अन्य वरिष्ठ मंत्रियों के साथ पीएम मोदी
नई दिल्ली:
विवादास्पद भूमि अधिग्रहण बिल पर मोदी सरकार ने अपने क़दम पीछे खींचने के संकेत दिए हैं। सूत्रों के मुताबिक़ केंद्र सरकार राज्यों को अपने खुद के भूमि अधिग्रहण क़ानून बनाने का अधिकार देने का मन बना रही है।
जानकारी मिली है कि सरकार संसद के मॉनसून सत्र में हंगामे के चलते बने गतिरोध के बीच पर्दे के पीछे भूमि अधिग्रहण को लेकर इस बिल पर फंसे पेंच को दूर करने की क़वायद में लगी है।
दरअसल, मंगलवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की गई। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच वरिष्ठ मंत्रियों को निर्देश दिया कि वो आपस में बैठकर तय करें कि सरकार को आगे क्या करना है।
इस निर्देश के बाद बुधवार को संसद भवन में संसदीय कार्य मंत्री एम वेंकैया नायडू के कक्ष में इन वरिष्ठ मंत्रियों की बैठक हुई। इस बैठक में गृह मंत्री राजनाथ सिंह, वित्त मंत्री अरुण जेटली, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी शामिल हुए।
ये मन बनाया गया कि टकराव लंबा खींचने के बजाए राज्यों को अपने भूमि अधिग्रहण क़ानून बनाने का अधिकार दे दिया जाए। सूत्रों के मुताबिक़ नीति आयोग की बैठक में सुझाव आया कि राज्यों को अधिकार दिया जाए। ये सुझाव देने वालों में बीजेपी के सहयोगी दल भी शामिल थे। खासतौर से पंजाब में अकाली दल ये कहता आया है कि राज्यों को ये अधिकार दे दिया जाना चाहिए।
भूमि अधिग्रहण संविधान की समवर्ती सूची में है इसलिए राज्य क़ानून बना सकते हैं। कई विवादास्पद प्रावधान जिनमें सहमति प्रावधान और सामाजिक प्रभाव अध्ययन शामिल हैं, उन्हें कानून में रखना है या नहीं, ये राज्य तय कर सकते हैं। साथ ही मुआवज़े को बढ़ाने और प्रभावित परिवार को रोज़गार देने का फैसला भी राज्य कर सकते हैं।
जबकि केंद्र अपने क़ानून इन विवादास्पद मुद्दों को दूर रख सकता है। क्योंकि सबसे ज्यादा विवाद इन्हीं प्रावधानों को हटाने पर हुआ है। एक अन्य मसला राष्ट्रीय राजमार्ग के दोनों ओर एक किलोमीटर तक की भूमि के अधिग्रहण से जुड़ा है। सरकार इस पर भी नरमी बरतने को तैयार है। अधिक संभावना यही है कि केंद्र अधिकांश विवादास्पद मुद्दों से किनारा कर इस बारे में अंतिम निर्णय का अधिकार राज्यों को ही दे दे।
दरअसल, ये एक राजनीतिक फैसला है। सरकार को लग रहा है कि बिहार चुनाव के बाद ही बातें तय हों ताकि विपक्षी पार्टियां इस चुनाव में बीजेपी पर किसान विरोधी होने का ठप्पा न लगा सकें। दूसरी बात ये है कि बीजेपी शासित राज्यों में अपने हिसाब से भूमि अधिग्रहण कानून बना कर जमीन ली जाए ताकि विकास की रफ्तार बढ़ाने में आसानी हो। बाद में उनकी तुलना कांग्रेस शासित राज्यों से की जा सकेगी जहां कठिन प्रावधानों के चलते राज्य भूमि अधिग्रहित नहीं कर पाएंगे।
इस मुद्दे पर बनी संयुक्त संसदीय समिति को तीन अगस्त तक अपनी रिपोर्ट देनी है। हालांकि इस समिति के काम की रफ्तार सुस्त है। ऐसे में ये सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या इस समिति के कार्यकाल को फिर बढ़ाने की मांग तो नहीं उठ जाएगी। ऐसा होने पर भूमि अधिग्रहण बिल का इस सत्र में आना पूरी तरह से टल जाएगा और बिहार चुनावों के मद्देनजर सरकार का एक बड़ा सिरदर्द दूर हो सकता है।
