प्रतीकात्मक तस्वीर
हृदयेश जोशी:
“कुछ साल पहले तक हमें पानी लाने के लिये कई किलोमीटर दूर पैदल जाना पड़ता था. जब से ये टैंक यहां बना है पानी की लगातार सप्लाई होती है. हम नहाने और कपड़े धोने से लेकर अपने जानवरों को नहलाने जैसे सारे काम आसानी से कर सकते हैं. अब हमारी मुश्किल काफी कम हो गई है.” उत्तराखंड के गंगोलीहाट के एक छोटे से गांव नाग में ये बात हमें 29 साल की संगीता ने बताई. ऐसा कहते हुए उनके चेहरे पर जो खुशी का भाव था वह बता रहा था कि उन्हें कितनी बड़ी दिक्कत से छुटकारा मिला है.
संगीता की तरह नाग की कई महिलाओं की ज़िंदगी बदल गई है. आज करीब 4 लाख लीटर की क्षमता वाले टैंक में बरसात का पानी इकट्ठा किया जाता है. समुद्र तल से करीब 6000 फीट की ऊंचाई पर ये टैंक 2009 में बनाया गया. तब गांव के पास पानी का एकमात्र ज़रिया एक प्राकृतिक स्रोत था लेकिन वह लगभग सूख चुका था और पानी न के बराबर मिलता.
लेकिन अगर प्राकृतिक स्रोत सूखते जाएं तो फिर बरसात का पानी इकट्ठा करने से ही समस्या हल नहीं होती. इसलिये लोगों ने सूखते जल-स्रोतों को रीचार्ज करने की कोशिश शुरू की. हिमालयन ग्राम विकास समिति के नाम से संस्था चला रहे 49 साल के राजेंद्र सिंह बिष्ट पिछले 25 सालों से इस काम में लगे हैं. बिष्ट गंगोलीहाट समेत उत्तराखंड के कई गांवों में जाकर ये जागरूकता फैला रहे हैं कि जंगल बचेंगे तो पानी के स्रोत बचेंगे. सिंह कहते हैं, “इस टैंक को बनाने के साथ-साथ हमने लोगों को बताया कि जंगलों को बचाना और स्वस्थ बनाना कितना ज़रूरी है. हमने यहां बांज, बुरांश और काफल (एक जंगली फल) के पेड़ लगाने शुरू किये.”
जैसे जैसे जंगल की सेहत सुधरी, ज़मीन में नमी बढ़ना शुरू हुई और पानी के स्रोत जिंदा होने लगे. ये एक क्रांतिकारी बदलाव था क्योंकि जहां दूरदराज़ के इलाकों से पानी इकट्ठा करना महिलाओं के लिये अतिकष्टदायी है वहीं इससे कई बार समाज में कड़वाहट भी फैलती है क्योंकि पानी के लिये आपस में लड़ाई होना एक आम बात है. आज गंगोलीहाट के आसपास कई गांवों में लोगों ने बरसात के पानी को इकट्ठा करने के साथ-साथ जल-स्रोतों को रिचार्ज करने की तरकीब सीख ली है. पहाड़ों में जहां-जहां पानी के स्रोत होने की संभावना थी वहां छोटे छोटे तालाब बनाकर पानी को इकट्ठा किया. इन छोटे तालाबों को चाल या खाल या चाल-खाल कहा जाता है. चाल-खाल का पानी रिसकर कमज़ोर पड़ रहे या सूख चुके जल-स्रोतों को पुनर्जीवित करता है.
वैज्ञानिक मानते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग का प्रभाव बढ़ रहा है और जलवायु परिवर्तन से इनकार नहीं किया जा सकता. हिमालय के पर्यावरण और विकास पर काम कर रहे गोविंद बल्लभ पंत संस्थान के डॉ. राजेश जोशी कहते हैं, “जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से लड़ने के लिये अनुकूलन (एडाप्टेशन) की ये कोशिश बहुत ज़रूरी है. आज हम अक्सर ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ग्लेशियरों के पिघलने की बात करते हैं लेकिन इन गांव वालों के लिये ग्लेशियर नहीं ये जल-स्रोत महत्वपूर्ण हैं. ये लोग ग्लेशियरों पर निर्भर नहीं हैं और उनसे काफी दूर रहते हैं. इनके गांव नदियों से भी दूर बसे होते हैं. इसलिये इनकी निर्भरता इन जल-स्रोतों पर ही है.”
