गुवाहाटी हाईकोर्ट (Gauhati High Court) ने फैसला सुनाते हुए कहा कि करदाताओं द्वारा वित्त पोषित मदरसे अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित और प्रशासित अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हैं. साथ ही कोर्ट ने ऐसे मदरसों को स्कूलों में बदलने के लिए लाए गए नए कानून के खिलाफ एक याचिका को खारिज कर दिया. मुख्य न्यायाधीश सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति सौमित्र सैकिया ने कहा कि राज्य की विधायी और कार्यकारी कार्यवाही के जरिये किया गया परिवर्तन सिर्फ 'प्रांतीय' मदरसों के लिए है, जो सरकारी स्कूल हैं, न कि निजी या सामुदायिक मदरसों के लिए.
अदालत ने पिछले साल 13 लोगों द्वारा दायर असम निरसन विधेयक-2020 की वैधता को चुनौती देने वाली एक रिट याचिका को खारिज करते हुए कहा, "हमारे जैसे बहु-धार्मिक समाज में किसी एक धर्म को राज्य द्वारा दी गई वरीयता, भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के सिद्धांत को खारिज करती है. यह राज्य की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति है जिसके लिए अनिवार्य है कि पूरी तरह से राज्य के धन से बनाए गए किसी भी शैक्षणिक संस्थान में कोई भी धार्मिक निर्देश नहीं दिया जाएगा."
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इस मामले में अदालत ने 27 जनवरी को सुनवाई पूरी की थी और अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था, जिसे शुक्रवार को सुनाया गया.
साथ ही इस ओर भी ध्यान दिलाया गया कि इन मदरसों के शिक्षकों की सेवाओं को समाप्त नहीं किया गया है और यदि आवश्यक होगी तो उन्हें अन्य विषयों को पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा.
असम विधानसभा ने 30 दिसंबर, 2020 को कानून पारित किया गया था और सभी सरकारी वित्त पोषित मदरसों को सामान्य स्कूलों में बदलने का आह्वान किया गया था.
राज्य सरकार ने आश्वासन दिया है कि असम निरसन विधेयक-2020 के तहत मदरसों के शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों की स्थिति, वेतन, भत्ते और सेवा शर्तों में कोई बदलाव नहीं किया जाएगा.
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