
- बिहार चुनाव से पहले चिराग पासवान ने भाजपा से रिश्तों में दबाव की राजनीति शुरू कर दी है.
- वह NDA का हिस्सा भी हैं और नीतीश सरकार की आलोचना करके विपक्ष जैसा रोल भी निभा रहे हैं.
- चिराग सिर्फ प्रतीकात्मक हिस्सेदारी नहीं, निर्णायक उपस्थिति चाहते हैं. उनकी उम्मीदें और भी हैं.
बिहार की राजनीति इन दिनों फिर से उबाल पर है. विधानसभा चुनाव 2025 की आहट तेज हो चुकी है और हर दल अपनी-अपनी रणनीति को धार दे रहा है. इस बीच लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान लगातार सुर्खियों में हैं. उन्होंने एक ओर जहां नीतीश कुमार की कानून-व्यवस्था पर खुलेआम सवाल उठाए हैं, वहीं भाजपा के साथ अपने रिश्तों में भी दबाव की राजनीति शुरू कर दी है.
गठबंधन के लिए दोधारी तलवार?
चिराग पासवान ने हाल के महीनों में जिस तरह से बिहार की कानून-व्यवस्था को “ध्वस्त” बताया और हत्या के कई मामलों को राज्य सरकार की नाकामी से जोड़ा, उसने जेडीयू और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) जैसे सहयोगियों को सीधे-सीधे असहज किया. चिराग के इन बयानों को भाजपा ने भी खुलकर समर्थन नहीं दिया, बल्कि “संयमित प्रतिक्रिया” देना ही बेहतर समझा. देखा जाए तो पासवान की राजनीति गठबंधन के लिए दोधारी तलवार बन चुकी है. वह NDA का हिस्सा भी हैं और NDA सरकार की आलोचना करके विपक्ष जैसा रोल भी निभा रहे हैं.

चिराग भाजपा की मजबूरी!
भाजपा के सामने चुनौती यह है कि रामविलास पासवान की विरासत अब पूरी तरह चिराग के पास है. दलित वोट बैंक खासकर पासवान (दलित) समुदाय बिहार में निर्णायक भूमिका निभाता है. भाजपा जानती है कि अगर यह वोटबैंक उसके साथ रहा तो चुनावी अंकगणित उसके पक्ष में जाएगा. लेकिन चिराग का अंदाज “एकला चलो” वाला है. 2020 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अकेले मैदान में उतरकर जेडीयू को भारी नुकसान और भाजपा को परोक्ष रूप से फायदा पहुंचाया था. इस बार भी वह यही संकेत दे रहे हैं कि अगर उनकी शर्तें पूरी नहीं हुईं, तो वे NDA को कठघरे में खड़ा कर सकते हैं. चिराग पासवान की राजनीति में यह साफ दिख रहा है कि वह भाजपा से बड़े सौदे की ओर बढ़ रहे हैं.
सौदेबाजी में क्या चाहते हैं चिराग?
- चिराग चाहेंगे कि बिहार चुनाव में उनकी पार्टी को सम्मानजनक संख्या में सीटें मिलें. वह इस बार सिर्फ “प्रतीकात्मक” हिस्सेदारी नहीं बल्कि निर्णायक उपस्थिति चाहते हैं.
- चिराग पासवान पहले ही मोदी सरकार में मंत्री हैं. वह आने वाले समय में और महत्वपूर्ण मंत्रालय की मांग कर सकते हैं ताकि पार्टी की राष्ट्रीय पहचान बने.
- भाजपा के लिए चिराग को “दलित चेहरे” के रूप में आगे लाना एक मजबूरी बन गई है. चिराग इस स्थिति को भुनाकर भाजपा से ज्यादा स्पेस ले सकते हैं.
- चिराग ने भले ही खुलकर दावा न किया हो, लेकिन “बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट” जैसे अभियानों के जरिए वह खुद को संभावित मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर पेश कर रहे हैं.
- भाजपा भले ही नीतीश कुमार को फिलहाल बनाए रखे, लेकिन चिराग यह संकेत देना चाहते हैं कि अगली पीढ़ी के नेता के तौर पर उनका विकल्प मजबूत है.

चौपाल और बिहारी रणनीति
एलजेपी (रामविलास) ने हाल ही में ‘चिराग का चौपाल' नाम से जनसंपर्क अभियान की घोषणा की है. इसमें चिराग गांव-गांव जाकर जनता की राय सुनेंगे और उसे पार्टी के एजेंडे से जोड़ेंगे. इसी तरह उनका पुराना विजन डॉक्युमेंट ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट' भी फिर से चर्चा में है. ये अभियान दबाव बनाने की रणनीति भी हैं. असल में चिराग यह दिखाना चाहते हैं कि वे सिर्फ सहयोगी पार्टी के नेता नहीं, बल्कि स्वतंत्र जनाधार वाले खिलाड़ी हैं.
भाजपा का धर्मसंकट
नीतीश कुमार और जेडीयू पहले से ही भाजपा के साथ रिश्तों में सावधानी बरत रहे हैं. ऐसे में चिराग के हमले गठबंधन की राजनीति को और पेचीदा बना देते हैं. भाजपा के लिए सबसे कठिन सवाल यह है कि क्या वह चिराग की महत्वाकांक्षाओं को संतुलित कर पाएगी? अगर भाजपा चिराग की मांगों को मान लेती है तो जेडीयू असहज होगा. अगर भाजपा अनदेखी करती है तो दलित वोटबैंक खिसक सकता है. इस तरह चिराग पासवान ने खुद को भाजपा के लिए ‘अनिवार्य मगर असहज साझेदार' बना दिया है.
चिराग पासवान की रणनीति साफ है. वह भाजपा से अधिक सीटें और बड़ा रोल चाहते हैं. दलित राजनीति के निर्विवाद नेता बनना चाहते हैं और अंततः खुद को बिहार के भविष्य के मुख्यमंत्री विकल्प के रूप में पेश करना चाहते हैं. इसलिए कहा जा सकता है कि चिराग ने भाजपा के साथ रिश्तों में बार्गेनिंग पावर हासिल कर ली है. वह NDA में रहते हुए भी NDA के लिए एक तरह से चुनौती बन गए हैं.
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