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This Article is From Jan 27, 2014

रवीश उवाच : राष्ट्रपति के निशाने पर कौन?

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार... नाम तो किसी का नहीं लिया, मगर सबने कहा कि बात उनकी हुई है, हमारी नहीं। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब राष्ट्र के नाम संदेश दे रहे थे, तब सुनने वालों को यही लगा कि वह बिना नाम लिए 'आप' 'आप' कर रहे हैं, लेकिन उनके भाषण को आप पढ़ें तो ऐसा प्रतीत होता है, राष्ट्रपति एक ऐसी बात कह रहे हैं, जो लागू सब पर होती है और सब उनकी बातों को सम्मान के नाम पर खारिज नहीं कर सकते... क्यों कहा गया कि उनका भाषण राजनीतिक था... आखिर राजनीतिक होने में बुराई क्या है... राष्ट्रपति के रूप में उनका भाषण और और एक केंद्रीय मंत्री के रूप में, देश के सबसे अनुभवी नेता के रूप में उनका भाषण दोनों की विकास यात्रा से तस्वीर और साफ होती है।

अप्रैल, 2011 के टाइम्स ऑफ इंडिया से उनके बयान का एक अंश मिला, जिसमें प्रणब मुखर्जी बतौर केंद्रीय मंत्री कह रहे हैं कि अन्ना आंदोलन में संवैधानिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कमतर करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है... बाहर से कोई संसद को कैसे डिक्टेट कर सकता है, यह लोकतंत्र को कमजोर करने का प्रयास है...

अखबार या टीवी में जो बयान होते हैं, वे कई बार पूरे नहीं होते, फिर भी केंद्रीय मंत्री के तौर पर उनके बयान में इस बात की चिन्ता नहीं है कि क्यों लोग 40 साल से धूल खा रहे लोकपाल विधेयक को लेकर सड़कों पर उतरे हैं... क्या सिर्फ संसद को कमज़ोर करने के लिए... क्या इससे पहले संसद का घेराव नहीं हुआ था... 'धरना' को कैसे अलोकतांत्रिक ब्रांड किया जा रहा है...

अब एक राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी कहते हैं - "यदि भारत की जनता गुस्से में है तो इसका कारण है कि उन्हें भ्रष्टाचार तथा राष्ट्रीय संसाधनों की बर्बादी दिखाई दे रही है... यदि सरकारें इन खामियों को दूर नहीं करतीं तो मतदाता सरकारों को हटा देंगे..."

राष्ट्रपति यह भी कहते हैं - "यह क्रोध तभी शांत होता, जब सरकारें वह परिणाम देंगी, जिनके लिए उन्हें चुना गया था... सामाजिक और आर्थिक प्रगति कछुए की चाल से नहीं, बल्कि घुड़दौड़ के घोड़े की गति से..."

जो नेता जिस गुस्से को एक वक्त लोकतंत्र के लिए खतरा बताते हैं, वही नेता किसी और जगह से उस खतरे का वही कारण बताते हैं, जिन्हें लेकर आंदोलनकारी सड़क पर उतरे होते हैं... राष्ट्रपति कहते हैं कि सावर्जनिक जीवन में पाखंड का बढ़ना भी खतरनाक है... जो लोग मतदाताओं का भरोसा चाहते हैं, उन्हें केवल वही वादा करना चाहिए, जो संभव है...

राष्ट्रपति यह भी कहते हैं - "सरकार कोई परोपकारी निकाय नहीं है... लोकलुभावन अराजकता शासन का विकल्प नहीं हो सकती है... झूठे वायदों की परिणति मोहभंग में होती है, जिससे क्रोध भड़कता है और इस क्रोध का एक ही स्वाभाविक निशाना होता है, सत्ताधारी वर्ग..."

