EXPLAINER: तृणमूल + कांग्रेस - वामदल : INDIA गठबंधन का बंगाल में कैसा होगा रूप...?

पश्चिम बंगाल के नेताओं का एक वर्ग अपने व्यक्तिगत समीकरणों की वजह से वामपंथियों के साथ गठबंधन (INDIA Alliance In Bengal) पर जोर दे रहा है. उनका मानना है कि राज्य में वामपंथी वोट बड़ी संख्या में बीजेपी को ट्रांसफर हो गए हैं.

EXPLAINER: तृणमूल + कांग्रेस - वामदल : INDIA गठबंधन का बंगाल में कैसा होगा रूप...?

बंगाल में कैसा होगा इंडिया गठबंधन का रूप?

नई दिल्ली:

बंगाल में इंडिया गठबंधन के दलों में आपस में ही खींचतान चल रही है. टीएमसी और लेफ्ट एक दूसरे के साथ आने के लिए तैयार नहीं दिख रहे. अब पूरी संभावना है कि बंगाल में इंडिया गठबंधन (India Alliance In Bengal) कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस ही शामिल रहेगा, सीपीआई (एम) इस गठबंधन से बाहर रहेगा. बंगाल में सीपीआई (एम) और टीएमसी के बीच काफी कड़वाहट है. कांग्रेस और टीएमसी (TMC-Congress) दोनों ही दल बंगाल में बठबंधन के लिए तैयार हैं लेकिन सीट-बंटवारे पर पेंच फंसता दिख रहा है. कांग्रेस जाहिर तौर पर पश्चिम बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से करीब छह सीटों पर चुनाव लड़ने की उम्मीद कर रही है, लेकिन पार्टी की इस मांग को स्वीकार करना तृणमूल कांग्रेस के लिए मुश्किल होगा. 

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कांग्रेस-TMC में सीट बंटवारे पर फंस सकता है पेंच

तृणमूल कांग्रेस के सूत्रों का कहना है कि केवल सीटों पर चुनाव लड़ने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि सीटें जीतना भी चाहिए,. उन्होंने कहा कि ये कुछ ऐसा है जिसे कांग्रेस राज्य में अपनी मौजूदा संगठनात्मक ताकत के साथ हासिल नहीं कर सकती है. कांग्रेस ने 2019 में बंगाल में केवल दो सीटें जीतीं, लेकिन पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व राज्य में अपनी स्ट्राइक रेट में सुधार करने के लिए उत्सुक है.  उत्तर प्रदेश से 80 और महाराष्ट्र  से 48 सांसदों के बाद बंगाल से कांग्रेस के सबसे ज्यादा सांसद संसद में हैं.  

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वाम दल बंगाल में कमजोर या ताकतवर? 

कांग्रेस का मानना ​​है कि तृणमूल के साथ हाथ मिलाने से उसको सीटें बेहतर करने में मदद मिलेगी. पार्टी को उम्मीद है कि वह ममता बनर्जी को रायगंज, मालदा और मुर्शिदाबाद जैसी सीटें छोड़ने के लिए मना लेंगी. 2021 में बंगाल चुनाव में विनाशकारी परिणाम के बाद कांग्रेस के कई राष्ट्रीय नेता पश्चिम बंगाल में वाम दलों के साथ गठबंधन को लेकर सतर्क हैं. दोनों पार्टियां एक भी सीट जीतने में नाकाम रहीं थीं. राज्य के कुछ हिस्सों में समर्थन के साथ वामपंथ को चुनावी तौर पर काफी हद तक कमजोर ताकत के रूप में देखा जाता है. इस दल ने तीन दशकों से अधिक समय तक बिना किसी चुनौती के बंगाल में शासन किया, इसके बाद सीपीआई (एम) का पतन उल्लेखनीय रहा. बंगाल में अब इसके कोई सांसद या विधायक नहीं हैं और पिछले दो आम चुनावों में इसमें भारी गिरावट आई है.

कांग्रेस का मानना ​​है कि सीपीआई (एम) भी बंगाल में बीजेपी से मुकाबला करने के लिए गठबंधन को लेकर ज्यादा उत्सुक नहीं है. इसके अलावा पार्टी बंगाल में सहयोगी दलों के केरल में एक दूसरे से लड़ने के अंतर्विरोध से भी चिंतित है. मतदाताओं को भ्रमित करने के अलावा, इसने उनके राष्ट्रीय चुनाव अभियानों को जटिल बना दिया है, जिसकी वजह से उन्हें बीजेपी की आलोचना झेलनी पड़ रही है.  कांग्रेस को लगता है कि बंगाल की तुलना में केरल में उसकी संभावनाएं काफी बेहतर हैं. कांग्रेस नेतृत्व केरल में पार्टी की रणनीति को प्राथमिकता देने का पक्षधर है. वह बंगाल में तृणमूल कांग्रेस से लड़ने की तुलना में केरल में सीपीआई (एम) से कहीं अधिक प्रभावी ढंग से मुकाबला कर सकता है. 

कुछ कांग्रेस नेता क्यों दे रहे वामदलों से गठबंधन पर जोर?

कांग्रेस नेतृत्व अच्छी तरह से जानता है, हालांकि पश्चिम बंगाल के नेताओं का एक वर्ग अपने व्यक्तिगत समीकरणों की वजह से वामपंथियों के साथ गठबंधन पर जोर दे रहा है. उनका मानना है कि राज्य में वामपंथी वोट बड़ी संख्या में बीजेपी को ट्रांसफर हो गए हैं. बंगाल में इस घटना को 'बाम थेके राम' नाम दिया गया है, जिसका अनुवाद "लेफ्ट टू राम (हिंदू समर्थक राजनीति)" के रूप में होता है. इसका एक अच्छा उदाहरण कांग्रेस के पूर्व गढ़ मालदा उत्तर में बीजेपी के खगेन मुर्मू का चुनाव है. मुर्मू एक कम्युनिस्ट थे जो 2019 के आम चुनाव से पहले बीजेपी में शामिल हो गए थे. वह  चार बार सीपीआई (एम) विधायक रहे, अब वह बीजेपी सांसद हैं.

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वहीं वामपंथी भी कांग्रेस के लिए रायगंज जैसी सीटें नहीं छोड़ेंगे. 2014 में लेफ्ट के जीतने से पहले यह सीट कांग्रेस के पास थी. 2019 में यह बीजेपी के पास चली गई. कांग्रेस की एकमात्र चिंता यह है कि वाम दल उसके वोट काटकर परोक्ष रूप से बीजेपी की मदद कर रहा है. सीपीआई (एम) ने राजनीति के अपने ब्रांड को कमजोर करके भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चा (आईएसएफ) को भी मुख्यधारा में लाया. एक मुस्लिम मौलवी के नेतृत्व में आईएसएफ को 2021 में चुनावी मोर्चे पर लाने के कदम को वामपंथियों द्वारा एक गलत सलाह और रणनीतिक भूल के रूप में देखा गया, जिसने कांग्रेस को भी नुकसान पहुंचाया और दोनों को शून्य की स्थिति में छोड़ दिया.