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This Article is From Dec 30, 2018

FLASH BACK 2018: SC ने सुनाए न्यायपालिका में 'भरोसा' मजबूत करने वाले कई फैसले, CJI पर इतिहास में पहली बार सवाल भी उठे

साल 2018 न्याय के क्षेत्र में बेहद उल्लेखनीय रहा जिसमें हमारे देश के न्यायतंत्र की शक्तियों पर भरोसा मजबूत हुआ, तो साथ ही यह आभास भी हुआ कि सबको न्याय देने वाली न्यायपालिका में 'सब कुछ ठीक नहीं है.'

FLASH BACK 2018: SC ने सुनाए न्यायपालिका में 'भरोसा' मजबूत करने वाले कई फैसले, CJI पर इतिहास में पहली बार सवाल भी उठे
प्रतीकात्मक तस्वीर.
नई दिल्ली:

मरियम वेबस्टर डिक्शनरी द्वारा 'जस्टिस' को वर्ड ऑफ द ईयर चुना गया है. साल भर इसकी वेबसाइट पर इस शब्द को सबसे अधिक सर्च किया गया. मरियम वेबस्टर के संपादक पीटर सोलोवस्की के अनुसार, 'जस्टिस' शब्द पूरे साल लोगों के दिलोदिमाग पर छाया रहा.' राजनीतिक गलियारों में रूसी जांच का मुद्दा केंद्र में रहने, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस के संदर्भ में 'जस्टिस' शब्द को ट्वीट करने, टेस्ला जांच, रॉबर्ट मुलर जांच और माइकल कोहेन को तीन साल कैद की सजा मिलने जैसे वाकयों के बीच, 'जस्टिस' अमेरिका में निश्चित तौर पर चर्चा में रहा. जस्टिस या न्याय की बात करें तो भारत में भी इस क्षेत्र में काफी उथल-पुथल रही और माननीय सुप्रीम कोर्ट के कई ऐतिहासिक फैसलों को देखते हुए न्याय के क्षेत्र में साल 2018 अद्भुत और उल्लेखनीय रहा. 

यह वो साल रहा जिसने दो प्रधान न्यायाधीश देखे- पूर्व प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा और वर्तमान रंजन गोगोई. दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में संविधान पीठों ने साल के कई महत्वपूर्ण फैसले दिए तो वहीं, रंजन गोगोई ने राफेल सौदे के बारे में उल्लेखनीय फैसला सुनाया.

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धारा 377 हटाने से लेकर महिलाओं को सबरीमाला में प्रवेश की अनुमति, जहां पहले उनका प्रवेश वर्जित था, जैसे फैसलों समेत 2018 ने ऐसे प्रगतिशील निर्णयों की लहर देखी जिसने कानूनों में बदलाव के साथ हमारी जिंदगी में भी बदलाव किया.

साल 2018 महिलाओं के लिए भी उल्लेखनीय रहा. इस दौरान महिलाओं को सबरीमाला में प्रवेश की अनुमति मिली. जस्टिस इंदु मल्होत्रा बार से सीधे सुप्रीम कोर्ट में पदस्थ की जाने वाली पहली महिला बनीं. 

इतना ही नहीं, अपने दशकों लंबे इतिहास में बाधाओं को तोड़ते हुए जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय को 2018 में उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त जज ओ पी शर्मा की वकील बेटी सिंधु शर्मा के रूप में पहली महिला जज मिली और जस्टिस गीता मित्तल की मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के साथ एक बार फिर इतिहास रचा गया. 

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जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय के इतिहास में इसके 107 न्यायाधीशों में इससे पहले कोई भी महिला नहीं थी. और हाल ही में एडवोकेट माधवी दीवान को सुप्रीम कोर्ट की एडिशनल सोलिसिटर जनरल (एएसजी) नियुक्त किया गया, जो एएसजी के रूप में नियुक्त होने वाली तीसरी महिला हैं.

लैंगिक न्याय की वकालत करते हुए और एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए यह कहते हुए कि 'श्रद्धा के मामले में लैंगिग भेदभाव नहीं होना चाहिए' शीर्ष अदालत ने 4:1 के बहुमत से उस प्रतिबंध को समाप्त कर दिया जिसके तहत 10-50 साल की आयुवर्ग वाली महिलाओं को परंपरा और रीति-रिवाज के नाम पर सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं थी. 

हालांकि, यह भी हैरान करने वाला था कि बेंच में अकेली महिला न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा ने इस फैसले का विरोध करते हुए कहा कि धार्मिक प्रथाओं के बारे में अदालत को फैसला नहीं लेना चाहिए.

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हालांकि, इस फैसले ने भगवान अयप्पा के परंपरागत भक्तों में नाराजगी पैदा कर दी, जो फैसला आने के बाद से ही इसके खिलाफ आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं और इस बात पर अडिग हैं कि वे मंदिर की परंपरा को नहीं टूटने देंगे.

