छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा जिले में बुधवार को नक्सलियों ने सुरक्षाकर्मियों को ले जा रहे वाहनों के काफिले में शामिल एक वाहन को विस्फोट से उड़ा दिया. इस घटना में 10 पुलिसकर्मी शहीद हो गए तथा एक वाहन चालक की मौत हो गई. छत्तीसगढ़ सरकार कहती रही है कि नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई आखिरी पड़ाव पर है, लेकिन इन हमलों के बाद कई सवाल खड़े होते हैं. क्या इस तरह का दावा करना ठीक है, क्योंकि ऐसे दावे के ठीक बाद हमला होता है? ये खुफिया तंत्र की विफलता है या इस तरह तरह की स्थितियां क्यों उत्पन्न हुई, अब ये बड़ा सवाल खड़ा हो रहा है. राज्य में पिछले दो वर्षों के दौरान सुरक्षाबलों पर माओवादियों का यह सबसे बड़ा हमला है. दंतेवाड़ा समेत सात जिलों में शामिल बस्तर क्षेत्र में सुरक्षा बलों पर मार्च और जून माह के बीच बड़ी संख्या में हमले हुए हैं. मार्च से जून ऐसा समय होता है, जब नक्सली टैक्टिकल काउंटर अफेंसिव कैंपेन चलाते हैं.
क्यों प्रोटोकॉल तोड़ की गई मुख्य सड़क से जाने की चूक?
दंतेवाड़ा नक्सली हमले के बाद कई सवाल खड़े हो रहा है. एक सवाल ये उठ रहा है कि क्या 10 जवानों की जान बचाई जा सकती थी, क्या प्रोटोकॉल तोड़ हुआ था मूवमेंट? पुलिस अधिकारियों के मुताबिक नक्सल विरोधी अभियान में शामिल होने के बाद दस जवान एक मल्टी यूटिलिटी व्हीकल से दंतेवाड़ा लौट रहे थे. जब वे अरनपुर और समेली गांव के बीच थे, तभी नक्सलियों ने बारूदी सुरंग में विस्फोट कर दिया. जिस सड़क पर ये बारूदी विस्फोट किया गया, वहां माना जाता है कि कई और भी जिंदा बारूदी सुरंग हैं, जो नक्सलियों की जानकारी में हैं. इसे उन्होंने प्लांट भी कर रखा है. एनडीटीवी संवाददाता विकास तिवारी ने बताया कि बस्तर के अंदरूनी इलाकों में सुरक्षाकर्मियों के मूवमेंट पर कुछ प्रोटोकॉल होते हैं. सुरक्षाकर्मियों को सख्त निर्देश हैं कि जब भी वह सर्च ऑपरेशन पर निकलें, तो मुख्य सड़क की बजाए, जंगल के अंदर पगडंडियों से होकर गुजरें. पैदल चलें, वाहनों में जा रहे हैं, तो उनके बीच उचित दूरी बनाकर चलना है. चार पहिया वाहन का इस्तेमाल नहीं करना है. इसके बावजूद अरनपुर के जिस रास्ते से सुरक्षाकर्मी गुजर रहे थे, उस दौरान वे बहुत निश्चिंत थे, तीन-चार की संख्या में चार पहिया वाहनों में थे, वे एक मुठभेड़ को अंजाम देकर वापस लौट रहे थे. आखिर, प्रतिबंध होने के बावजूद कैसे जवानों को चार पहिया वाहन में जाने की इजाजत दी गई? अगर जवान चार पहिया वाहन में नहीं होते, यकीनन ब्लास्ट के बावजूद इतनी बड़ी संख्या में जवानों की शहादत नहीं होती.
दंतेवाड़ा हमला: पक्की सड़क के नीचे कैसे छिपाया विस्फोटक?
