बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार 17 वर्षों से अधिक के अपने शासन काल में वर्तमान पुलिस महानिदेशक (DGP) एस के सिंघल के कारण सबसे अधिक फ़ज़ीहत झेल रहे हैं. आज़ादी के बाद राज्य के इतिहास में पहली बार एक दिन में एक नहीं, दो-दो आईपीएस अधिकारियों को भ्रष्टाचार के आरोप में निलंबित करने के आदेश निकले हैं. अब सवाल उठ रहे हैं कि इस सच से भली भाँति परिचित होते हुए भी कि उनकी परेशानियों के जड़ में डीजीपी सिंघल हैं, आख़िर किन मजबूरियों के कारण सिंघल के ख़िलाफ़ कारवाई करने में नीतीश कुमार के हाथ पैर फूल रहे हैं?
सबसे पहले ये समझना ज़रूरी है कि नीतीश कुमार के लिए सिंघल प्रशासनिक और राजनीतिक रूप से आलोचना का एक मुख्य कारण कैसे बनते जा रहे हैं ? सिंघल पहले डीजीपी हैं, जो नीतीश कुमार को गंभीरता से नहीं लेते, क्योंकि नीतीश कुमार द्वारा सार्वजनिक मंच से जनता और मीडिया के फ़ोन का जवाब देने की नसीहत देने के बावजूद उन्होंने उसे ताक पर रखा हुआ है. डीजीपी को इस बात की कोई परवाह नहीं है कि मीडिया के लोग बार-बार फ़ोन कर रहे. इसके अलावा जिस शराबबंदी के कारण नीतीश कुमार की फ़ज़ीहत कोर्ट से लेकर जनता के बीच होती है, उसको सख़्ती से लागू कराना तो दूर सिंघल के समय में शराब माफ़िया का विस्तार और विकास दिन दोगुना, रात चौगुना हुआ है. ऐसा नीतीश कुमार के कट्टर समर्थक भी मानते हैं.
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नीतीश कुमार को आज जिस नक़ली मुख्य न्यायाधीश बनकर फोन करने वाले अभिषेक अग्रवाल (तीन बार जेल जा चुका फ्रॉड) और शराब माफिया से साँठ गाँठ का आरोप झेल रहे गया के पूर्व एसपी आदित्य कुमार प्रकरण के कारण सबसे अधिक शर्मिंदगी उठानी पड़ रह रही है, उससे ये बात साफ़ है कि सिंघल ने बिना किसी को बताए हुए आदित्य कुमार को ना केवल बरी किया, बल्कि उसे एक अच्छी जगह पोस्टिंग देने के अलावा और काफ़ी आगे बढ़ चुके थे. इस प्रकरण का दूसरा पहलू यह है कि आदित्य को बचाने के क्रम में एक और आईपीएस अधिकारी अमित लोढ़ा, जिनके ख़िलाफ भी कई अधिकारियों ने अलग-अलग जाँच में उन्हें दोषी पाया है, उस जाँच की भी धीमी गति डीजीपी के हस्तक्षेप के कारण हुई. इसमें नीतीश के मातहत काम करने वाले गृह विभाग के अधिकारियों ने भी नीतीश कुमार के जाँच के आदेश के बावजूद जमकर आरोपी अधिकारियों के पक्ष में काम किया. कमोबेश पुलिस मुख्यालय से गृह विभाग के अधिकारियों में नीतीश कुमार के भ्रष्टाचार की शिकायत के बाद जाँच को ग़लत साबित करने की एक मौन सहमति बनी हुई थी.
अब तो विपक्ष भी इस मुद्दे पर जगा है और बृहस्पतिवार को पूर्व उप मुख्य मंत्री सुशील कुमार मोदी ने बयान जारी कर कहा कि इस मामले की सीबीआई जाँच होनी चाहिए. सुशील कुमार मोदी ने कहा कि गया में शराब बरामद होने से लेकर वहां के तत्कालीन एसपी के ट्रांसफर और FIR से दोषमुक्त करने तक पूरे मामले में फर्जी कॉल के आधार पर फैसले करने वाले डीजीपी एसके सिंघल की भूमिका संदेह के घेरे में है. इस मामले की जांच सीबीआई या किसी अन्य सक्षम एजेंसी से करायी जानी चाहिए.
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सुशील मोदी ने कहा कि जब एसपी स्तर के अधिकारी को बचाने और लाभ पहुंचाने का संदेह डीजीपी पर है, तो उनके नीचे काम करने वाली आर्थिक अपराध इकाई (ईओयू) निष्पक्ष जांच नहीं कर सकती. उन्होंने कहा कि डीजीपी सिंघल पिछले अगस्त महीने से उस व्यक्ति से दर्जनों बार बात कर रहे थे, उसकी पैरवी को गंभीरता से ले रहे थे, जो स्वयं को हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बता रहा था, लेकिन उन्होंने फोन करने वाले की सत्यता जांचने की कोशिश क्यों नहीं की?
मोदी ने कहा कि इस मामले में कई सवाल उठते हैं, जैसे-
- कई बार फोन पर बातें करने के बावजूद डीजीपी ने सीधे मिल कर हकीकत जानने की कोशिश क्यों नहीं की?
- यदि फोन कॉल फर्जी नहीं, असली मुख्य न्यायाधीश का ही होता, तब भी क्या शराब पकड़े जाने के मामले में एसपी स्तर के अधिकारी को फोन-पैरवी के आधार पर राहत दी जानी चाहिए थी. खास कर तब, जब शराब के मामले में 4 लाख लोग जेल जा चुके हों?
- जिस एसपी पर FIR किया गया था, उसे दोषमुक्त करने के लिए किसके दबाव में जांच अधिकारी को छुट्टी के दौरान चेन्नई से बुलाकर क्लोजर रिपोर्ट बनवायी गई?
- गया से ट्रांसफर के बाद एसपी को डीजीपी कार्यालय में एआइजी (क्यू) क्यों बना दिया गया ?
- डीजीपी ने पूर्व गया एसपी के विरुद्ध विभागीय जांच बंद करने के और पूर्णिया में पोस्टिंग के लिए संचिका क्यों बढ़ाई?
सुशील मोदी ने कहा कि ऐसे गंभीर सवालों का जवाब सीबीआई ही ढूंढ सकती है.
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