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This Article is From Apr 06, 2015

सूचना के अधिकार कानून के 20 साल : आधी हकीकत, आधा फ़साना

जयपुर से 120 किलोमीटर दूर ब्यावर शहर में एक अनूठे कार्यक्रम में पूरे राजस्थान से लोग इक्कठा हुए हैं। यहां सबके होटों पर एक गीत है, जिसके बोल कुछ ऐसे हैं...

'मेरी भूख को यह जानने का हक़ रे
क्यों गोदामों में सड़ते हैं दाने
मुझे मुट्ठी भर अनाज नहीं...
मेरी बूढ़ी मां को जानने का हक़ रे
क्यों गोली नहीं, सूई दवाखाने,
पट्टी टांके का सामान नहीं?"


यह गीत सूचना के अधिकार अभियान के मांगों की है। यह कहानी राजस्थान के ब्यावर से शुरू हुई थी। साल 1996 में यहां 44 दिन के धरने के बाद सूचना का अधिकार एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन बना। इस में एक नारा था 'हमारा पैसा, हमारा हिसाब' यानी सरकार से यह मांग कि लोग जान सके कि उनका पैसा कैसे और किन कामों में खर्च हो रहा था, ताकि भ्रष्टाचार पर लगाम लग सके।

इस आंदोलन की शुरुआत की याद ताज़ा करते हुए समाज सेविका अरुणा रॉय ने एनडीटीवी को बताया, 'हम ब्यावर में धरने पर बैठे यह सोच कर की हम सूचना का अधिकार लेकर ही जाएंगे, यहां से नहीं उठेंगे तो ब्यावर से ही शुरुआत हुई और फिर यह आंदोलन देश भर में फैला। इसके बाद हमारे साथ 400 संगठन और हज़ारों लोग जुड़े।'

आखिरकार साल 2005 में सूचना का अधिकार एक क़ानून बना और इससे जुड़े लोग कहते हैं इस क़ानून ने उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की ताक़त दी।

केसर सिंह ऐसे ही एक आरटीआई कार्यकर्ता हैं। उन्होंने कहा, 'अगर सरकारी रिकॉर्ड खंगालें, तो इतना भ्रष्टाचार मिलता है कि जहां ट्रेक्टर का पेमेंट होना है, वहां बैल गाड़ी या ऊंट खड़ा मिलता है। कागज़ों में पेमेंट है ही नहीं। कहीं-कहीं तो सरपंच मनेरगा में मृत लोगों के नाम से पेमेंट उठा लेते थे। लेकिन जब लोग सूचना के अधिकार के तहत ऐसे रिकॉर्ड देखने लगे, तो फिर भ्रष्टाचार पर लगाम लगने लगी।

इस आंदोलन के साथ शुरू से ही जुड़ी रही सुशीला देवी का मानना है कि अब सरकारी अधिकारियों को लगता है कि अगर वे आज कुछ गड़बड़ करेंगे तो पांच साल बाद भी लोग पकड़ लेंगे। पहले कोई नहीं पूछता था अब पूछने वाले हैं।'  

लेकिन लोगों को जानकारी मांगने की भी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। मज़दूर किसान शक्ति संगठन से जुड़े शकर सिंह कहते हैं, 'आज इस देश में 30 से ज़्यादा लोग मारे गए हैं, क्योंकि उन्होंने सवाल पूछे। इंसान की ज़िंदगी जा सकती है, क्योंकि कागज़ों में ऐसी चीज़ें छुपी हुई हैं, जो इंसान की जान से ज़्यादा बड़ी हैं।'

आज भी 20 साल बाद सरकारें इस क़ानून से डरती हैं कि अगर ज़्यादा जानकारी दी जाए तो सिस्टम की पोल न खुल जाए।

सूचना के अधिकार आंदोलन के साथ बीते 19 साल से जुड़ें रहे सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे कहते हैं, 'हमने सूचना का अधिकार ले लिया है, लेकिन उसके बाद भी काम नहीं होता। इसलिए अब शिकायत निवारण क़ानून की भी ज़रूरी है।'

ज़ाहिर है सूचना के अधिकार का सफर बहुत लंबा और संघर्ष भरा रहा है, लेकिन इस आंदोलन ने देश में लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत करने में अहम भूमिका निभायी है।

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