नई दिल्ली:
उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने किशोर न्याय कानून में किशोर को परिभाषित करने वाले उस प्रावधान की संवैधानिकता पर विचार करने का सोमवार को निश्चय किया जिसमें 18 वर्ष की आयु तक व्यक्ति को नाबालिग माना गया है।
न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की खंडपीठ ने किशोर न्याय (बच्चे की देखभाल और संरक्षण) कानून में किशोर की परिभाषा निरस्त करने के लिए वकील कमल कुमार पांडे और सुकुमार की जनहित याचिका पर विचार करने का निश्चय किया। न्यायाधीशों ने इसके साथ ही अटॉर्नी जनरल गुलाम वाहनवती से इस मामले में न्यायालय की मदद करने का अनुरोध किया है।
दोनों वकीलों ने इस याचिका में तर्क दिया है इस कानून की धारा 2(के), 10 और धारा 17 तर्कहीन और संविधान के प्रावधानों के खिलाफ है।
याचिकाकर्ताओं के वकील ने कहा कि इस कानून में प्रदत्त किशोर की परिभाषा कानून के प्रतिकूल है। वकील ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 82 और 83 में किशोर की परिभाषा में अधिक बेहतर वर्गीकरण है। धारा 82 के अनुसार सात साल से कम आयु के किसी बालक द्वारा किया गया कृत्य अपराध नहीं है जबकि धारा 83 के अनुसार सात साल से अधिक और 12 साल से कम आयु के ऐसे बच्चे द्वारा किया गया कोई भी कृत्य अपराध नहीं है जो किसी कृत्य को समझने या अपने आचरण के स्वरूप तथा परिणाम समझने के लिए परिपक्व नहीं हुआ है।
दिल्ली में पिछले साल 16 दिसंबर को 23 साल की लड़की से सामूहिक बलात्कार की घटना में शामिल छह आरोपियों में से एक के नाबालिग होने की बात सामने आने के बाद से किशोर न्याय कानून के तहत किशोर की आयु का मामला चर्चा में है। इस घृणित वारदात की शिकार लड़की की बाद में सिंगापुर के अस्पताल में मृत्यु हो गई थी।
न्यायाधीशों ने जनहित याचिका पर 3 अप्रैल को सुनवाई करने का निश्चय करते हुए अटॉर्नी जनरल को हलफनामा और इस मुद्दे से जुड़ी रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया है। न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘हम इस मसले पर विचार करेंगे। यह मसला आयु निर्धारण से संबंधित है और यह कानून से जुड़ा सवाल है।’’
अटॉर्नी जनरल ने कहा कि न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति की रिपोर्ट में सभी मुद्दों पर विचार किया है और केन्द्र इस मामले मे न्यायालय की मदद करेगा।
गुलाम वाहनवती ने कहा कि राज्य सरकारों से भी इस मामले में सहयोग का आग्रह किया जा सकता है। कई गैरसरकारी संगठन भी इस मामले में सक्रिय हैं। लेकिन, न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘राज्यों की इसमें कोई भूमिका नहीं हैं और हम गैरसरकारी संगठनों की बात पर कान नहीं देंगे।’’
न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की खंडपीठ ने किशोर न्याय (बच्चे की देखभाल और संरक्षण) कानून में किशोर की परिभाषा निरस्त करने के लिए वकील कमल कुमार पांडे और सुकुमार की जनहित याचिका पर विचार करने का निश्चय किया। न्यायाधीशों ने इसके साथ ही अटॉर्नी जनरल गुलाम वाहनवती से इस मामले में न्यायालय की मदद करने का अनुरोध किया है।
दोनों वकीलों ने इस याचिका में तर्क दिया है इस कानून की धारा 2(के), 10 और धारा 17 तर्कहीन और संविधान के प्रावधानों के खिलाफ है।
याचिकाकर्ताओं के वकील ने कहा कि इस कानून में प्रदत्त किशोर की परिभाषा कानून के प्रतिकूल है। वकील ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 82 और 83 में किशोर की परिभाषा में अधिक बेहतर वर्गीकरण है। धारा 82 के अनुसार सात साल से कम आयु के किसी बालक द्वारा किया गया कृत्य अपराध नहीं है जबकि धारा 83 के अनुसार सात साल से अधिक और 12 साल से कम आयु के ऐसे बच्चे द्वारा किया गया कोई भी कृत्य अपराध नहीं है जो किसी कृत्य को समझने या अपने आचरण के स्वरूप तथा परिणाम समझने के लिए परिपक्व नहीं हुआ है।
दिल्ली में पिछले साल 16 दिसंबर को 23 साल की लड़की से सामूहिक बलात्कार की घटना में शामिल छह आरोपियों में से एक के नाबालिग होने की बात सामने आने के बाद से किशोर न्याय कानून के तहत किशोर की आयु का मामला चर्चा में है। इस घृणित वारदात की शिकार लड़की की बाद में सिंगापुर के अस्पताल में मृत्यु हो गई थी।
न्यायाधीशों ने जनहित याचिका पर 3 अप्रैल को सुनवाई करने का निश्चय करते हुए अटॉर्नी जनरल को हलफनामा और इस मुद्दे से जुड़ी रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया है। न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘हम इस मसले पर विचार करेंगे। यह मसला आयु निर्धारण से संबंधित है और यह कानून से जुड़ा सवाल है।’’
अटॉर्नी जनरल ने कहा कि न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति की रिपोर्ट में सभी मुद्दों पर विचार किया है और केन्द्र इस मामले मे न्यायालय की मदद करेगा।
गुलाम वाहनवती ने कहा कि राज्य सरकारों से भी इस मामले में सहयोग का आग्रह किया जा सकता है। कई गैरसरकारी संगठन भी इस मामले में सक्रिय हैं। लेकिन, न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘राज्यों की इसमें कोई भूमिका नहीं हैं और हम गैरसरकारी संगठनों की बात पर कान नहीं देंगे।’’
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