जल संरक्षण के काम में राजेंद्र बिष्ट का साथ दे रहे लक्ष्मी दत्त भट्ट कहते हैं, “बरसात के बदलते मिज़ाज और कम बर्फबारी से पानी की कमी हो रही है. पानी की मांग बढ़ रही है और ऐसे में चाल-खाल का प्रयोग काफी असरदार रहा है.”
लेकिन चाल-खाल बनाने के लिये सही जगह की पहचान करना भी ज़रूरी है और इस काम में विशेषज्ञों की मदद चाहिये. वैज्ञानिकों और जानकारों ने इस इलाके की हाइड्रोलॉजी का अध्ययन किया जिसके तहत रॉक (ज़मीन) का व्यवहार, उसकी ढलान और दिशा के साथ उसमें पानी के रिसने की संभावना का पता लगाया गया. इन परीक्षणों से पता चलता है कि किसी स्थान में क्या कभी कोई जल स्रोत रहा होगा.
“हम इसे हाइड्रो-जियो-मॉर्फोलॉजी कहते हैं. ज़मीन का व्यवहार हमें उस संभावना को बताता है कि क्या वहां कभी पानी रहा होगा? जब हमारे परीक्षण ऐसे संकेत देते हैं तो हम स्थानीय लोगों से पूछते हैं कि क्या उन्होंने कभी उस जगह किसी स्रोत के होने की बात सुनी थी. कई जगह ऐसा हुआ कि लोगों ने हमारे परीक्षणों की पुष्टि की और कहा कि हां हमने सुना था कि यहां पहले स्रोत होता था जो अब सूख गया है. ऐसी पुष्टि होने पर हम लोगों को ठीक उन जगहों पर चाल- खाल बनाने के लिये कहते हैं जहां से सही रिचार्जिंग हो सके.”
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ज़िले में ही ऐसे कई प्रयोग हुए हैं. साल 2016 में पिथौरागढ़ से करीब 20 किलोमीटर दूर नैकीना गांव में 500x100x1 मीटर आकार की एक बड़ी खाल (ताल) बनायी गई. पिथौरागढ़ के (डिस्ट्रिक्ट फॉरेस्ट ऑफिसर) डीएफओ विनय भार्गव कहते हैं, “हम इस प्रयोग को एक मॉडल के रूप में दिखाना चाहते हैं. इस काम में विशेषज्ञों के साथ ग्रामीणों का सहयोग रहा. सामुदायिक सहयोग के बिना ये मुमकिन नहीं था.”
इस प्रयोग को सफल बनाने के लिये खाल के आसपास सेब और नाशपाती के पेड़ लगाये गये ताकि जंगल की सेहत सुधरे. नैकिना के सरपंच का कहना है कि इससे कुछ पुराने स्रोतों को पुनर्जीवित करने में मदद मिली है और नये जल-स्रोत मिले हैं.
इस प्रयोग से जंगल में लगने वाली आग से बचने की तरकीब भी ढूंढी जा रही है. उत्तराखंड के जंगलों में बार बार आग लगते रहती है. पिछले साल ही 13 ज़िलों में लगी आग करीब 8000 एकड़ क्षेत्र में फैल गई थी. अब गांव के लोग चीड़ की पत्तियां और गिरी हुई टहनियां इकट्टा कर इन चाल-खालों में डाल देते हैं. इससे आग की संभावना कम हो जाती है क्योंकि जंगल में आग फैलाने में चीड़ का अहम रोल होता है.
VIDEO: जल, जीवन, हम और अनुपम...
गंगोलीहाट के चाक गांव में 25 साल की पूनम हमें बताती हैं, “जंगल में लगी आग से भीषण नुकसान होता रहा है. अब हम जब भी जंगल में जाते हैं तो पिरूल (चीड़ की पत्तियां) को इकट्ठा कर चाल-खाल में डाल देते हैं. पिरूल से आग बहुत तेज़ी से फैलती है लेकिन अब इन पत्तियों को पानी में छोड़ने से कुछ वक्त बाद ये सड़कर खाद बन जाती हैं.”
