ये बात साल 1999 की है. कल्याण सिंह (Kalyan Singh) उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के मुख्यमंत्री थे लेकिन पार्टी नेतृत्व खासकर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) से उनकी अनबन चल रही थी. ये अलग बात है कि दोनों नेताओं ने एक साथ ही RSS और जनसंघ के जमाने से साथ-साथ राजनीति की थी और बीजेपी के दोनों बड़े चेहरा बन चुके थे. ब्राह्मण और बनिया की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी में अटल बिहारी वाजपेयी जहां ब्राह्मण चेहरा थे तो वहीं कल्याण सिंह पिछड़े वर्ग का चेहरा बने हुए थे.
पार्टी में दोनों की दोस्ती और जुगलबंदी चर्चित और लोकप्रिय थी. कल्याण यूपी के बड़े नेता थे तो अटल राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के बड़े नेता और चेहरा थे लेकिन जब दोनों के बीच खटपट शुरू हुई तो कल्याण सिंह ने 1999 के लोकसभा चुनावों में ही बीजेपी नेतृत्व को यूपी जीतकर दिखाने का चैलेंज दे डाला. इससे दोनों नेताओं के बीच अहम की लड़ाई और बढ़ गई. उस वक्त कल्याण सिंह हिन्दू हृदय सम्राट कहे जाते थे.
इस झगड़े का परिणाम यह हुआ कि राज्य में बीजेपी दो धड़ों में बंट सी गई. 13 महीने पहले अटल बिहारी वाजपेयी जिस सीट (लखनऊ संसदीय सीट) से 1998 में 4 लाख 31 हजार वोटों से चुनाव जीते थे, उन्हें अब 70 हजार कम वोटों से जीत दर्ज करनी पड़ी. इतना ही नहीं 1998 में यूपी में बीजेपी ने 58 सीटें जीती थीं लेकिन 1999 में यह घटकर आधी यानी 29 रह गईं. कहा जाता है कि कल्याण सिंह ने तब अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए राज्य में मतदान के दिन प्रशासन को सख्ती करने के आदेश दिए थे.
जब कल्याण सिंह ने राजनाथ सिंह के CM बनने में अटका दिया था रोड़ा, PM वाजपेयी का नहीं उठाया था फोन
इधर, कल्याण सिंह सरकार के दो बड़े मंत्री कलराज मिश्र और लालजी टंडन उनके खिलाफ झंडा बुलंद कर रहे थे. दोनों नेताओं ने करीब छह महीने तक कल्याण सिंह के खिलाफ खुलकर मोर्चेबंदी की और जब तीसरी बार अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तब बीजेपी ने फौरन कल्याण सिंह को हटाने का फैसला कर लिया.
10 अक्टूबर, 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और उसके ठीक एक महीने के अंदर कल्याण सिंह की छुट्टी कर दी गई. जब कल्याण सिंह ने PM वाजपेयी का फोन नहीं रिसीव किया तब 10 नवंबर की देर रात प्रधानमंत्री आवास में आनन-फानन में बैठक बुलाई गई और कल्याण सिंह के उत्तराधिकारी पर चर्चा होने लगी. कल्याण के खिलाफ झंडा उठाने वाले लालजी टंडन और कलराज मिश्रा इसके प्रबल दावेदार थे. वाजपेयी खुद तत्कालीन यूपी बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह की ताजपोशी चाहते थे और मुरली मनोहर जोशी किसी ब्राह्मण चेहरे को सीएम बनाना चाहते थे लेकिन कल्याण सिंह के पिछड़ा कार्ड के दांव के बाद इन तीनों सवर्ण नेताओं के सीएम बनने पर ग्रहण लग गया.
पीएम आवास में हो रही बैठक में तब प्रधानमंत्री वाजपेयी के अलावा तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे, केंद्रीय गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी, केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी शामिल हुए थे. तब इस बैठक में किसी ऐसे नेता के नाम पर चर्चा हुई जो राजनीति के नक्शे से ओझल हो चुके थे. पार्टी ने तब फैसला किया कि 76 साल के रामप्रकाश गुप्ता कल्याण सिंह के उत्तराधिकारी होंगे.
जब पार्टी ने उनका नाम तय कर लिया, तब उन्हें दिल्ली तलब किया गया लेकिन किसी को पता नहीं था कि गुप्ता लखनऊ में कहां रह रहे हैं? कहा जाता है कि तब लखनऊ पुलिस को रामप्रकाश गुप्ता का दो कमरे का घर ढूंढने में रात को दो घंटे से ज्यादा लग गए थे. अगले दिन गुप्ता दिल्ली पहुंचे और पीएम हाउस गए. वहां गुनगुनी धूप में लॉन में खड़े गुप्ता को किसी भी पत्रकार ने नहीं पहचाना था. बाद में बीजेपी अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे ने ऐलान किया कि ये रामप्रकाश गुप्ता हैं और कल्याण सिंह की जगह लेने जा रहे हैं.
इसके एक दिन बाद यानी 12 नवंबर, 1999 को गुप्ता ने राज्य के 19वें मुख्यमंत्री के पद की शपथ ली. वो करीब एक साल तक यानी 28 अक्टूबर 2000 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे. राज्यसभा चुनावों में पार्टी की हार और विधान परिषद चुनावों में भूतपूर्व पीएम लालबहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री की हार के बाद पार्टी नेतृत्व ने उन्हें दिल्ली तलब किया और उनकी जगह तत्कालीन केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री राजनाथ सिंह की ताजपोशी करवा दी.
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