यह ख़बर 02 सितंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

मणि-वार्ता : पहले विश्वयुद्ध से भारत के लिए कुछ सबक...

मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...

पिछले पूरे हफ्ते के दौरान मैं और मेरी पत्नी पोलैंड के वार्मिया डिस्ट्रिक्ट में टहलते रहे हैं, और हमने 'बैटल ऑफ टैननबर्ग' (टैननबर्ग का युद्ध) की युद्धभूमि को खास तारीखों - 26 से 30 अगस्त - पर ही जाकर देखा, जब और जहां वर्ष 1914 में रूस और जर्मनी के बीच पहले विश्वयुद्ध की शुरुआती लड़ाई हुई थी।

जर्मन जीनियस वॉन श्लिफेन ने लगभग दो दशक पहले एक युद्ध योजना तैयार की थी, ताकि जर्मन सेना युद्ध शुरू होने के 33 दिन के भीतर पेरिस पहुंच जाए। यह उम्मीद की जा करही थी कि अगर रूस जर्मनी के खिलाफ युद्ध में उतरता भी है, तो उसे युद्ध करने की स्थिति में आने के लिए कम से कम 30 दिन का वक्त लगेगा, और तब तक जर्मनी पूरी तरह फ्रांस को कब्जा चुका होगा, और पूरी ताकत से रूस से लड़ने के लिए तैयार होगा। लेकिन सभी को हैरान करते हुए रूस ने अपनी तैयारी 15 दिन में ही निपटा ली, और तब तक जर्मनी बेल्जियम और उत्तरी फ्रांस में ही अटका हुआ था।

रूसी योजना थी कि वे अपनी पहली सेना को जनरल रेनेनकाम्फ के नेतृत्व में वार्मिया के उत्तर से भेजेंगे, ताकि मुख्य वार्मियाई बंदरगाह डान्जिग के रास्ते बाल्टिक सागर की ओर भाग निकलने की जर्मन कोशिशों को रोका जा सके। इसके बाद रेनेनकाम्फ को बाईं ओर मुड़कर दक्षिण दिशा से आगे बढ़ रही रूस की दूसरी सेना, जिसका नेतृत्व जनरल सैम्सोनोव कर रहे थे, से जुड़ जाना था, ताकि जर्मनों को दोतरफा घेरा जा सके, और वे (जर्मन) विस्तुला नदी की ओर पश्चिम में पीछे भी न हट सकें।

जर्मन सेना को विस्तुला नदी से पहले रोक देने पर रूसी नदी के पार ऐसी स्थिति में होते, जब वे सिर्फ एक हफ्ते में बर्लिन तक पहुंच सकते थे, और अगर एक बार बर्लिन पर कब्ज़ा हो जाता, तो उसका सौदा पेरिस के बदले किया जा सकता था, तथा विश्वयुद्ध छह सप्ताह के भीतर ही खत्म हो गया होता। यदि ऐसा हो पाया होता, तो लगभग डेढ़ करोड़ जानें बच जातीं, जो विश्वयुद्ध के वास्तव में वर्ष 1918 में खत्म होने तक गईं। और यदि विश्वयुद्ध सितंबर, 1914 में ही खत्म हो गया होता, तो असल में न यह विश्वयुद्ध ही होता, और इसीलिए दूसरा विश्वयुद्ध भी नहीं होता, और लगभग 10 करोड़ जानें बच गई होतीं। सो, पीछे मुड़कर देखें तो आज 100 साल बाद भी समझा जा सकता है कि टैननबर्ग का युद्ध कितना महत्वपूर्ण था।

बहरहाल, 'जो होने की उम्मीद की जा रही थी' को छोड़कर अब उसकी बात करते हैं, 'जो असल में हुआ'...

