प्रतीकात्मक फोटो.
नई दिल्ली:
राजनीतिक पार्टियां गरीबों के लिए कितने ही आंसू बहाएं लेकिन उनकी हकीकत बार-बार सामने आ ही जाती है. अब श्रम और कल्याण मंत्रालय के अपने आंकड़े बताते हैं कि कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने वाले मज़दूरों के लिए जो हजारों करोड़ का फंड इकट्ठा होता है वह न केवल बर्बाद पड़ा है बल्कि सियासी पार्टियां कई मौकों पर अपने फायदे के लिए उसे इस्तेमाल कर चुकी हैं.
असल में 1996 में बने एक कानून के मुताबिक रियल एस्टेट या किसी और निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों के कल्याण के लिए वेलफेयर फंड ज़रूरी है. सन 1996 से लेकर आज तक इस वेलफेयर फंड में 42256 करोड़ रुपये इकट्ठे हुए लेकिन कुल 12030 करोड़ ही खर्च किए गए. यानी करीब तीन चौथाई फंड इस्तेमाल ही नहीं हुआ.
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रोपड़ के दिनेश चड्ढा ने सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी हासिल की. मज़दूरों के हित के लिए काम कर रहे चड्ढा कहते हैं, "ये पैसा गरीबों के इलाज, उनकी बेटियों की शादी, बच्चों की पढ़ाई और इलाज जैसी ज़रूरी चीज़ों के लिए खर्च होना था लेकिन सरकारों ने ये कदम उठाना ज़रूरी नहीं समझा. और हक़ीक़त ये है कि गरीबों को इसके लिए कर्ज़ उठाना पड़ा और जो कर्ज़ नहीं चुका पाए उनमें से कई ने खुदकुशी भी कर ली."
चड्ढा कहते हैं कि मोदी जी ने हर किसी को 15 लाख देने की बात की लेकिन ये पैसा क्यों गरीबों की भलाई के लिए इस्तेमाल नहीं हो रहा है.
देश में कई बड़े और महत्वपूर्ण राज्यों ने इस फंड को इस्तेमाल करने में आलस दिखाया है. मिसाल के तौर पर गुजरात में 1912 करोड़ रुपये इकट्ठे हुए लेकिन 150 करोड़ ही खर्च हो पाए हैं. इसी तरह बिहार में 1181 करोड़ में से 144 करोड़ ही खर्च हो पाए हैं. हरियाणा में 2050 करोड़ में से 227 करोड़ ही खर्च हुए.
हालांकि कुछ राज्यों का रिकॉर्ड इस मामले में अच्छा है. मिसाल के तौर पर केरल ही एक ऐसा राज्य है जहां 100 प्रतिशत से अधिक फंड का इस्तेमाल किया. केरल में कुल 1554 करोड़ एकत्रित हुए जबकि खर्च किया 1934 करोड़. पश्चिम बंगाल ने 50 प्रतिशत से अधिक फंड खर्च किया. इसके अलावा मणिपुर, मिजोरम और पुडुचेरी का प्रदर्शन भी अच्छा रहा है.
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सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में एक वेलफेयर कमेटी का गठन किया है जिसे सितम्बर तक अपनी रिपोर्ट देनी है.कमेटी के सदस्य और भारतीय मजदूर संघ के पवन कुमार कहते हैं कि फंड का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए हो रहा है. कुमार कहते हैं, "अखिलेश यादव की सरकार थी तो उन्होंने गरीबों को स्वास्थ्य, बच्चों की पढ़ाई और बेटियों की शादी के लिए पैसा देने के बजाय सिर्फ साइकिल बांटी, क्योंकि वह उनका चुनाव चिन्ह था. इसी तरह केजरीवाल जी ने दिल्ली में खुद को गरीबों का हितैषी बताने के लिए अपने विज्ञापन छपवाए. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस पैसे की भरपाई करने को कहा."
