शिवसेना (Shivsena) के मुखपत्र सामना (Saamna) में 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस (Congress) की हार पर जी - 23 नेताओ पर हमला बोलते हुए उन्हें सड़ा हुआ आम बताया है. साथ ही गांधी परिवार को भी एकमात्र बल स्थान नही होने का दावा किया है. सामना में लिखा है बीजेपी जिस तरीके और तैयारी से चुनाव लड़ रही है उसका सामना हम परंपरागत, पुरानी पद्धति से नहीं कर सकते. हमें यह चुनौती अलग तरीके से स्वीकार करनी होगी. राहुल जो कहते हैं उस तरह से यह चुनौती स्वीकार करनेवाले कितने लोग उनके आस-पास हैं? सामना की संपादकीय में कांग्रेस की हार पर लिखा है कि ‘जी-23' का समूह सड़ा हुआ आम है लेकिन कांग्रेस संगठन में आज जो भी हैं और गांधी ही चाहिए, ऐसा कहनेवालों की पैरों तले जमीन कितनी मजबूत है. उत्तराखंड में बीजेपी के विरोध में जोरदार हवा थी. कांग्रेस के लिए अनुकूल वातावरण था.
पांच राज्यों में कांग्रेस की करारी हार हुई. पंजाब में सत्ता थी, उस एकमेव राज्य को भी कांग्रेस द्वारा गंवाने के बाद हमेशा की तरह पार्टी का ‘जी-23' गुट हावी हुआ. कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व इसके आगे भी गांधी परिवार करता रहेगा, इस पर कांग्रेस कार्य समिति ने मोहर लगाई है. कपिल सिब्बल ने तो स्पष्ट कह दिया कि ‘कांग्रेस का बाहरी व्यक्ति अब कांग्रेस का नेतृत्व करे.' सिब्बल वकील हैं और वे अपने मुवक्किल का पक्ष मजबूती के साथ रखते रहते हैं. इस विषय में उनका मुवक्किल कौन है और वे किसका पक्ष रख रहे हैं? सामना में लिखा, " गांधी नेतृत्व छोड़ें यह ठीक, लेकिन कांग्रेस को आगे ले जानेवाला, जीत दिलानेवाला नेता उनके ‘जी-२३' गुट में है क्या? कांग्रेस की थाली और कटोरी में खा-पीकर कई बार डकार लेकर स्वस्थ हुए नेता ‘जी-२३' में हैं और कांग्रेस की पराजय पर वे विलाप कर रहे हैं. इनमें से कितने नेता पांच राज्यों के चुनाव में जमीन पर उतरे थे? कितनों ने प्रत्यक्ष रूप से प्रचार में खुद को झोंक दिया था?
सामना में लिखा, पी. चिदंबरम, के.सी. वेणुगोपाल, सचिन पायलट, भूपेश बघेल जैसे कुछ गिने-चुने नेता दिखाई दे रहे थे. प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में थीं. राहुल गांधी गोवा, उत्तराखंड, पंजाब में थे. लेकिन गुलाम नबी, कपिल सिब्बल और २३ वैâरेट के नेता चुनावी समर में कभी नहीं दिखे. ऐसा लगता है कि ये सभी नेता बाहर रहकर राहुल गांधी की पारिवारिक भागदौड़ में ‘एन्जॉय' कर रहे थे और मन-ही-मन कांग्रेस की असफलता की मनोकामना कर रहे थे.
सामना ने लिखा है यह सच है कि अब कांग्रेस पार्टी को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है, जो युवाओं में नई गति और नया विचार पैदा करे. उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी की रैलियों और रोड शो में अच्छी-खासी भीड़ हुई. लेकिन वोटों को लेकर कुछ हाथ नहीं लगा. वहां के ४०४ विधायकों की विधानसभा में दो सीटें मिलीं. वैसे देखा जाए तो मायावती को भी एक सीट मिली. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी का संगठन और कार्यकर्ता नहीं रहे. चुनाव लड़ने के कौशल और प्रबंधन के मामले में कांग्रेस में सूखा पड़ गया है. श्री राहुल गांधी ने सही कहा कि ‘चुनावी मैदान में बीजेपी का मुकाबला करना कठिन हो गया है. बीजेपी पर टिप्पणी करना, उसके एकाधिकार पर हमला करना ठीक है व शुरू ही रहेगा लेकिन हमें वैकल्पिक नैरेटिव देना होगा.
