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This Article is From Aug 11, 2017

आखिर किसी सफाईकर्मी को गटर में उतरना क्यों पड़ता है, रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

हमारा शहर सीवर के भरोसे ज़िंदा रहता है लेकिन जो सीवर साफ करते हैं वो ज़िंदा लाश बन जाते हैं.

आखिर किसी सफाईकर्मी को गटर में उतरना क्यों पड़ता है, रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम
सीवर की सफाई करते हुए हर साल कई सफाईकर्मियों की मौत हो जाती है
नई दिल्ली: हमारा शहर सीवर के भरोसे ज़िंदा रहता है लेकिन जो सीवर साफ करते हैं वो ज़िंदा लाश बन जाते हैं. स्वच्छता अभियान अभी तक शौचालय निर्माण तक ही सीमित रहा है, इस लक्ष्य का भी कम महत्व नहीं है, शौचालय बनाने, नहीं बनाने, बनने के बाद इस्तमाल करने और नहीं करने की अनगिनत कहानियों के बीच इस अभियान की सफलता के भी कई छोड़े बड़े द्वीप हैं. जितना सरकार ने नहीं सोचा होगा उससे ज़्यादा लोगों ने भी इसमें भागीदारी की है.

इतना कहने का मतलब यह है कि शौचालय निर्माण का काम इतना आगे बढ़ चुका है कि अब हम आराम से स्वच्छता के दूसरे बड़े सवालों की तरफ लौट सकते हैं. हमें यह सवाल पूछना चाहिए कि क्या दिल्ली मुंबई हैदराबाद और पुणे जैसे शहर एक महीने के भीतर सीवर साफ करने वाले सफाई कर्मचारियों को सुरक्षा उपकरणों से लैस नहीं कर सकते हैं. हम इस सवाल पर आते हैं लेकिन उससे पहले आपको सीवर और सफाईकर्मियों से संबंधित आपको एक कहानी सुनाते हैं.

VIDEO: सफाईकर्मी को गटर में उतरना क्यों पड़ता है?

एक किताब है  'Empires of the Indus', इसकी लेखिका हैं Alice Albina. 375 रुपये की इस किताब को हैचेट प्रकाशन ने छापा है. किताब अंग्रेज़ी में हैं और पढ़ने के बाद आप भी मुझे याद करेंगे. इस किताब की पहली लाइन मैनहोल से निकलते एक आदमी से शुरू होती है. कुछ यूं बयां होता है. सड़क में होल से एक सिर निकलता है. पानी से सराबोर. उसके बाद नंगे कंधे बाहर आते हैं, उसके बाद नंगा धड़. पानी को हटाती हुई बांह ऊपर आती है, अलकतरे की सड़क पर झुकती है, बहुत जान लगाकर वो आदमी ख़ुद को सीवर से बाहर निकालता है. उखड़ती सांसों के कारण सड़क पर पसर जाता है. सिर्फ सफेद पजामा पहना हुआ है जो अब काला और भीग गया है. जिस होल से वह बाहर आया है वहां गंदे बदबूदार पानी का भंवर बना हुआ है. प्रसंग 'एम्पायर्स आफ दि इंडस' का है और तस्वीर भारत में 'डाउन दि ड्रेन' रिपोर्ट बनाने वाली संस्था 'प्रैक्सिस' की है.

पहले के प्राइम टाइम में बताया था कि किस तरह दिल्ली और कोलकाता में सीवर लाइन के बहाने शहर का बंटवारा होता है और इस काम में खास जाति के लोग धेकेले जाते हैं जिसे आगे चल आधुनिक भारत में जातिवाद का एक शर्मनाक उदाहरण बनना होता है. अब कहानी पाकिस्तान से जो एलिस अल्बिना की किताब 'एम्पायर्स आफ दि इंडस' से ही.

1947 का पाकिस्तान है. विभाजन ने दोनों तरफ के लोगों के बांट दिया, मार दिया और उजाड़ दिया. भारत के अखबारों में मुसलानों को लेकर सांप्रदायिक उफान है तो पाकिस्तान के अखबारों में हिन्दुओं के ख़िलाफ़. पाकिस्तान का अख़बार डॉन तरह तरह के किस्से छापता है कि कैसे हिन्दू जिन्ना का मज़ाक उड़ा रहे हैं. जिन्ना की टोपी समंदर में फेंक कर अपमानित कर रहे हैं. इससे हिन्दुओं में असुरक्षा बढ़ती है. पलायन की रफ्तार बढ़ने लगती है. कराची शहर से भागने वालों में शहर के सफाईकर्मचारी और सीवर साफ करने वाले भी होते हैं. नतीजा यह होता है कि कराची में सीवर का पानी फैल जाता है. शहर गंदगी और बदबू से भर जाता है. अब उसी डॉन अख़बार में कराची के शहरियों की शिकायतें छपनी शुरू होती हैं कि शहर कितना गंदा है. कहां तो यह एशिया का सबसे साफ शहर होता था कहां अब इसकी ये हालत है. ब्रिटिश काल में सड़कों की रोज़ सफाई हो रही थी. दो हज़ार क्लीनर कराची छोड़ कर जा चुके थे. कोई साफ करने वाला नहीं था.