सवाल उठ रहा है कि 40 किलो विस्फोटक लेकर कैसे दंतेवाड़ा में नक्सली घूम रहे थे? ये बड़ी जांच का विषय है कि नक्सली इतना बारूद कहां से लेकर आए. जांच का विषय ये भी है कि नवनिर्मित सड़क के नीचे इतनी बड़ी बारूदी सुरंग थी, उसका पता कैसे नहीं चल पाया. क्या प्रशासन के पास कोई ऐसी तकनीक नहीं है, जो ये जांच सके कि कहां बारूदी सुरंग बिछी है. इन सड़कों पर सालों पहले बिछाई गई बारूदी सुरंगे भी हैं, जिनका पता लगाना भविष्य में ऐसे हमलों को विफल करने के लिए बेहद जरूरी है. इतनी भारी मात्रा में विस्फोटक किसी बॉर्डर से ही आया होगा. क्या ये खुफिया तंत्र की विफलता नहीं है? ये विफलता जिस-जिस स्तर पर हुई है, उन सभी से सवाल होने चाहिए. इस पर एनडीटीवी संवाददाता ने कहा कि अगर इतनी बड़ी मात्रा में विस्फोट नक्सलियों तक पहुंचा है, तो कहीं न कहीं खुफिया तंज की विफलता है. इसमें कई सफेदपोश भी शामिल हो सकते हैं. कई बार बस्तर में ऐसे लोगों की गिरफ्तारियां होती रही हैं, जो शहरी नेटवर्क और अर्बन नक्सल को सपोर्ट करते हैं. बस्तर के आईजी ने बताया कि नक्सलियों ने 40 से 45 किलो विस्फोटक के साथ इतने बड़े हमले को अंजाम दिया है. दरअसल, राज्य में कई खदानों के लिए इस्तेमाल होने वाला बारूद भी कई बार नक्सलियों तक पहुंच जाता है. कई बार इसमें सुरक्षकर्मी भी शामिल पाए गए हैं. वहीं, बस्तर के अंदरूनी इलाकों में काम करने वाले ठेकेदार भी नक्सलियों की मदद करते हैं, इसके सबूत भी पुलिस के पास मौजूद हैं. हालांकि, इस पर कोई ऐसी बड़ी कार्रवाई नहीं होती, जिससे ये नेटवर्क ध्वस्त हो और माओवादियों तक हथियार न पहुंचे.
दंतेवाड़ा हमला: इस सड़क के लिए कई जवानों ने दी थी शहादत
हमले का तेंदूपत्ता कनेक्शन भी सामने आ रहा है. दरअसल, छत्तीसगढ़ में अप्रैल महीने में तेंदूपत्ता संग्रहण का कार्य होता है. ऐसे में नक्सली बड़ी घटनाओं को अंजाम देकर दहशत फैलाते हैं, ताकि स्थानीय ठेकेदारों से वह पैसा वसूल सकें. इस हमले की वजह वो सड़क भी बताई जा रही है, जहां विस्फोट किया गया. दरअसल, नक्सलियों ने जिस सड़क पर बारूदी सुरंग बनाई वो दंतेवाड़ा से सुकमा को जगरगुंडा इलाको को जोड़ती है. नक्सलियों के बढ़ते हमलों के कारण इस सड़क को बंद कर दिया गया था. इसके बाद इस सड़क को फिर से आवागमन के लिए शुरू करना एक बड़ी चुनौती थी. इस बीच प्रशासन ने इस सड़के पर यात्री बस को चलाने का फैसला किया. इसे सरकार की बड़ी जीत बताया जा रहा था. लेकिन नक्सलियों ने इसी सड़क पर सीआरपीएफ कैंप के बहुत पास इस बड़ी घटना को अंजाम देकर अपनी ताकत दिखाने की कोशिश की है.इस सड़क को बनाने में कई जवानों ने शहादत भी दी थी. इससे पहले भी सैंकड़ों की संख्या में बारूदी सुंरग निकाली जा चुकी हैं और आईईडी बम को डिफ्यूज भी किया गया है. ये जो अरनपुर का इलाका है, जहां से कुछ ही दूरी पर सीआरपीएफ का कैंप है और थाना भी शुरू हो गया है. ऐसा माना जाता है कि ये इलाका माओवादियों की गिरफ्त से पूरी तरह से आजाद हो गया है. ऐसे में इस इलाके में नक्सलियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करा के कहीं न कहीं ये संदेश देने की कोशिश की है कि वे अभी वे जिंदा हैं. ये सरकार को नक्सलियों की चुनौती माना जा रहा है. ऐसे में ये कहना कि नक्सली कमजोर हो रहे हैं, जल्दबाजी होगा.
नक्सली हमलों का खूनी इतिहास
- तीन अप्रैल 2021 में सुकमा और बीजापुर जिलों की सीमा पर नक्सलियों ने घात लगाकर हमला किया था. इस हमले में 22 जवान शहीद हुए थे.
