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This Article is From Sep 12, 2023

पर्यावरण को लेकर जागरूकता पर भारी कीमत, इको फ्रेंडली की जगह पीओपी बप्पा ला रहे लोग

महाराष्ट्र के इस सबसे बड़े पर्व को लेकर आस्था साल दर साल बढ़ती तो जा रही है, पर मूर्तिकार, कारीगर, विक्रेता की मांग यही है कि सरकार सिर्फ़ पर्यावरण के फ़िक्र की ज़िम्मेदारी ग्राहकों पर ना डाले.

पर्यावरण को लेकर जागरूकता पर भारी कीमत, इको फ्रेंडली की जगह पीओपी बप्पा ला रहे लोग
प्लास्टर ऑफ़ पेरिस से बनी मूर्तियां सस्ती और टिकाऊ तो होती हैं लेकिन पर्यावरण के लिए ख़तरा भी होती हैं.
मुंबई:

महाराष्ट्र का सबसे बड़ा पर्व गणेशोत्सव 19 सितंबर से शुरू होगा. बप्पा की मूर्तियों की बिक्री जारी है पर अधिकांश लोगों का झुकाव प्लास्टर ऑफ़ पेरिस (पीओपी) से बनी मूर्तियों की तरफ़ है. नुक़सान के कारण कई मूर्तिकार तो इको फ्रेंडली बप्पा बनाना बंद भी कर चुके हैं. हाथ से बनने वाले इको फ्रेंडली मूर्तियां मिट्टी-क्ले से बनती हैं. इसके चलते ये महंगी होती हैं. यह नाज़ुक भी होती हैं पर पर्यावरण के लिए बिलकुल फिट होती हैं. मिनटों में पानी में घुल जाती हैं.

प्लास्टर ऑफ़ पेरिस से बनी मूर्तियां सस्ती और टिकाऊ तो होती हैं लेकिन पर्यावरण के लिए ख़तरा भी होती हैं. अजय सावंत बीते 26 साल से गणेश मूर्ति बना और बेच रहे हैं. बृहन्मुंबई गणेश मूर्तिकार संघ से भी जुड़े हैं. कहते हैं इको फ्रेंडली बप्पा ख़रीदने के लिए आये ग्राहक भी क़ीमत सुनकर पीओपी की तरफ़ रुख़ कर लेते हैं. क़रीब 80% पीओपी की मूर्तियां ही बिकती हैं. जोश में लोग इको फ्रेंडली मूर्तियां लेने तो आते हैं लेकिन कॉस्ट सुनकर फ़ौरन पूछते हैं मिट्टी का ही तो है तो फिर क्यूं इतना महंगा? पीओपी और इको फ्रेंडली मूर्तियों के कॉस्ट में क़रीब 40% का अंतर होता है. ईको फ्रेंडली मूर्ति ख़रीदने का थोड़ा चलन सिर्फ़ हाई सोसाइटी में है.''

मूर्तिकार यूसुफ़ गलवानी इको फ्रेंडली मूर्ति बनाना इस साल से बंद कर चुके हैं. अब मिट्टी का दिया बनाते हैं. बताते हैं कि इको फ्रेंडली मूर्ति कोई ख़रीदता ही नहीं. 12 लाख रुपये का बीते साल नुक़सान हो गया. लोग सस्ता टिकाऊ गणपति चाहते हैं, जो POP में उन्हें मिलता है. ये मिट्टी है, इसे स्टोर करने में भी दिक़्क़त आती है. अब सरकार पीओपी की इजाज़त देगी तो लोग वही ख़रीदेंगे ना.

जेजे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स से फाइन आर्ट्स कर चुके मूर्तिकार संदीप गोंगे भी नुक़सान सहकर इको फ्रेंडली मूर्ति बना रहे हैं. वह बताते हैं कि ग्राहक की पर्चेजिंग पॉवर कम हुई है. हमारा जगह का रेंट भी बढ़ रहा है. रॉ मटेरियल महंगा हुआ है. चूंकि मेरा ये पैशन है तो मैं बना रहा हूं और बनाता रहूंगा.

महाराष्ट्र के इस सबसे बड़े पर्व को लेकर आस्था साल दर साल बढ़ती तो जा रही है, पर मूर्तिकार, कारीगर, विक्रेता की मांग यही है कि सरकार सिर्फ़ पर्यावरण के फ़िक्र की ज़िम्मेदारी ग्राहकों पर ना डाले क्यूंकि बात जहां 35-40% तक दरों में फ़र्क़ की आती है तो अधिकांश लोगों का झुकाव सस्ती मूर्ति की तरफ़ ही होता है. ऐसे में इको फ्रेंडली बप्पा को लेकर सख़्त नियम तय और साफ़ करने होंगे, सिर्फ़ जागरूकता से काम चलना मुश्किल है. 
 

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