अब आपको पता चला कि सांप्रदायिकता की दुकान के शिकार दलित ही होते हैं यहां भी और वहां भी. पाकिस्तान की सरकार तंग आ कर अखबारों में फरवरी 1948 के दौरान इश्तेहार देती है कि अब कराची से पलायन करने वाले सफाईकर्मियों की रफ्तार धीमी की जाएगी. संपूर्ण पलायन से प्रांत का सामाजिक आर्थिक ढांचा तबाह हो गया है. सिंध की सरकार कानूनी शक्तियों का इस्तमाल करते हुए ऐसे लोगों के पलायन को धीमा करती है जो शहर की सुविधाओं सेवाओं के लिए आवश्यक हैं. इस तरह कराची से दलित हिन्दुओं का पलायन रोक दिया जाता है. पाकिस्तान में भारत के राजदूत श्रीप्रकाश पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के सामने यह मसला रखते हैं. किताब में लिखा है कि श्री प्रकाश कहते हैं कि ईश्वर ने करांची की सड़कों की सफाई और पखाने को साफ करने के लिए हिन्दुओं को नहीं बनाया है तब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री कहते हैं कि करांची की सड़कों को साफ कौन करेगा. विभाजन के बाद भी पाकिस्तान के रूलिंग क्लास की हेकड़ी नहीं गई. उन्हें दलित हिन्दू पसंद आए और भारत में भी आजतक यह हेकड़ी नहीं गई है. इस हेकड़ी का जवाब

गुजरात के ऊना के दलितों ने दिया जब कथित गौ रक्षा के नाम पर चार दलित युवकों को सरेआम मारा गया. दलितों ने मरी हुई गाय को उठाना ही बंद कर दिया. अब इस मामले में कानून ने कहां तक अपना काम किया, मुझे जानकारी नहीं है. आप भी पता कर सकते हैं. लेकिन हम चाहते हैं कि हमारे शहर को साफ करने की व्यवस्था से जातिवाद जाए, जो लोग इस काम में लगे हैं उन्हें दूसरा काम मिले. दिल्ली सरकार ने 9 अगस्त के आदेश से ऐलान तो कर दिया है कि कोई भी आदमी सीवर में नहीं उतरेगा लेकिन यह नहीं बताया है कि सीवर कैसे साफ होगा और जो आदमी नहीं उतरेगा उसे दूसरा काम क्या मिलेगा. काम का पुनर्वास भी ज़रूरी है. भारत भर में सीवर की सफाई के काम से जुड़ें दस लाख भारत माता के सपूतों को वंदेमातरम बोलकर पुनर्वास नहीं कर सकते हैं. दिल्ली सरकार का आदेश है कि बिना कार्यकारी अभियंता के लिखित आदेश को कोई भी सीवर में नहीं उतरेगा.

हमारे सहयोगी रविश रंजन शुक्ल ने एक रिटायर अग्नि सुरक्षा अधिकारी से पता किया कि सुरक्षा उपकरणों की कीमत क्या होती है. आमतौर पर दमकल कर्मचारियों को भी गैस की स्थिति में बचाव के लिए आगे आना होता है. उनके कपड़ों और उपकरणों की लागत से एक अंदाज़ा तो मिल ही सकता है कि कितना ख़र्च आएगा-

- सेफ्टी ड्रेस 30,000 रुपये 
- गैस मास्क 3000 से 15000 रुपये 
- दस्ताना 300 और गम बूट 500 रुपये 


पहले तो सभी नगरपालिकाएं बताएं कि सुरक्षा बजट क्या है, उनका हिसाब दें और ज़रूरत भी बताएं फिर ज़रूरत तो सेंटर इसकी व्यवस्था करें और आम नागरिक भी सहयोग कर सकते हैं. 

मैं एक गैस मास्क ख़रीद कर देने के लिए तैयार हूं. लेकिन भावना में बहने से पहले हिसाब ज़रूरी है. नगरपालिकाओं में एक से एक घाघ और भ्रष्ट बैठे हैं. 17-18 साल पहले जब मैंने रिपोर्टिंग शुरू की थी इसी लाजपत नगर के पास एक लड़की नाले में बह गई. तब भी खूब हंगामा हुआ था, आज भी होता है मगर होता कुछ नहीं है. 2011 में हैदराबाद में एक महिला बैंक मैनेजर और 2014 में 66 साल की एक महिला बह गई. हैदराबाद में ड्रेनेज सिस्टम महान इंजीनियर एम विश्वेश्वरैया की देन है. 1930 के दशक के बाद से शहर में ढंग का काम ही नहीं हुआ. सितंबर 2016 में फर्स्ट पोस्ट डाट काम में हैदराबाद के ऊपर एक पठनीय रिपोर्ट छपी है.

मुंबई मिरर के पी पवन की रिपोर्ट है इसी 5 जून 2017 की. शहर के सीवर साफ करने वाले 70 वर्करों को सफाई उद्यमी बना दिया गया है. देश का पहला शहर है जिसने हाथ से सफाई की प्रथा को पूरी तरह बंद कर दिया है और 70 सफाईकर्मियों को बिजनेसमैन बना दिया है. तेलंगाना राज्य सरकार ने दलित इंडियन चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड कामर्स से गठजोड़ किया शहर में 70 मिनी सीवर जेटिंग मशीन लाई गई है. एक मशीन की कीमत 26 लाख रुपये है. स्टेट बैंक ने 20 लाख का लोन दिया और सभी वर्करों को उद्यमी बना दिया गया.

राज्य सरकार सीवेज सिस्टम की सफाई के लिए हर साल 20 करोड़ का बजट बनाती है. इस बजट से मशीन खरीदने वालों को काम और फायदा मिल जाएगा. तेलंगाना के निगम प्रशासन और शहरी विकास मंत्री केटी रमाराव ने यह फैसला किया था. हैदराबाद मेट्रोपोलिटन वाटर सप्लाई एंड सीवेज बोर्ड के प्रबंध निदेशक दाना किशोर को भी इस काम का श्रेय मिलना चाहिए. बोर्ड एक मशीन को महीने में औसतन डेढ़ लाख का काम देता है. एक गाड़ी पर दो लोग काम करते हैं. क्यों नहीं यही काम दिल्ली और बाकी शहरों में हो सकता है. 


 

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