- 21 मार्च, 2020 को सुकमा के मिनपा इलाके में नक्सली हमले में 17 सुरक्षाकर्मी शहीद हो गए थे.
- 9 अप्रैल, 2019 को दंतेवाड़ा जिले में एक नक्सली विस्फोट में भाजपा विधायक भीमा मंडावी और चार सुरक्षाकर्मी मारे गए थे.
- फरवरी 2018 में सुकमा जिले में नक्सलियों के साथ गोलीबारी में छत्तीसगढ़ के दो पुलिसकर्मियों की जान गई.
- मार्च 2018 में सुकमा जिले में माओवादियों के आईईडी धमाके में सीआरपीएफ के नौ जवाब शहीद हो गए थे.
- सुकमा में 24 अप्रैल, 2017 को बुरकापाल हमले में सीआरपीएफ के 24 जवानों की मृत्यु हुई थी.
- 12 मार्च 2017 को ही सुकमा जिले में माओवादी हमले में 12 जवानों की शहादत हुई.
- 11 मार्च 2014 में सुकमा जिले में माओवादी हमले में 15 सुरक्षाकर्मियों की मौत हुई.
- 28 फरवरी 2014 में दंतेवाड़ा जिले में माओवादियों के हमले में 6 पुलिस अफसरों की मौत हुई.
- 25 मई 2013 में दरभा घाटी में माओवादी हमले में पूर्व मंत्रियों में समेत कांग्रेस पार्टी के 25 नेताओं की मृत्यु हुई.
- 29 जून 2010 में छत्तीसगढ़ के ही नारायणपुर जिले में माओवादियों के घात लगातर किए गए हमले में सीआरपीएम के 26 जवानों की शहादत हुई थी.
- 8 मई 2010 को बीजपुर जिले में नक्सली हमले में 8 सीआरपीएफ जवानों की मौत हुई.
- 6 अप्रैल 2010 में दंतेवाड़ा जिले में माओवादी हमले में सीआरपीएफ के 75 जवान शहीद हो गए थे.
- 4 सितंबर 2009 में मायोवादियों ने बीजापुर जिले में 4 गांववालों को मारा.
- 27 जुलाई 2009 को दंतेवाड़ा में बारूदी सुरंग के फटने से 6 लोगों की मौत हुई.
नक्सली हमले दावा Vs डेटा
- वर्ष 2018 में 55 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए, 98 नागरिकों की मौत हुई और 125 नक्सलियों को ढेर किया गया.
- वर्ष 2019 में 22 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए, 55 नागरिकों की मौत हुई और 79 नक्सलियों को ढेर किया गया.
- वर्ष 2020 में 36 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए, 75 नागरिकों की मौत हुई और 44 नक्सलियों को ढेर किया गया.
- वर्ष 2021 में 45 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए, 56 नागरिकों की मौत हुई और 38 नक्सलियों को ढेर किया गया.
- वर्ष 2022 में 10 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए, 51 नागरिकों की मौत हुई और 41 नक्सलियों को ढेर किया गया.
- वर्ष 2023(23 फरवरी 2023 तक ) में 7 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए, 10 नागरिकों की मौत हुई और 01 नक्सलियों को ढेर किया गया.
इस तरह से देखें, तो नक्सली हमले कम तो हुए हैं, लेकिन रुके नहीं हैं. अगर कहीं एक भी जान जाती है, तो वह बड़ी बात है. ऐसे में दावे तो किये जा रहे हैं कि अगले साल तक नक्सवाद पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा, लेकिन क्या ऐसा होता नजर आ रहा है? हालिया, नक्सली हमले को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि सरकार को दावे करने की बजाय जमीन पर काम करना चाहिए.
सीआरपीएफ के रिटायर आईजीपी एमपी नैथेनेअल कहते हैं कि नक्सली हमलों को रोकने के लिए ये जरूरी है कि सुरक्षाकर्मियों के ऑपरेशनों को गुप्त रखा जाए. नक्सलियों को जब सुरक्षाकर्मियों के मूवमेंट की जानकारी मिल जाती है, तो वे उसका फायदा उठाते हैं. हालिया हमले में भी यही देखने को मिला है, तभी नक्सलियों ने घात लगाकर हमला किया. नक्सलियों को पहले से पता था कि सुरक्षाकर्मी इसी रास्ते से गुजरेंगे.
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