VIDEO : सुरक्षा मानकों को पालन नहीं
उधर वामपंथी मज़दूर संगठन सीटू के नेता स्वदेश देबरॉय कहते हैं, "सरकारें मज़दूरों का पंजीकरण भी नहीं कर रही हैं जिससे लाभार्थियों की संख्या का सही अंदाजा नहीं लग पाता. केंद्र सरकार रेलवे और तमाम महत्वपूर्ण विभागों के प्रोजेक्ट से सेस नहीं वसूल रही वर्ना ये रकम 40 हज़ार करोड़ से कहीं अधिक होगी."
असल में 1996 में बने एक कानून के मुताबिक रियल एस्टेट या किसी और निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों के कल्याण के लिए वेलफेयर फंड ज़रूरी है. सन 1996 से लेकर आज तक इस वेलफेयर फंड में 42256 करोड़ रुपये इकट्ठे हुए लेकिन कुल 12030 करोड़ ही खर्च किए गए. यानी करीब तीन चौथाई फंड इस्तेमाल ही नहीं हुआ.
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रोपड़ के दिनेश चड्ढा ने सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी हासिल की. मज़दूरों के हित के लिए काम कर रहे चड्ढा कहते हैं, "ये पैसा गरीबों के इलाज, उनकी बेटियों की शादी, बच्चों की पढ़ाई और इलाज जैसी ज़रूरी चीज़ों के लिए खर्च होना था लेकिन सरकारों ने ये कदम उठाना ज़रूरी नहीं समझा. और हक़ीक़त ये है कि गरीबों को इसके लिए कर्ज़ उठाना पड़ा और जो कर्ज़ नहीं चुका पाए उनमें से कई ने खुदकुशी भी कर ली."
चड्ढा कहते हैं कि मोदी जी ने हर किसी को 15 लाख देने की बात की लेकिन ये पैसा क्यों गरीबों की भलाई के लिए इस्तेमाल नहीं हो रहा है.
देश में कई बड़े और महत्वपूर्ण राज्यों ने इस फंड को इस्तेमाल करने में आलस दिखाया है. मिसाल के तौर पर गुजरात में 1912 करोड़ रुपये इकट्ठे हुए लेकिन 150 करोड़ ही खर्च हो पाए हैं. इसी तरह बिहार में 1181 करोड़ में से 144 करोड़ ही खर्च हो पाए हैं. हरियाणा में 2050 करोड़ में से 227 करोड़ ही खर्च हुए.
हालांकि कुछ राज्यों का रिकॉर्ड इस मामले में अच्छा है. मिसाल के तौर पर केरल ही एक ऐसा राज्य है जहां 100 प्रतिशत से अधिक फंड का इस्तेमाल किया. केरल में कुल 1554 करोड़ एकत्रित हुए जबकि खर्च किया 1934 करोड़. पश्चिम बंगाल ने 50 प्रतिशत से अधिक फंड खर्च किया. इसके अलावा मणिपुर, मिजोरम और पुडुचेरी का प्रदर्शन भी अच्छा रहा है.
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सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में एक वेलफेयर कमेटी का गठन किया है जिसे सितम्बर तक अपनी रिपोर्ट देनी है.कमेटी के सदस्य और भारतीय मजदूर संघ के पवन कुमार कहते हैं कि फंड का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए हो रहा है. कुमार कहते हैं, "अखिलेश यादव की सरकार थी तो उन्होंने गरीबों को स्वास्थ्य, बच्चों की पढ़ाई और बेटियों की शादी के लिए पैसा देने के बजाय सिर्फ साइकिल बांटी, क्योंकि वह उनका चुनाव चिन्ह था. इसी तरह केजरीवाल जी ने दिल्ली में खुद को गरीबों का हितैषी बताने के लिए अपने विज्ञापन छपवाए. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस पैसे की भरपाई करने को कहा."
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उधर वामपंथी मज़दूर संगठन सीटू के नेता स्वदेश देबरॉय कहते हैं, "सरकारें मज़दूरों का पंजीकरण भी नहीं कर रही हैं जिससे लाभार्थियों की संख्या का सही अंदाजा नहीं लग पाता. केंद्र सरकार रेलवे और तमाम महत्वपूर्ण विभागों के प्रोजेक्ट से सेस नहीं वसूल रही वर्ना ये रकम 40 हज़ार करोड़ से कहीं अधिक होगी."
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