लैंगिक समानता की एक बार फिर पैरवी करते हुए और इस बात को रेखांकित करते हुए कि महिला पति की संपत्ति नहीं है, शीर्ष अदालत की पांच जजों वाली पीठ ने औपनिवेशिक युग के व्याभिचार कानून को रद्द करते हुए भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को निरस्त कर दिया. हालांकि यह अभी भी तलाक का आधार हो सकता है और अगर इसके कारण कोई आत्महत्या करता है तो इस कृत्य को आत्महत्या के लिए उकसाने वाला अपराध माना जाएगा.

सुप्रीम कोर्ट ने एक अन्य ऐतिहासिक फैसने में समलैंगिकों के बीच यौन संबंध को भी यह कहते हुए अपराध के दायरे से बाहर कर दिया कि दो वयस्कों के बीच रजामंदी से बना यौन संबंध निजता के अधिकार का मामला है. शीर्ष अदालत ने कहा कि आईपीसी की धारा 377 एलजीबीटीक्यू-प्लस समुदाय के सदस्यों को परेशान करने के लिए एक हथियार के रूप में प्रयोग की जाती है और इससे उनके साथ भेदभाव होता है. 

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इस फैसले से भारत के एलजीबीटीक्यू समुदाय में खुशी की लहर दौड़ गई जिनके साथ धारा 377 के नाम पर दशकों से पक्षपात किया जाता रहा था और उन्हें धमकाया जाता रहा था.

सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य महत्वपूर्ण फैसले की बदौलत आने वाले समय में हम अदालत की कार्यवाही का सीधा प्रसारण भी देख पाएंगे. यह कहते हुए कि 'सूर्य का प्रकाश सबसे अच्छा कीटनाशक है' मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने अदालती कार्यवाहियों की लाइव स्ट्रीमिंग और वीडियो रिकॉर्डिग किए जाने का फैसला सुनाया.

आधार की संवैधानिकता पर छिड़ी बहस पर विराम लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली बेंच ने एक अन्य महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि आधार संवैधानिक है, लेकिन इसे बैंक खाते, मोबाइल आदि से लिंक करना और सरकारी सेवाओं का लाभ उठाने के लिए अनिवार्य करना असंवैधानिक है.

साल 2018 में सर्वोच्च न्यायलय ने मरणासन्न रोगियों या लाइलाज बीमारियों से पीड़ित रोगियों के लिए दिशा-निर्देशों के साथ 'पैसिव युथनेसिया' या निष्क्रिय इच्छामृत्यु के लिए लिखी गई वसीयत (लिविंग विल) को कानूनी मान्यता दे दी. यह कहते हुए कि हर व्यक्ति को गरिमा के साथ मरने का अधिकार है, अदालत ने अपने फैसले में कहा कि मरणासन्न रोगियों को यह फैसला लेने का अधिकार है कि कब उनका लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटा दिया जाए.

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नई इबारत लिखने वाले फैसलों के अलावा, 2018 को उन काले उदाहरणों और तनावपूर्ण वाकयों के लिए भी याद रखा जाएगा जो भारतीय न्यायपालिका को इस वर्ष देखने पड़े. कभी किसी के जहन में भी नहीं आया होगा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के पवित्र और गरिमामय पद पर प्रश्नचिन्ह उठेगा, लेकिन इस साल की शुरुआत चार वरिष्ठतम जजों की अचानक बुलाई गई प्रेस कॉन्फ्रेंस के साथ हुई जिसमें उन्होंने तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा द्वारा मामलों के आवंटन यानी रोस्टर या बेंच बनाने की प्रक्रिया में पद का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया.

इतनी ही नहीं, प्रधान न्यायाधीश पर महाभियोग चलाए जाने की विपक्ष की मांग ने भी भारतीय न्यापालिका में ही नहीं, बल्कि राजनीतिक गलियारों में भी हलचल मचा दी.

उच्च न्यायपालिका में होने वाली नियुक्तियों में गतिरोध भी गंभीर चिंता और न्यायपालिका व सरकार के बीच विवाद का मुद्दा बना रहा और सीजेआई रंजन गोगोई ने हाल ही में एनजीओ सेंटर फॉर पब्लिक इंटरस्ट लिटिगेशन की याचिका पर आश्वासन दिया कि वह केंद्र सरकार के पास लंबित कॉलेजियम की सिफारिशों के मामले पर गौर करेंगे.

कुल मिलाकर कहें तो साल 2018 न्याय के क्षेत्र में बेहद उल्लेखनीय रहा जिसमें हमारे देश के न्यायतंत्र की शक्तियों पर भरोसा मजबूत हुआ, तो साथ ही यह आभास भी हुआ कि सबको न्याय देने वाली न्यायपालिका में 'सब कुछ ठीक नहीं है.

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