(ये रिपोर्ट सेंट्रल हिमालयन इन्वायरमेंट एसोसिएशन के साथ एक स्टडी प्रोग्राम के तहत तैयार की गई)
4 लाख लीटर क्षमता का ये टैंक गांव वालों की ज़रूरतों को पूरा करता है
संगीता की तरह नाग की कई महिलाओं की ज़िंदगी बदल गई है. आज करीब 4 लाख लीटर की क्षमता वाले टैंक में बरसात का पानी इकट्ठा किया जाता है. समुद्र तल से करीब 6000 फीट की ऊंचाई पर ये टैंक 2009 में बनाया गया. तब गांव के पास पानी का एकमात्र ज़रिया एक प्राकृतिक स्रोत था लेकिन वह लगभग सूख चुका था और पानी न के बराबर मिलता.
सेहतमंद घना जंगल जल स्रोतों को बचाने के लिये ज़रूरी है
लेकिन अगर प्राकृतिक स्रोत सूखते जाएं तो फिर बरसात का पानी इकट्ठा करने से ही समस्या हल नहीं होती. इसलिये लोगों ने सूखते जल-स्रोतों को रीचार्ज करने की कोशिश शुरू की. हिमालयन ग्राम विकास समिति के नाम से संस्था चला रहे 49 साल के राजेंद्र सिंह बिष्ट पिछले 25 सालों से इस काम में लगे हैं. बिष्ट गंगोलीहाट समेत उत्तराखंड के कई गांवों में जाकर ये जागरूकता फैला रहे हैं कि जंगल बचेंगे तो पानी के स्रोत बचेंगे. सिंह कहते हैं, “इस टैंक को बनाने के साथ-साथ हमने लोगों को बताया कि जंगलों को बचाना और स्वस्थ बनाना कितना ज़रूरी है. हमने यहां बांज, बुरांश और काफल (एक जंगली फल) के पेड़ लगाने शुरू किये.”
जैसे जैसे जंगल की सेहत सुधरी, ज़मीन में नमी बढ़ना शुरू हुई और पानी के स्रोत जिंदा होने लगे. ये एक क्रांतिकारी बदलाव था क्योंकि जहां दूरदराज़ के इलाकों से पानी इकट्ठा करना महिलाओं के लिये अतिकष्टदायी है वहीं इससे कई बार समाज में कड़वाहट भी फैलती है क्योंकि पानी के लिये आपस में लड़ाई होना एक आम बात है. आज गंगोलीहाट के आसपास कई गांवों में लोगों ने बरसात के पानी को इकट्ठा करने के साथ-साथ जल-स्रोतों को रिचार्ज करने की तरकीब सीख ली है. पहाड़ों में जहां-जहां पानी के स्रोत होने की संभावना थी वहां छोटे छोटे तालाब बनाकर पानी को इकट्ठा किया. इन छोटे तालाबों को चाल या खाल या चाल-खाल कहा जाता है. चाल-खाल का पानी रिसकर कमज़ोर पड़ रहे या सूख चुके जल-स्रोतों को पुनर्जीवित करता है.
पानी भरना पहाड़ी इलाकों में महिलाओं के लिये बेहद कठिन काम है. इसके लिये मीलों दूर जाना पड़ता है.
वैज्ञानिक मानते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग का प्रभाव बढ़ रहा है और जलवायु परिवर्तन से इनकार नहीं किया जा सकता. हिमालय के पर्यावरण और विकास पर काम कर रहे गोविंद बल्लभ पंत संस्थान के डॉ. राजेश जोशी कहते हैं, “जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से लड़ने के लिये अनुकूलन (एडाप्टेशन) की ये कोशिश बहुत ज़रूरी है. आज हम अक्सर ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ग्लेशियरों के पिघलने की बात करते हैं लेकिन इन गांव वालों के लिये ग्लेशियर नहीं ये जल-स्रोत महत्वपूर्ण हैं. ये लोग ग्लेशियरों पर निर्भर नहीं हैं और उनसे काफी दूर रहते हैं. इनके गांव नदियों से भी दूर बसे होते हैं. इसलिये इनकी निर्भरता इन जल-स्रोतों पर ही है.”
