अरविंद केजरीवाल का फाइल फोटो...
नई दिल्ली:
दिल्ली उच्च न्यायालय ने अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आप सरकार की ओर से उसके 21 विधायकों को संसदीय सचिवों के रूप में नियुक्त करने के आदेश को खारिज कर दिया है.
प्रमुख न्यायाधीश जी रोहिणी और न्यायाधीश संगीता ढींगरा सहगल ने यह आदेश तब जारी किया, जब दिल्ली सरकार का पक्ष रखने वाले वकील ने यह 'स्वीकार कर लिया' कि 13 मार्च 2015 का आदेश उपराज्यपाल की सहमति या सलाह लिए बिना जारी किया गया था. दिल्ली सरकार का पक्ष रख रहे वरिष्ठ वकील सुधीर नंदराजोग ने उच्च न्यायालय के चार अगस्त वाले फैसले का हवाला दिया, जिसमें उसने आप सरकार की कई अधिसूचनाओं को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि इन्हें उपराज्यपाल की सहमति लिए बिना जारी किया गया.
नंदराजोग ने पीठ को बताया, 'आज मुझे यह मानना होगा कि चार अगस्त वाला फैसले मेरे (दिल्ली सरकार के) खिलाफ है'. दिल्ली सरकार की ओर से दिए गए आवेदनों पर गौर करते हुए पीठ ने कहा कि 'जीएनसीटीडी (दिल्ली सरकार) के विवादित आदेश को खारिज किया जाता है'. संक्षिप्त सुनवाई के दौरान, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल संजय जैन ने पीठ को बताया कि चुनाव आयोग भी 21 विधायकों को संसदीय सचिवों के रूप में नियुक्त किए जाने के मुद्दे पर गौर कर रहा है.
उच्च न्यायालय ने अपने चार अगस्त के फैसले में कहा था कि दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश है और उपराज्यपाल ही इसके प्रशासनिक प्रमुख हैं. केंद्र ने 13 जुलाई को आम आदमी पार्टी सरकार की ओर से नियुक्त किए गए 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति का विरोध किया था. केंद्र ने कहा था कि मुख्यमंत्री के संसदीय सचिव पद के अलावा इस पद का न तो संविधान में कोई स्थान है और न ही दिल्ली विधानसभा (अयोग्यता निवारण: कानून :1997) में.
गृह मंत्रालय ने न्यायालय से कहा कि इस तरह की नियुक्ति कानून सम्मत नहीं है. आप के 21 विधायकों की संसदीय सचिव के रूप में नियुक्ति के अरविंद केजरीवाल के निर्णय को निरस्त करने की मांग करते हुए एक गैर-सरकारी संगठन ने जनहित याचिका दायर की थी. याचिका पर न्यायालय ने केंद्र को नोटिस दिया था, जिसके जवाब में गृह मंत्रालय ने एक हलफनामा दायर कर सरकार का पक्ष रखा. हलफनामे में गृह मंत्रालय ने कहा कि दिल्ली सरकार ने दिल्ली विधानसभा सदस्य (अयोग्यता निवारण) विधेयक में संशोधन कर 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति को कानूनी जामा पहनाने की कोशिश की, लेकिन राष्ट्रपति ने राज्य सरकार के इस निर्णय पर अपनी सहमति नहीं दी.
पिछली सुनवाई के दिन दिल्ली सरकार ने कहा था कि 21 विधायकों को अयोग्य घोषित करने के लिए चुनाव आयोग के समक्ष एक याचिका दायर की गई थी, जिस संबंध में आयोग ने नोटिस जारी किया है. इसके बाद उच्च न्यायालय ने अगली सुनवाई के लिए आज का दिन मुकर्रर किया था.
पिछले वर्ष के सात अक्तूबर को आप सरकार ने यह कहते हुए संसदीय सचिवों की नियुक्ति के अपने आदेश का बचाव किया था था कि ऐसा मंत्रियों के मदद करने और सामंजस्यपूर्ण कामकाज के लिए किया गया है. राज्य सरकार ने कहा कि संसदीय सचिवों को वैसे गोपनीय दस्तावेज देखने का अधिकार नहीं दिया गया था, जिसका अधिकार केवल मंत्रियों को होता है.
राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा नामक एनजीओ ने अपनी याचिका में दावा कि मुख्यमंत्री ने संवैधानिक प्रावधानों का पूरी तरह उल्लंघन करते हुए 'असंवैधानिक और गैर-कानूनी आदेश' पारित किया. एनजीओ के आरोपों को खारिज करते हुए दिल्ली सरकार ने कहा कि वह उपराज्यपाल के विधायी कार्यों को दरकिनार नहीं कर रही थी.
याचिकाकर्ता ने कोर्ट में कहा था कि 13 मार्च 2015 को मुख्यमंत्री ने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया, जो विभिन्न मंत्रियों की मदद करेंगे, वह पूरी तरह गैर-कानूनी और संविधान के खिलाफ है. ऐसे में सारी नियुक्तियों को रद्द किया जाना चाहिए. इस याचिका में संविधान की धारा 239 AA का जिक्र किया गया. यही मुद्दा भी दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच जंग की वजह बना था. (आइए समझें अन्य राज्यों और दिल्ली सरकार के संसदीय सचिवों का मामला)
उधर, चुनाव आयोग ने भी बीते मंगलवार को दिल्ली के मुख्य सचिव केके शर्मा से एक बार फिर छह सवालों का जवाब मांगा है. आयोग ने ये जवाब दिल्ली सरकार में संसदीय सचिव बनाए गए 21 आप विधायकों के मुद्दे पर मांगा. चुनाव आयोग ने संसदीय सचिवों को दी कुछ सुविधाओं का ब्योरा मांगा है.
31 अगस्त की चिट्ठी में चुनाव आयोग ने इन सवालों का जवाब मांगा है, जैसे 'क्या संसदीय सचिवों को गाड़ी या ड्राइवर दिया जा रहा है, जानकारी दीजिए'.. 'क्या यात्रा खर्चे के लिए भत्ता या रिम्बर्समेंट दिए जा रहे हैं'.. 'क्या ट्रांसपोर्टेशन के लिए कोई रोज़ाना भत्ता दिया गया'.. 'कैंप ऑफिस और टेलीफोन सुविधा की जानकारी दीजिए'. इससे पहले 24 जून को चुनाव आयोग ने 11 सवालों के जवाब मुख्य सचिव से मांगे थे, लेकिन मुख्य सचिव के जवाब से आयोग संतुष्ट नहीं हुआ, इसलिए दोबारा चिठ्ठी लिखकर जवाब मांगा गया है. (इनपुट एजेंसी से भी)
प्रमुख न्यायाधीश जी रोहिणी और न्यायाधीश संगीता ढींगरा सहगल ने यह आदेश तब जारी किया, जब दिल्ली सरकार का पक्ष रखने वाले वकील ने यह 'स्वीकार कर लिया' कि 13 मार्च 2015 का आदेश उपराज्यपाल की सहमति या सलाह लिए बिना जारी किया गया था. दिल्ली सरकार का पक्ष रख रहे वरिष्ठ वकील सुधीर नंदराजोग ने उच्च न्यायालय के चार अगस्त वाले फैसले का हवाला दिया, जिसमें उसने आप सरकार की कई अधिसूचनाओं को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि इन्हें उपराज्यपाल की सहमति लिए बिना जारी किया गया.
नंदराजोग ने पीठ को बताया, 'आज मुझे यह मानना होगा कि चार अगस्त वाला फैसले मेरे (दिल्ली सरकार के) खिलाफ है'. दिल्ली सरकार की ओर से दिए गए आवेदनों पर गौर करते हुए पीठ ने कहा कि 'जीएनसीटीडी (दिल्ली सरकार) के विवादित आदेश को खारिज किया जाता है'. संक्षिप्त सुनवाई के दौरान, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल संजय जैन ने पीठ को बताया कि चुनाव आयोग भी 21 विधायकों को संसदीय सचिवों के रूप में नियुक्त किए जाने के मुद्दे पर गौर कर रहा है.
उच्च न्यायालय ने अपने चार अगस्त के फैसले में कहा था कि दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश है और उपराज्यपाल ही इसके प्रशासनिक प्रमुख हैं. केंद्र ने 13 जुलाई को आम आदमी पार्टी सरकार की ओर से नियुक्त किए गए 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति का विरोध किया था. केंद्र ने कहा था कि मुख्यमंत्री के संसदीय सचिव पद के अलावा इस पद का न तो संविधान में कोई स्थान है और न ही दिल्ली विधानसभा (अयोग्यता निवारण: कानून :1997) में.