पूर्वी मोर्चे पर रूसियों का सामना करने के लिए पश्चिमी मोर्चे से हटने में नाकाम रही जर्मन सेना, जिसका नेतृत्व सबसे नाकाबिल जनरल वॉन प्रिटविट्ज़ कर रहे थे, ने तय किया कि वे प्रशिया से हटकर विस्तुला नदी के पश्चिम में चले जाएंगे, ताकि नदी पर या उसके पार से रूसियों का मुकाबला किया जा सके। इसीलिए जनरल रेनेनकाम्फ के नेतृत्व वाली रूस की पहली सेना हैरान रह गई, जब उन्हें मीलों तक वीरान गांव मिले, और उन्हें रोकने वाला कोई न था। परन्तु एक जर्मन कोर कमांडर जनरल फ्रैंकॉएस, जो आज्ञाकारी नहीं था, प्रशिया को छोड़ देने का जर्मन हाईकमान का आदेश नहीं मान पाया, और उसने तय किया कि वह पीछे नहीं हटेगा, और उसने रेनेनकाम्फ को गम्बिनेन में आमने-सामने भिड़ने की चुनौती दे डाली। दाईं और बाईं ओर उसकी करारी हार हुई, लेकिन रूसी सेना के बीच के हिस्से को अपनी कैवेलरी (घुड़सवार टुकड़ी) के जरिये उसने तहस-नहस कर दिया।

इसके बाद जनरल फ्रैंकॉएस उस समय हैरान रह गया, जब उसे अपनी जीत को और शानदार बनाने के लिए प्रोत्साहित करने के स्थान पर पीछे हटने और दूर दक्षिण-पश्चिम में जाकर सैमसोनोव की सेना से मुकाबला करने का आदेश दिया गया। जनरल फ्रैंकॉएस को उससे भी ज़्यादा हैरानी तब हुई, जब उसके समकक्ष रूसी जनरल रेनेनकाम्फ ने संपर्क तोड़ लिया, और पीछे हटते जर्मन फौजियों को घेरने की कोशिश नहीं की। उसी वक्त, अपने साहसविहीन और कमज़ोर कमांडर के नेतृत्व में हारी हुई रूसी घुड़सवार सेना छितरा गई, और बची-खुची सेना रूसी सीमा और उसके पार भागने लगी।

असलियत यह थी कि रेनेनकाम्फ और सैमसोनोव एक-दूसरे से नफरत करते थे, और सैमसोनोव उस जनरल ज़िलिन्स्की के हाथों भी तिरस्कृत महसूस करता था, जिसे वॉरसा में अपने रियर बेस से रेनेनकाम्फ और सैमसोनोव की सेनाओं के बीच समन्वय बनाकर रखना था। वैसे, रेनेनकाम्फ और सैमसोनोव के विपरीत, जिन्हें युद्ध का अच्छा-खासा अनुभव था, ज़िलिन्स्की एक चमचा था, जो काबिलियत के स्थान पर कृपा के जरिये पद पर पहुंचा था, ठीक उसी तरह, जैसे हमारे यहां जनरल बीएम कौल थे, जिन्हें भारत-चीन युद्ध की शुरुआत में वर्ष 1962 में दुर्भाग्यशाली IV कोर का कमांडर नियुक्त किया गया था। ज़िलिन्स्की को गलत तरीके से तरक्की रूसी विदेशमंत्री सुखोमलिनोव ने दी थी, जिस तरह कौल को गलत तरीके से तरक्की वीके कृष्णा मेनन ने दी थी। और वैसे दोनों की तरक्की का कारण भी लगभग एक जैसा था - ज़िलिन्स्की दरअसल रासपुतिन के जरिये ज़ारिना (रूसी रानी) का करीबी माना जाता था, और ठीक उसी तरह कौल को तीनमूर्ति भवन से जुड़ा समझा जाता था।

इसके बाद, भागते हुए जर्मनों का पीछा न करने और भाग जाने वाली घुड़सवार टुकड़ी के कमांडर को पद से नहीं हटाने के लिए पहली सेना के कमांडर रेनेनकाम्फ को लताड़ने, और उसे पश्चिम की तरफ बढ़कर दूसरी सेना से मिल जाने के लिए कहने के स्थान पर ज़िलिन्स्की ने दूसरी सेना के कमांडर सैमसोनोव को विस्तुला की तरफ बढ़ने का आदेश दिया, जबकि उनके पास पर्याप्त रसद नहीं थी, सो, परिणामस्वरूप रूसी सेना की जर्मनों को दोनों ओर से घेरकर दबोचने जो योजना कागज़ों पर बहुत बढ़िया थी, असल में कभी मूर्त रूप ले ही नहीं पाई।

