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कस्टोडियल डेथ भारत में क्यों इतना आम, पुलिस हिरासत में टॉर्चर कितना जायज?

पुलिस हिरासत में मौतों की खबर भारत में जैसे बहुत आम है. इस मुद्दे पर कॉमन कॉज की तरफ से एक ताजा सर्वे करवाया गया है.

नई दिल्ली:

पुलिस हिरासत में मौतों की खबर भारत में जैसे बहुत आम है. लगभग रोज़ अख़बारों में जेल में या पुलिस की हिरासत में मारे जाने वालों की ख़बर छपती है. 26 जुलाई 2022 को लोकसभा में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने जानकारी दी कि 2020 से 2022 के बीच 4484 लोगों की मौत हिरासत में हुई थी. मानवाधिकार आयोग ने माना कि 2021-22 में जेलों में 2152 लोग मारे गए. इनमें 155 मौतें पुलिस हिरासत में हुई थीं. ऐसे आंकड़े लगातार बढ़ाए जा सकते हैं. लेकिन सवाल है, हमारे यहां हिरासत में इतनी मौतें क्यों होती हैं? क्या हमारी पुलिस व्यवस्था हिरासत में या जेल काट रहे क़ैदियों के साथ अमानवीय बरताव करती है? क्या वह क़ानूनों का ख़याल नहीं रखती? अब कॉमन कॉज का एक ताजा सर्वे आया है जो इस मामले में कई सच्चाइयों पर रोशनी डालता है.

कॉमन कॉज के सर्वे में क्या-क्या है?

  • ये सर्वे 17 राज्यों के 82 स्थानों पर किया गया है.
  • इनमें अलग-अलग रैंक के 8,276 पुलिसकर्मी शामिल रहे हैं.
  • सर्वे के मुताबिक ज़्यादातर पुलिसवाले टॉर्चर और हिंसा को अपने काम के लिए ज़रूरी मानते हैं.
  • ]20 फ़ीसदी पुलिसकर्मी सख्त तौर-तरीक़ों को बिल्कुल ज़रूरी मानते हैं ताकि लोगों में डर बना रहे.
  • 35 फ़ीसदी पुलिसकर्मियों को ये काफ़ी ज़रूरी लगता है.
  • 27 फीसदी पुलिसकर्मी मानते हैं कि यौन उत्पीड़न के मामलों में भीड़ की हिंसा जायज़ होती है- यानी भीड़ किसी रेपिस्ट को मारे-पीट दे तो ठीक है.
  • बच्चों के अपहरण के मामले में 25% पुलिसकर्मी यही मानते हैं.
  • 22 फ़ीसदी पुलिसवाले मानते हैं कि ख़तरनाक अपराधियों को मार देना उन पर मुकदमा चलाने से बेहतर है.
  • 30 फ़ीसदी पुलिसवाले गंभीर मामलों में थर्ड डिग्री टॉर्चर को सही मानते हैं.
  • जबकि 9 फीसदी यहां तक मानते हैं कि छोटे-मोटे अपराधों में भी ये सही है
  • 11 फीसदी पुलिसकर्मी मानते हैं कि आरोपियों के परिवारवालों को थप्पड़ मारना या पीटना बिल्कुल जायज़ है, जबकि 30 फीसदी मानते हैं कि ये कभी-कभी ज़रूरी है.

तो ये है हमारी कानून-व्यवस्था के पीछे काम कर रहा दिमाग. समझना मुश्किल नहीं है कि अक्सर क़ानून की खींची हुई रेखा को ये अधिकारी पार करने में भरोसा करते हैं. लेकिन क्यों? 

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एनडीटीवी के साथ बात करते हुए हुए उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी एके जैन ने कहा कि हिरासत में मौत को लेकर जो आरोप हैं उनमें से कुछ सही भी हैं. समाज तय करता है कि उसे किस तरह का पुलिस बल मिले. पुलिस फोर्स में बड़ी संख्या में रिक्तियां हैं. पुलिस कर्मियों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है. ये भी एक कारण है कि वो शॉटकर्ट रास्ता अपनाते हैं. तकनीकी की कमी भी एक बड़ी चुनौती रही है. साथ ही उन्होंने कहा कि न्यायिक सुधार की भी काफी जरूरत है जिससे की पुलिसकर्मियों से प्रेशर कम हो. 

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संविधान विशेषज्ञ केसी कौशिक ने कहा कि ये बात सही है कि न्यायिक व्यवस्था में सुधार की बेहद जरूरत है. उन्होंने कहा कि पुलिस वर्ग को 2 भागों में बांटने की जरूरत है. एक भाग का काम कानून व्यवस्था देखना होगा वहीं दूसरे भाग का काम यह हो कि वो सिर्फ जांच करे. साइंटिफिक जांच तब ही हो पाएगी जब आप स्वयं जानकार होंगे. साथ ही पुलिस कर्मियों की मानसिकता को भी ठीक करना होगा. इसके लिए उनके ऊपर से वर्क लोड कम करना बेहद जरूरी है. 

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