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This Article is From Dec 18, 2018

अगर राजीव गांधी सरकार ने मान ली होती चंद्रशेखर की यह बात, तो रुक सकते थे 1984 के दंगे

चंद्रशेखर (जो बाद में देश के प्रधानमंत्री बने) और गांधी जी के पोते राजमोहन गांधी खुद तत्कालीन गृह मंत्री के घर व्यक्तिगत तौर पर मदद मांगने के लिए गए.

अगर राजीव गांधी सरकार ने मान ली होती चंद्रशेखर की यह बात, तो रुक सकते थे 1984 के दंगे
चंद्रशेखर (Chandra Shekhar) ने 1984 के दंगों को रोकने के लिए सेना बुलाने की मांग की और खुद गृहमंत्री के घर गए.
नई दिल्ली:

31 अक्टूबर 1984. उस दिन 1 सफदरजंग रोड यानी प्रधानमंत्री आवास में अच्छी खासी चहल-पहल थी. गुलाबी ठंडक दिल्ली में दस्तक दे चुकी थी. सुबह के करीब 9 बज रहे थे और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) अपने घर से जनता दरबार के लिए निकलीं. अचानक उनकी निगाह एक वेटर पर पड़ी, जो चाय लिए हुए जा रहा था. इंदिरा गांधी कुछ सेकंड के लिए ठहर गईं. उन्होंने क्रॉकरी पर नजर डाली और वेटर को टी-पॉट बदलने का निर्देश दिया. इसके बाद जैसे ही वे आगे बढ़ीं, उनके दो सिख अंगरक्षकों, बेअंत सिंह और सतवंत सिंह ने गोलियां चला दी. कोई कुछ समझ पाता इससे पहले ही इंदिरा गांधी जमीन पर निढाल हो गईं. आनन-फानन में उन्हें एम्स ले जाया गया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. इंदिरा गांधी की हत्या की खबर जैसे ही बाहर आई एम्स के बाहर भीड़ जुटनी शुरू हो गई. लोग गुस्से में थे और "खून का बदला खून से लेंगे" जैसे नारे लगा रहे थे.

पूर्व पीएम चंद्रशेखर पहुंचे मदद मांगने
दिल्ली में दंगा भड़क उठा. जगह-जगह से सिखों के कत्लेआम की खबर आने लगी. सिखों के घर जलाए जा रहे थे और उनके सामान लूटे जा रहे रहे थे. दिल्ली अब वैसी नहीं थी जैसी 3 दिन पहले तक दिखती थी. हवा में अधजली लाशों की बदबू और धुएं का गुबार था. इन सबके बीच आरोप लगा कि पुलिस और प्रशासन दंगाइयों को बढ़ावा दे रहा है. पीड़ितों के केस दर्ज नहीं किए जा रहे हैं. जब दंगा शुरू हुआ तो इंदिरा गांधी की हत्या के तुरंत बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) के करीबी मित्रों और विपक्षी दलों के नेताओं ने उनसे हस्तक्षेप की मांग की, लेकिन कुछ खास हासिल नहीं हुआ. 

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नवंबर के शुरुआती 3 दिनों तक दिल्ली में ऐसे हालात थे, जो बंटवारे के दौरान फैली हिंसा की याद दिला रहे थे. दिल्ली के अंदरूनी इलाकों से कत्लो-गारत की डरावनी कहानियां सामने आ रही थीं. 1984 के दंगों की आंच करीब से महसूस करने वाली विख्यात पत्रकार तवलीन सिंह अपनी किताब "दरबार" में लिखती हैं, 'जब पुलिस प्रशासन लोगों को सुरक्षा देने में नाकाम रहा और कोई कदम नहीं उठाए गए तब चंद्रशेखर, Chandra Shekhar  (जो बाद में देश के प्रधानमंत्री बने) और गांधी जी के पोते राजमोहन गांधी खुद तत्कालीन गृह मंत्री के घर व्यक्तिगत तौर पर मदद मांगने के लिए गए. उन्होंने गृह मंत्री से मांग की कि दंगा रोकने और लोगों की सुरक्षा के लिए सेना बुलाई जाए, लेकिन सरकार ने कुछ नहीं किया'. 

दंगा कब रुकेगा, यह तो उपर बैठे लोग ही जानें
1984 के दंगों में दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में सबसे ज्यादा कत्लेआम हुआ. तवलीन सिंह उस घटना को याद करते हुए लिखती हैं, 'जब मैं कुछ पत्रकार साथियों के साथ त्रिलोकपुरी पहुंची तो देखा कि एकदम सन्नाटा पसरा हुआ है. कार के दरवाजे और सीसे खुले हुए हैं. हर तरफ लाशों की बदबू फैली हुई है. कुत्ते शवों को नोच रहे हैं. वह आगे लिखती हैं, " मेरी नजर एक पुलिस वाले पर पड़ी और मैंने उससे पूछा... यहां से लाशों को हटाया क्यों नहीं जा रहा है तो उसने कहा कि हम नहीं हटा सकते. इन्हें यहीं जलाएंगे. बाकी पीड़ितों को कहां ले जाया गया है, मैंने पूछा... उसने कहा कि महिलाएं और बच्चों को कैंप में ले जाया गया है और कुछ लोग गुरुद्वारों में शरण लिए हुए हैं. मैंने आगे पूछा... क्या अभी और हिंसा हो सकती है?... उसने हंसते हुए जवाब दिया कौन जानता है...यह तो ऊपर बैठे हुए लोग ही जानें'.  

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