गृह मंत्रालय ने न्यायालय से कहा कि इस तरह की नियुक्ति कानून सम्मत नहीं है. आप के 21 विधायकों की संसदीय सचिव के रूप में नियुक्ति के अरविंद केजरीवाल के निर्णय को निरस्त करने की मांग करते हुए एक गैर-सरकारी संगठन ने जनहित याचिका दायर की थी. याचिका पर न्यायालय ने केंद्र को नोटिस दिया था, जिसके जवाब में गृह मंत्रालय ने एक हलफनामा दायर कर सरकार का पक्ष रखा. हलफनामे में गृह मंत्रालय ने कहा कि दिल्ली सरकार ने दिल्ली विधानसभा सदस्य (अयोग्यता निवारण) विधेयक में संशोधन कर 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति को कानूनी जामा पहनाने की कोशिश की, लेकिन राष्ट्रपति ने राज्य सरकार के इस निर्णय पर अपनी सहमति नहीं दी.
पिछली सुनवाई के दिन दिल्ली सरकार ने कहा था कि 21 विधायकों को अयोग्य घोषित करने के लिए चुनाव आयोग के समक्ष एक याचिका दायर की गई थी, जिस संबंध में आयोग ने नोटिस जारी किया है. इसके बाद उच्च न्यायालय ने अगली सुनवाई के लिए आज का दिन मुकर्रर किया था.
पिछले वर्ष के सात अक्तूबर को आप सरकार ने यह कहते हुए संसदीय सचिवों की नियुक्ति के अपने आदेश का बचाव किया था था कि ऐसा मंत्रियों के मदद करने और सामंजस्यपूर्ण कामकाज के लिए किया गया है. राज्य सरकार ने कहा कि संसदीय सचिवों को वैसे गोपनीय दस्तावेज देखने का अधिकार नहीं दिया गया था, जिसका अधिकार केवल मंत्रियों को होता है.
राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा नामक एनजीओ ने अपनी याचिका में दावा कि मुख्यमंत्री ने संवैधानिक प्रावधानों का पूरी तरह उल्लंघन करते हुए 'असंवैधानिक और गैर-कानूनी आदेश' पारित किया. एनजीओ के आरोपों को खारिज करते हुए दिल्ली सरकार ने कहा कि वह उपराज्यपाल के विधायी कार्यों को दरकिनार नहीं कर रही थी.
याचिकाकर्ता ने कोर्ट में कहा था कि 13 मार्च 2015 को मुख्यमंत्री ने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया, जो विभिन्न मंत्रियों की मदद करेंगे, वह पूरी तरह गैर-कानूनी और संविधान के खिलाफ है. ऐसे में सारी नियुक्तियों को रद्द किया जाना चाहिए. इस याचिका में संविधान की धारा 239 AA का जिक्र किया गया. यही मुद्दा भी दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच जंग की वजह बना था. (आइए समझें अन्य राज्यों और दिल्ली सरकार के संसदीय सचिवों का मामला)
उधर, चुनाव आयोग ने भी बीते मंगलवार को दिल्ली के मुख्य सचिव केके शर्मा से एक बार फिर छह सवालों का जवाब मांगा है. आयोग ने ये जवाब दिल्ली सरकार में संसदीय सचिव बनाए गए 21 आप विधायकों के मुद्दे पर मांगा. चुनाव आयोग ने संसदीय सचिवों को दी कुछ सुविधाओं का ब्योरा मांगा है.
31 अगस्त की चिट्ठी में चुनाव आयोग ने इन सवालों का जवाब मांगा है, जैसे 'क्या संसदीय सचिवों को गाड़ी या ड्राइवर दिया जा रहा है, जानकारी दीजिए'.. 'क्या यात्रा खर्चे के लिए भत्ता या रिम्बर्समेंट दिए जा रहे हैं'.. 'क्या ट्रांसपोर्टेशन के लिए कोई रोज़ाना भत्ता दिया गया'.. 'कैंप ऑफिस और टेलीफोन सुविधा की जानकारी दीजिए'. इससे पहले 24 जून को चुनाव आयोग ने 11 सवालों के जवाब मुख्य सचिव से मांगे थे, लेकिन मुख्य सचिव के जवाब से आयोग संतुष्ट नहीं हुआ, इसलिए दोबारा चिठ्ठी लिखकर जवाब मांगा गया है. (इनपुट एजेंसी से भी)
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