबकि बाकी 27% भारत, चीन, कनाडा और अर्जेंटीना की कृषि भूमि है जहां जीएम पैदावार हो रही है.
मुख्य जीएम फसलें
दुनिया में जितनी भी जीएम फसल पैदा हो रही है उसमें सोयाबीन, मक्का, कपास, कैनोला (सरसों) का हिस्सा 99% है. यानी यही चार मुख्य फसलें हैं जो जीएम फसलों के तहत दुनिया में उगाई जा रही हैं. बाकी 1% में आलू, पपीता, बैंगन जैसी फसलें हैं जिन्हें कुछ देश उगा रहे हैं.
विवाद क्या है?
जहां वैज्ञानिक उत्पादकता, प्रतिरोधकता का तर्क दे रहे हैं वहीं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सवाल उठाया है कि जीएम फसलों का स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा, इस पर विस्तृत और पूरा अध्ययन नहीं किया गया है. हालांकि डब्लूएचओ की वेबसाइट बताती है कि दुनिया के जिन देशों में जीएम फसलें उगाई जा रही हैं वहां की मानक एजेंसियों ने कहा है कि ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं कि इस फसलों का स्वास्थ्य पर कोई बुरा प्रभाव पड़ रहा हो. विवाद जैव-विविधता यानी बायो डायवर्सिटी को लेकर भी है. सामाजिक संगठनों का कहना है कि इस बारे में अध्ययन किए जाने की ज़रूरत है कि हमारे देश की जैव विविधता पर जीएम फसलों से बुरा असर तो नहीं पड़ेगा.
आर्थिक जंग
जीएम फसलों को लेकर आर्थिक पहलू काफी अहम और विवाद खड़े करने वाला है. अमेरिका का जीएम फसलों के उत्पादन में बड़ा हिस्सा है और इसलिए वह चाहता है कि वैश्विक बाज़ार में जीएम को लेकर अधिक से अधिक स्वीकार्यता और सहमति बने. यह महत्वपूर्ण है कि अमेरिका ही नहीं बल्कि जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड जैसे देशों की कंपनियां इसमें पेटेंट अधिकारों को लेकर बड़ी मुहिम चला रही हैं.
यह बड़ा दिलचस्प है कि जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड की सरकारों ने अपने देश में जीएम फूड पर पाबंदी लगाई हुई है लेकिन इन देशों की कंपनियों पूरे विश्व बाज़ार में जीएम के माध्यम से एकाधिकार तलाश रही हैं. जीएम फसलों के खिलाफ लड़ रही कविता कुरुगंटी का कहना है 'जीएम तकनीक के माध्यम से जितनी आसानी से कंपनियों को पेटेंट मिलता है, वह शायद दूसरी कृषि-तकनीकों में नहीं मिल पाता. मिसाल के तौर पर प्रकृति में सरसों के पौधे में 85 हज़ार से अधिक जीन मौजूद होते हैं और जीएम तकनीक के तहत सिर्फ दो या तीन जीन बाहर से डालकर आप उस पूरी प्रजाति पर पेटेंट का दावा कर सकते हैं. इस तरह से मिलने वाले पेटेंट के बाद बाज़ार में इन बड़ी कंपनियों के एकाधिकार का खतरा है.'
हल क्या है?
जीएम को लेकर चल रही बहस के बीच ये कहना बड़ा कठिन है कि आखिर लकीर कहां खींची जाए लेकिन एक महत्वपूर्ण हल सुझाया जाता है कि पैकेजिंग कानूनों को मज़बूत किया जाए और उन्हें सख्ती से लागू किया जाए. यानी जीएम फूड को बेचते वक्त पैकेट पर लगे लेबल पर सभी जानकारियां साफ-साफ लिखी हों. इससे लोगों को पता चल सकेगा कि वह क्या खा रहे हैं. इस तरह जिन लोगों को जीएम फूड से दूर रहना हो वह इसका इस्तेमाल नहीं करेंगे.
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