हिमाचल में दरकते पहाड़, भरभराकर गिरती इमारतें... आखिर इस तबाही का जिम्मेदार कौन?

हिमाचल प्रदेश में पिछले 24 घंटे में बारिश से जुड़ी घटनाओं में 12 लोगों की मौत हो गई. इनमें 7 मौतें मंडी और शिमला में लैंडस्लाइड की वजह से हुईं. सवाल ये है कि क्या ये तबाही सिर्फ बारिश की वजह हुई लैंडस्लाइड से है या हम पहाड़ों पर बड़ी लापरवाही कर रहे हैं.

नई दिल्ली:

हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड ने पिछले दो महीनों में भारी तबाही देखी है. हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में गुरुवार को लैंडस्लाइड हुई. इस दौरान कुछ ही सेकेंड में 7 इमारतें ताश के पत्तों की तरह ढह गईं. राज्य में पिछले 24 घंटे में बारिश से जुड़ी घटनाओं में 12 लोगों की मौत हो गई. इनमें 7 मौतें मंडी और शिमला में लैंडस्लाइड की वजह से हुईं. भारी बारिश के चलते कुल्लू-मनाली हाईवे भी बंद कर दिया गया. कई घर और दुकानें तबाह हो गईं. सवाल ये है कि क्या ये तबाही सिर्फ बारिश की वजह हुई लैंडस्लाइड से है या हम पहाड़ों पर बड़ी लापरवाही कर रहे हैं.

कुल्लू के बस स्टैंड का ही उदाहरण लीजिए. यहां कम दूरी में इतनी इमारतें हैं कि आप गिन नहीं सकेंगे. एक साथ इतनी इमारतों की इजाज़त कैसे दी गई, ये अपने आप में बड़ा सवाल है. खतरनाक बात ये है कि ये सभी इमारतें बहुमंजिला हैं. कोई बिल्डिंग पांच फ्लोर की है, तो कोई सात फ्लोर की. एक तो आप पहाड़ पर निर्माण कर रहे हैं और वो भी इतनी ऊंची इमारतें. कोई बताने वाला नहीं है कि वहां इतनी ऊंची इमारतों की ज़रूरत क्या है.

कुल्लू में गुरुवार सुबह हुए लैंडस्लाइड की बात करें, तो गनीमत रही कि यहां पहले ही लोगों को शिफ्ट करा लिया गया था. ऐसे में जान का नुकसान नहीं हुआ. जब पहाड़ धंसा, तो ये इमारतें ताश के पत्तों की तरह गिरने लगीं. एक इमारत गिरी, फिर दूसरी, फिर तीसरी, फिर चौथी, फिर पांचवी और फिर ऊपर से इमारतें गिरने लगी. ऐसा क्यों हुआ कि एक इमारत गिरी तो दूसरी गिर गई? इसका जवाब पहाड़ ही है. दरअसल, पहाड़ तो एक ही है. ये मैदानी इलाका नहीं है कि जहां एक इमारत अगर गिरेगी, तो बहुत हद तक उसके ठीक बगल वाले पर असर होता है. ये तो पहाड़ है और एक पहाड़ पर अगर बहुत सारी इमारतें होंगी, तो सबके सब पर असर होगा. ये सच है कि भारी बारिश हो रही है. इसमें भी कोई दो राय नहीं कि हालात बहुत खराब हैं, लेकिन हमें समझना होगा कि ये पहाड़ हैं... यहां लैंडस्लाइड नहीं होगा इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता. 

हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने पिछले हफ्ते कहा है कि बिना वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल किए लोगों ने घर बनाए हैं. नाले के ऊपर इमारतें बना दी गई हैं. लोगों को लगता है कि पानी ड्रेनेज सिस्टम में जा रहा है, लेकिन वो पहाड़ों में जा रहा है और पहाड़ कमज़ोर हो रहे हैं. मुख्यमंत्री जब ये कह रहे हैं, तो उन्हें ये भी बताना चाहिए कि उनकी सरकार बनने के बाद इसे रोकने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं.

आज हिमाचल प्रदेश में लोगों को एनजीटी के फैसले की याद आ रही है. करीब छह साल पहले 2017 में 16 नवंबर को एनजीटी ने आदेश दिया था. ये मामला योगेंद्र नाथ गुप्ता बनाम केंद्र सरकार, हिमाचल प्रदेश सरकार और हिमाचल प्रदेश के टाउन और कंट्री प्लानिंग विभाग के बीच का है. 