जानकारी मिली है कि सरकार संसद के मॉनसून सत्र में हंगामे के चलते बने गतिरोध के बीच पर्दे के पीछे भूमि अधिग्रहण को लेकर इस बिल पर फंसे पेंच को दूर करने की क़वायद में लगी है।
दरअसल, मंगलवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की गई। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच वरिष्ठ मंत्रियों को निर्देश दिया कि वो आपस में बैठकर तय करें कि सरकार को आगे क्या करना है।
इस निर्देश के बाद बुधवार को संसद भवन में संसदीय कार्य मंत्री एम वेंकैया नायडू के कक्ष में इन वरिष्ठ मंत्रियों की बैठक हुई। इस बैठक में गृह मंत्री राजनाथ सिंह, वित्त मंत्री अरुण जेटली, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी शामिल हुए।
ये मन बनाया गया कि टकराव लंबा खींचने के बजाए राज्यों को अपने भूमि अधिग्रहण क़ानून बनाने का अधिकार दे दिया जाए। सूत्रों के मुताबिक़ नीति आयोग की बैठक में सुझाव आया कि राज्यों को अधिकार दिया जाए। ये सुझाव देने वालों में बीजेपी के सहयोगी दल भी शामिल थे। खासतौर से पंजाब में अकाली दल ये कहता आया है कि राज्यों को ये अधिकार दे दिया जाना चाहिए।
भूमि अधिग्रहण संविधान की समवर्ती सूची में है इसलिए राज्य क़ानून बना सकते हैं। कई विवादास्पद प्रावधान जिनमें सहमति प्रावधान और सामाजिक प्रभाव अध्ययन शामिल हैं, उन्हें कानून में रखना है या नहीं, ये राज्य तय कर सकते हैं। साथ ही मुआवज़े को बढ़ाने और प्रभावित परिवार को रोज़गार देने का फैसला भी राज्य कर सकते हैं।
जबकि केंद्र अपने क़ानून इन विवादास्पद मुद्दों को दूर रख सकता है। क्योंकि सबसे ज्यादा विवाद इन्हीं प्रावधानों को हटाने पर हुआ है। एक अन्य मसला राष्ट्रीय राजमार्ग के दोनों ओर एक किलोमीटर तक की भूमि के अधिग्रहण से जुड़ा है। सरकार इस पर भी नरमी बरतने को तैयार है। अधिक संभावना यही है कि केंद्र अधिकांश विवादास्पद मुद्दों से किनारा कर इस बारे में अंतिम निर्णय का अधिकार राज्यों को ही दे दे।
दरअसल, ये एक राजनीतिक फैसला है। सरकार को लग रहा है कि बिहार चुनाव के बाद ही बातें तय हों ताकि विपक्षी पार्टियां इस चुनाव में बीजेपी पर किसान विरोधी होने का ठप्पा न लगा सकें। दूसरी बात ये है कि बीजेपी शासित राज्यों में अपने हिसाब से भूमि अधिग्रहण कानून बना कर जमीन ली जाए ताकि विकास की रफ्तार बढ़ाने में आसानी हो। बाद में उनकी तुलना कांग्रेस शासित राज्यों से की जा सकेगी जहां कठिन प्रावधानों के चलते राज्य भूमि अधिग्रहित नहीं कर पाएंगे।
इस मुद्दे पर बनी संयुक्त संसदीय समिति को तीन अगस्त तक अपनी रिपोर्ट देनी है। हालांकि इस समिति के काम की रफ्तार सुस्त है। ऐसे में ये सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या इस समिति के कार्यकाल को फिर बढ़ाने की मांग तो नहीं उठ जाएगी। ऐसा होने पर भूमि अधिग्रहण बिल का इस सत्र में आना पूरी तरह से टल जाएगा और बिहार चुनावों के मद्देनजर सरकार का एक बड़ा सिरदर्द दूर हो सकता है।
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