सत्ताधारी वर्ग... जैसे कोई जात हो किसी की... यह वर्ग कैसे बनता है, कब बन गया, क्या यह लोकतांत्रिक वर्ग है... लोकलुभावन अराजकता क्या है... पिछले साल अगस्त में राज्यसभा में सभापति हामिद अंसारी ने कह दिया था - "यहां हर कानून तोड़ा जा रहा है... हर शिष्टाचार तोड़ा जा रहा है... ऐसा लगता है कि सदस्य चाहते हैं कि सदन अराजकतावादियों का फेडरेशन बन जाए..."

विपक्ष की तरफ से अरुण जेटली ने कड़ा ऐतराज़ किया था... सरकार की तरफ से सदस्यों ने अराजकता वाले बयान का समर्थन किया था... तब 'हिन्दुस्तान टाइम्स' ने जब इस पर ओपिनियन पोल कराया था तो 70 प्रतिशत लोगों ने हामिद अंसारी की वेदना को सही माना... बाद में सदस्यों के ऐतराज़ पर इस बयान को राज्यसभा सचिवालय के पास समीक्षा के लिए भेज दिया...

झूठे वायदे या लोकलुभावन नारे किस-किस ने किए या किस-किस ने नहीं किए... चैरिटी, खैरात, लोककल्याणकारी या परोपकारी - कौन फर्क करेगा कि चैरिटी क्या है और लोककल्याण क्या है...

क्या है चैरिटी शॉप...

क्या सरकार का काम है कि वह मध्य प्रदेश में बुजुर्गों को तीथयात्रा करवाए... क्या यह सरकार का काम है कि वह यूपी और गुजरात में ढाई-ढाई हज़ार करोड़ की मूर्तियां बनाए... क्या सरकार का काम है कि वह यूपी में लैपटॉप बांटे या तमिनलाडु में मंगलसूत्र, और 60,000 गाएं फ्री देने का वादा करेगा... क्या राष्ट्रपति सभी दलों की ऐसी राजनीति पर सवाल उठा रहे हैं या किसी एक दल पर उठा रहे हैं... क्या उनके सवालों पर कोई दल चिन्ता कर रहा है या उनकी एक बात को लेकर आरोप-प्रत्यारोप ही चल रहा है...

राष्ट्रपति आगे कहते हैं - "हम अपनी लोकसभा के 16वें आम चुनाव को देखेंगे... ऐसी खंडित सरकार, जो मनमौजी अवसरवादियों पर निर्भर हो, सदैव एक अप्रिय घटना होती है... यदि 2014 में ऐसा हुआ तो यह अनर्थकारी हो सकता है... हर मतदाता की जिम्मेदारी है... हम भारत को निराश नहीं कर सकते हैं..."

राष्ट्रपति यह भी कहते हैं - "हमारी समस्याएं रातोंरात समाप्त नहीं होंगी... हम विश्व के ऐसे उथल-पुथल प्रभावित हिस्से में रहते हैं, जहां पिछले कुछ समय के दौरान अस्थिरता पैदा करने वाले कारकों में बढ़ोतरी हुई है... सांप्रदायिक शक्तियां तथा आतंकवादी अब भी हमारी जनता के सौहार्द तथा हमारे राज्य की अखंडता को अस्थिर करना चाहेंगे, परंतु वे कभी कामयाब नहीं होंगे..."

जिस गठबंधन को '90 के दशक से धर्म कहा जा रहा है, उसे प्रेसिडेंट 'मनमौजी अवसरवाद' कह रहे हैं... क्या वह भी लालकृष्ण आडवाणी की तरह दो दलों की सरकार और विपक्ष की अवधारणा को सत्यापित, यानि अटेस्ट कर रहे हैं... क्या भारत की दलीय और राजनीतिक विविधता, यानि तमाम क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक-आर्थिक योगदान को महज मनमौजी अवसरवाद बताकर खारिज किया जा सकता है... राष्ट्रपति के भाषण को सम्मान के साथ पढ़े-समझे जाने की परंपरा का हम सम्मान करते हुए चिन्तन-बहस तो कर ही सकते हैं, वर्ना भाषण का मतलब क्या रह जाएगा... देखें वीडियो

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