NGT का क्या है आदेश?
इस मामले में NGT ने अपने आदेश में कहा था कि भारत सरकार के 2003 के रिपोर्ट के मुताबिक हिमाचल प्रदेश में करीब 97.42% भौगोलिक क्षेत्र में लैंडस्लाइड की संभावना है. बहुत ज़्यादा निर्माण और पेड़ों की कटाई लैंडस्लाइड की अहम वजह है. दूसरी जगहों के साथ शिमला गंभीर लैंडस्लाइड के खतरे वाली श्रेणी में है. हिमाचल प्रदेश के राजस्व विभाग के मुताबिक, सरकार को 2016 के मॉनसून में फ़्लैश फ्लड, बादल फटने और लैंडस्लाइड की वजह से 863.97 करोड़ का नुकसान हुआ है.

NGT ने कहा कि 2016 के मॉनसून में करीब 40 लोगों की मौत हुई. स्ट्रक्चरल डैमेज से 2283 करोड़ का नुकसान हुआ. NGT ने यह भी कहा कि अगर ऐसे अंधाधुंध विकास की अनुमति दी गई, तो पर्यावरण को भारी नुकसान होगा. इसके साथ आपदा भी होगी.
 
NGT ने 2017 में ऐसा कहा था. सरकार इस फैसले के आधार पर आगे बढ़ी. सरकार ने तो दो साल 10 महीने बाद जुलाई 2019 में इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी. यही नहीं, हिमाचल प्रदेश के टाउन एंड कंट्री प्लानिंग डिपार्टमेंट ने ड्राफ्ट डेवलपमेंट प्लान 2041 बना दिया. इस प्लान में अधिक मंज़िलों के निर्माण, कोर एरिया, ग्रीन एरिया में पाबंदिया हटाने का प्रावधान था. सिंकिंग, स्लाइडिंग क्षेत्र में विकास की अनुमति की बात रखी गई.

प्रस्ताव को कैबिनेट ने दी मंजूरी
आपको जानकर हैरानी होगी कि इस प्रस्ताव को कैबिनेट ने मंजूरी दे दी. विधि विभाग नोटिफिकेशन जारी करने वाला ही था कि NGT ने फिर रोक लगा दी. NGT ने 2017 के अपने फैसले को बरकरार रखा और कहा कि अगर राज्य इस तरह से आगे बढ़ता है तो इससे न केवल क़ानून-व्यवस्था को नुकसान होगा, बल्कि पर्यावरण और सार्वजनिक सुरक्षा से जुड़े विनाशकारी परिणाम भी सामने आ सकते हैं. हालांकि, बाद में सरकार मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गई. फिलहाल मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है.

क्या कहते हैं एक्सपर्ट?
ऐसे में एक बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि हिमाचल में जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं, उससे साफ है कि कहीं न कहीं निर्माण में नियमों को ताक पर रखा गया है. इस पूरे मामले में NDTV ने भू-विज्ञानी प्रोफेसर यशपाल सुंदरियाल और एसपी सती से बात की.

प्रोफेसर यशपाल सुंदरियाल कहते हैं, "हमारे अधिकतर पहाड़ी क्षेत्रों में जितने भी सेटलमेंट हैं. वो पुरानी गाइडलाइंस पर हैं. इन इमारतों के नीचे कोई हार्ड लैंड नहीं हैं, बल्कि पत्थरों के बड़े-बड़े टुकड़े हैं. ये फाइन मटेरियल से भरे हुए हैं. जब बारिश तेज और लगातार होती है तो फाइन मटेरियल पानी को और अंदर और नीचे ले जाता है, इससे पहाड़ धीरे-धीरे कमजोर होते हैं. उसके बाद जो वैक्यूम क्रिएट होता है, पहाड़ उसे ऑक्यूपाई करने के लिए मूविंग करते हैं. इस मूविंग से उसके ऊपर बना स्ट्रक्चर जाहिर तौर पर डैमेज होगा."

वहीं, एसपी सती कहते हैं, "आज कोई इमारत दरकेगा, कल कोई और इमारत दरकेगा. लेकिन अगर ऐसा ही रहा तबाही निश्चित है. इसके लिए सभी तंत्र जिम्मेदार हैं. सरकार, प्रशासन, कॉर्पोरेट, इंसान... ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमलोग ऐसी घटनाओं से न तो सबक लेते हैं और न इसे सुधारने का कोई काम करते हैं."

साफ है कि हिमाचल और उत्तराखंड में हो रही तबाही के लिए प्रकृति नहीं, बल्कि कहीं न कहीं इंसान ही जिम्मेदार हैं. सवाल ये है कि अगर हम अब भी नहीं चेते. अगर अब भी नहीं जागे, तो कब जागेंगे?

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