जल संरक्षण के काम में राजेंद्र बिष्ट का साथ दे रहे लक्ष्मी दत्त भट्ट कहते हैं, “बरसात के बदलते मिज़ाज और कम बर्फबारी से पानी की कमी हो रही है. पानी की मांग बढ़ रही है और ऐसे में चाल-खाल का प्रयोग काफी असरदार रहा है.”
चाल-खाल की तस्वीर
लेकिन चाल-खाल बनाने के लिये सही जगह की पहचान करना भी ज़रूरी है और इस काम में विशेषज्ञों की मदद चाहिये. वैज्ञानिकों और जानकारों ने इस इलाके की हाइड्रोलॉजी का अध्ययन किया जिसके तहत रॉक (ज़मीन) का व्यवहार, उसकी ढलान और दिशा के साथ उसमें पानी के रिसने की संभावना का पता लगाया गया. इन परीक्षणों से पता चलता है कि किसी स्थान में क्या कभी कोई जल स्रोत रहा होगा.
“हम इसे हाइड्रो-जियो-मॉर्फोलॉजी कहते हैं. ज़मीन का व्यवहार हमें उस संभावना को बताता है कि क्या वहां कभी पानी रहा होगा? जब हमारे परीक्षण ऐसे संकेत देते हैं तो हम स्थानीय लोगों से पूछते हैं कि क्या उन्होंने कभी उस जगह किसी स्रोत के होने की बात सुनी थी. कई जगह ऐसा हुआ कि लोगों ने हमारे परीक्षणों की पुष्टि की और कहा कि हां हमने सुना था कि यहां पहले स्रोत होता था जो अब सूख गया है. ऐसी पुष्टि होने पर हम लोगों को ठीक उन जगहों पर चाल- खाल बनाने के लिये कहते हैं जहां से सही रिचार्जिंग हो सके.”
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ज़िले में ही ऐसे कई प्रयोग हुए हैं. साल 2016 में पिथौरागढ़ से करीब 20 किलोमीटर दूर नैकीना गांव में 500x100x1 मीटर आकार की एक बड़ी खाल (ताल) बनायी गई. पिथौरागढ़ के (डिस्ट्रिक्ट फॉरेस्ट ऑफिसर) डीएफओ विनय भार्गव कहते हैं, “हम इस प्रयोग को एक मॉडल के रूप में दिखाना चाहते हैं. इस काम में विशेषज्ञों के साथ ग्रामीणों का सहयोग रहा. सामुदायिक सहयोग के बिना ये मुमकिन नहीं था.”
इस प्रयोग को सफल बनाने के लिये खाल के आसपास सेब और नाशपाती के पेड़ लगाये गये ताकि जंगल की सेहत सुधरे. नैकिना के सरपंच का कहना है कि इससे कुछ पुराने स्रोतों को पुनर्जीवित करने में मदद मिली है और नये जल-स्रोत मिले हैं.
इस प्रयोग से जंगल में लगने वाली आग से बचने की तरकीब भी ढूंढी जा रही है. उत्तराखंड के जंगलों में बार बार आग लगते रहती है. पिछले साल ही 13 ज़िलों में लगी आग करीब 8000 एकड़ क्षेत्र में फैल गई थी. अब गांव के लोग चीड़ की पत्तियां और गिरी हुई टहनियां इकट्टा कर इन चाल-खालों में डाल देते हैं. इससे आग की संभावना कम हो जाती है क्योंकि जंगल में आग फैलाने में चीड़ का अहम रोल होता है.
VIDEO: जल, जीवन, हम और अनुपम...
गंगोलीहाट के चाक गांव में 25 साल की पूनम हमें बताती हैं, “जंगल में लगी आग से भीषण नुकसान होता रहा है. अब हम जब भी जंगल में जाते हैं तो पिरूल (चीड़ की पत्तियां) को इकट्ठा कर चाल-खाल में डाल देते हैं. पिरूल से आग बहुत तेज़ी से फैलती है लेकिन अब इन पत्तियों को पानी में छोड़ने से कुछ वक्त बाद ये सड़कर खाद बन जाती हैं.”
(ये रिपोर्ट सेंट्रल हिमालयन इन्वायरमेंट एसोसिएशन के साथ एक स्टडी प्रोग्राम के तहत तैयार की गई)
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