सामना की संपादकीय में लिखा है, "उत्तराखंड में बीजेपी के मुख्यमंत्री पुष्कर धामी पराजित हो गए. लेकिन उत्तराखंड में कांग्रेस ने फिर से हरीश रावत जैसे पुराने नेता को बागडोर सौंपकर बीजेपी को आगे के लिए गति दे दी. वे रावत खुद चुनाव हार गए. रावत को दूर रखकर चुनाव लड़ा जाए, ऐसा राहुल गांधी का कहना था. वहीं दूसरे गुट का कहना है कि श्री रावत को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने में बहुत देरी कर दी. रावत पुराने और अनुभवी नेता हैं लेकिन वे हार गए, यह सत्य है. अमरिंदर ने सीधे बीजेपी से हाथ मिला लिया. अमरिंदर को मनाने के लिए ‘जी-२३' के कितने लोग आगे आए? गोवा में स्थानीय कांग्रेसी नेताओं के पैर जमीन पर नहीं थे. कांग्रेस पार्टी का संगठन जर्जर हो चुका है. आकर्षण महसूस हो, ऐसा कुछ भी नया नहीं हो रहा है.
सामना ने राजस्थान के मुख्यमंत्री गहलोत पर भी निशाना साधा और लिखा राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है, लेकिन मुख्यमंत्री गहलोत इस तरह पैर पसारकर बैठे हैं कि नए कार्यकर्ताओं को उंगली रखने की भी जगह नहीं है. बीजेपी की साइबर फौज पहले वातावरण निर्माण करती है. साथ ही झूठे नैरेटिव तैयार करती है. खून की एक बूंद भी गिराए बिना सामनेवाले को मजबूर और घायल कर देते हैं. फिर पीछे से बीजेपी के नेता मैदान में उतरते हैं. उनका यह उद्योग प. बंगाल और महाराष्ट्र में नहीं चला. केजरीवाल की पार्टी के सामने भी बीजेपी की यह छुपी फौज घुटने टेक देती है. अखिलेश यादव ने भी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को अच्छा जवाब दिया. लेकिन कांग्रेस इस मामले में पीछे है. केवल गांधी परिवार ही एकमात्र बल स्थान नहीं रह गया है.
सामना की संपादकीय में लिखा है कि कांग्रेस की जड़ें सूख गई हैं और वृक्ष पत्ता विहीन हो गया है. पत्ते अंकुरित हों, बहार आएं और वातावरण ताजा हो ऐसा किसी को मन से लगता है तो वृक्षों की पूरी छंटाई कर नया बगीचा फुलाना होगा. बीजेपी की सफलता का पहाड़ बनावटी है. उसे बनावटी पेड़, बनावटी बारिश, बनावटी घास का आधार दिया गया है. हिजाब जैसे मामले खोदकर, ‘कश्मीर फाइल' फिल्म का ‘प्रोपगेंडा' रचना जैसे मुद्दे कांग्रेस या अन्य पार्टियों को अब जमने चाहिए. कश्मीरी पंडितों के पलायन के पीछे का सत्य कुछ और ही है. केंद्र में बीजेपी समर्थित वी.पी. सिंह की सरकार थी और कश्मीर में बीजेपी के प्रिय जगमोहन राज्यपाल थे. तब पंडितों को पलायन करना पड़ा.
सामना ने लिखा है, "यह सत्य सामने लाने में बीजेपी विरोधक कमजोर पड़ रहे हैं. कांग्रेस जैसी पार्टी आज भी परंपराओं की शृंखला और पुरानी जटिलताओं में अटकी हुई है. राहुल गांधी कहते हैं उस तरह बीजेपी से अलग पद्धति से लड़ना होगा. ‘जी-२३' समूह में ऐसा कोई लड़वैया होगा तो उसे दंड-बैठक कर आगे आने में कोई आपत्ति नहीं है." लेकिन यह संभव होगा, ऐसा नहीं लगता. कांग्रेस द्वारा अलग धर्मनिरपेक्षता के ‘हिजाब' को दूर करना होगा. परिणामों की परवाह न करते हुए बिन काम के नेताओं को दूर करना चाहिए. पार्टी का अब और क्या नुकसान होना बाकी रह गया है? कांग्रेस पार्टी के आंतरिक मामलों में सिर घुसाने की जरूरत नहीं है लेकिन सभी विपक्षी पार्टियों के अस्तित्व और एकजुटता का विषय होने पर हमने अपने विचार व्यक्त किए.