
India-Pak ceasefire: “आप लोग जा रहे हैं… काम खत्म हो गया न… हां, वैसे भी अब मीडिया वालों की यहां क्या ज़रूरत…” ये बात राजौरी के एक होटल में काम करने वाली एक महिला ने कही थी. उसकी आंखों में कोई नमी नहीं थी,कोई कंपन नहीं था आवाज़ में.पत्थर जैसी दृढ़ता थी,जैसे पहाड़ों से पूछ लिया हो सवाल. लेकिन,उस एक वाक्य ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया.कभी-कभी कोई सच चिल्लाता नहीं…बस सामने खड़ा हो जाता है…और आपको थमा देता है… मजबूर कर देता है रुकने को… सोचने को…उसकी बातों में जो सवाल था,वो सिर्फ उसका नहीं था.
वो सवाल राजौरी का था...वो सवाल पुंछ का था..वो उन तमाम चेहरों का था, जो हमारी स्क्रीन पर कभी नहीं आते. क्या जम्मू-कश्मीर का मतलब सिर्फ जंग,गोलियां और पाकिस्तान है हमारी मीडिया के लिए? क्या हमने उन्हें अपनी हेडलाइनों में सिर्फ आतंकवाद तक सीमित कर दिया है? हर गांव में, हर जले हुए घर में, हर टूटी दीवार पर… ये सवाल जैसे आंखों में चुपचाप खड़े मिलते हैं. पतराड़ा पंचग्राही के देवराज शर्मा जैसे लोग, जो हमें अपना उजड़ा हुआ घर दिखाते हैं… छत नहीं बची, दीवारें झुलसी हुईं, बिस्तर राख हो गया… और फिर वो सीधा पूछते हैं. "एक दिन मीडिया में आ जाने से क्या मेरा घर बन जाएगा?" मैं क्या कहता?

LoC पर कई अंदरुनी इलाकों में भी इतना नुकसान हुआ है जिसकी भरपाई में वक्त लगेगा
आप लोगों को तो यहां सिर्फ सनसनी चाहिए...
कई गांवों में नौजवान बहुत गुस्से में थे. वो कहते रहे..."आप लोगों को तो यहां सिर्फ सनसनी चाहिए थी. हमारे लिए ये ज़िंदगी है,आपके लिए सिर्फ ब्रेकिंग न्यूज़…" पिछले 5 दिन जैसे किसी डर की लहर में बीते. रात को आसमान में उड़ते ड्रोन…गोलियों की आवाज़ें…घर बंद… बाज़ार बंद…पुंछ में सन्नाटा…
राजौरी में होटल तक खाली हो गए थे…सिर्फ दो-तीन लोग बचे थे जो खाना भी मुश्किल से जुटा पा रहे थे…लेकिन हिम्मत नहीं हारी.शनिवार शाम को जब सीज़फायर की खबर आई —एक पल को लगा कि अब शायद हालात बदलेंगे…लोग चैन की सांस लेंगे. लेकिन, जब लौटा हूं…तो लगता है,उस महिला का सवाल —"अब मीडिया वालों की क्या ज़रूरत?" — ये सवाल अब हर आम आदमी की जुबान पर है. क्योंकि ये ज़मीन सिर्फ जंग नहीं है. यहां बच्चे भी हैं जो दीवारों पर अधूरे रंगों से सपने बनाते हैं. बूढ़े भी हैं जो धूप में बैठ कर चाय पीते हैं और पुराने वक्त को याद करते हैं. और दिहाड़ी मज़दूर भी हैं जो बिहार और बंगाल जैसे राज्यों से यहां रोटी की तलाश में आए थे,अब डर के साये में वापस लौट रहे हैं. और फिर… मैं लौटा.

सीजफायर के बाद अब राजौरी में शांति लौटी है लेकिन सुरक्षा बंदोबस्त अब भी कड़े हैं
क्या बॉर्डर से दूर आकर दर्द भी धीमा हो जाता है?
लंबा सफर तय करते हुए जब दिल्ली की ओर बढ़ा, तो रास्ते में बड़े ढाबों में तेज़ म्यूज़िक बज रहा था,लोग अपनी पसंद का खाना खा रहे थे… हंसी-ठिठोली कर रहे थे. एयरपोर्ट पर सुबह-सवेरे भीड़ थी,बच्चे रंग-बिरंगे बैग खींच रहे थे,मां-बाप थके हुए कॉफी पी रहे थे. भोपाल पहुँचा तो सड़कें चाय की खुशबू से भरी थीं…कुछ लोग योग कर रहे थे, कुछ दौड़ रहे थे,कुछ मोबाइल पर सुबह की ख़बरें पढ़ रहे थे. मैं बस… खामोश खड़ा था.सोच रहा था —क्या धमाकों की आवाज़ की गूंज भी दूरी तय करती है? क्या बॉर्डर से दूर आकर दर्द भी धीमा हो जाता है? या फिर हम ही सुनना छोड़ देते हैं? राजौरी में एक बच्चा अब पक्षी और ड्रोन की आवाज़ में फर्क कर सकता है. पूंछ में एक बुज़ुर्ग ने कहा —“अब तो जूते पहनकर सोते हैं… कभी भी भागना पड़ सकता है.”

राजौरी-पुंछ में सीजफायर के बाद भी हर घर का अपना दर्द है...
हम सबने कुछ पीछे छोड़ दिया है
लेकिन दूर शहरों में…हम आराम से सो जाते हैं —क्योंकि हमारे आसपास युद्ध नहीं है.हम “ब्रेकिंग” लिखते हैं,फिर “नेक्स्ट स्टोरी” पर क्लिक कर देते हैं. लेकिन जिनके लिए वो गोली आखिरी नहीं, रोज़ की बात है,क्या उनका जीवन भी ‘ब्रेकिंग' के साथ ख़त्म हो जाता है? मैं लौट आया…पर उनका सवाल मेरे साथ चल रहा है. आज भी...प्रशासन कोशिश कर रहा है.सेना अपना काम कर रही है.बंकर बन रहे हैं. लेकिन…जो कहानी गोली नहीं चलाती,जो दर्द बिना विस्फोट के भी जिंदा है —उसे कौन सुनाएगा? क्या हम तब भी लौटेंगे,जब यहां कोई जंग न हो? क्या तब भी आएंगे जब कहानियों में सिर्फ शांति हो?
मेरे पास इसका जवाब नहीं है.बस अब ये सवाल हमेशा साथ रहेगा —जैसे कोई खुला ज़ख्म…जो हर बार याद दिलाएगा कि हम सबने कुछ पीछे छोड़ दिया है…और वो सिर्फ एक खबर नहीं थी… एक पूरा सच था… जो हमेशा अनकहा रह गया.
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