इस दौरान, जर्मनों ने अपने बेकार साबित हुए कमांडर को हटाकर हिन्डेनबर्ग और लुडेनडॉर्फ की जोड़ी को लाने का फैसला किया - जो जर्मनी के सैन्य इतिहास की सबसे मशहूर कमांडर जोड़ी बने - और उन्हें पश्चिमी मोर्चे से पूर्वी मोर्चे की ओर भेजी गईं दो टुकड़ियों से मजबूती मिलनी थी। लेकिन इसके बावजूद इस शानदार जोड़ी को सफलता नहीं मिल सकती थी, अगर गम्बिनेन में आंशिक जीत हासिल करने वाले कमांडर जनरल फ्रैंकॉएस का अड़ियल दिमाग योगदान न देता। उसने ज़िद की कि जब तक उसकी भारी गोला-बारूद वाली टुकड़ी नहीं पहुंच जाती, हमला नहीं किया जाए। (मुझे ब्रिगेडियर नामका-चू में तैनात जॉन दलवी की याद आई, क्योंकि अगर उन्होंने भी सेना मुख्यालय से हमला करने के लिए मिले बेवकूफाना आदेश को मानने से इसी तरह इनकार कर दिया होता, तो वह वर्ष 1962 के युद्ध की शुरुआत माने जाने वाले धौला पोस्ट की तबाही की बेइज़्ज़ती से बच गए होते।)

हिन्डेनबर्ग और लुडेनडॉर्फ खुद फ्रैंकॉएस के बेस पर गए, और उसे अपनी योजना से पहले हमला करने का आदेश दिया, लेकिन इसके बावजूद फ्रैंकॉएस अड़ा रहा। उसे उसी शाम आदेश न मानने के लिए बर्खास्त कर दिया जाता, अगर रूसियों के दो खास संदेश पकड़ में न आए होते, जिन्होंने युद्ध की तस्वीर ही बदल डाली। चूंकि रूसी अपने संदेश कोड भाषा में प्रसारित नहीं कर रहे थे, जर्मनों को एक स्थानीय टेलीग्राफ ऑफिस से रूसी आदेशों की प्रतियां मिल गईं, जिनसे पता चला कि रेनेनकाम्फ ने सैमसोनोव की सेना से नहीं जुड़ने का फैसला किया है, और उन संदेशों में सैमसोनोव की सेना की अगले दिन की स्थिति की भी सटीक जानकारी दी गई थी (ठीक वैसे ही, जैसे श्रीलंका में भारतीय शांतिसेना बिना कोड भाषा का इस्तेमाल किए भेजे गए संदेशों से जाफना यूनिवर्सिटी में अपने पैराट्रूपरों के उतरने की योजना की जानकारी प्रभाकरन को दे बैठे थे, और नतीजतन आसमान में ही शिकार बना लिए गए थे)। सो, जब अगले दिन फ्रैंकॉएस ने अपने गोला-बारूद के साथ मोर्चा खोला, सैमसोनोव की दूसरी सेना पूरी तरह नेस्तनाबूद हो गई, और सिर्फ एक रूसी कमांडर - जनरल मार्टोस - बचा, जिसने फ्रैंकॉएस के मोर्चे से कुछ ही मील उत्तर में होहेनस्टेन में अपने जर्मन समकक्ष को बुरी तरह हरा डाला, लेकिन उस अभियान में उसने 4,000 फौजी और अपने अधिकतर अफसर खो दिए, बिल्कुल उसी तरह, जैसे ब्रिगेडियर होशियार सिंह ने सेला में भारी चीनी फौज के सामने गंवाए थे।

इस दौरान, सैमसोनोव के बचाव में आने के स्थान पर रेनेनकाम्फ ने मूल योजना के अनुसार, सैमसोनोव की ओर सिर्फ एक रेजिमेंट भेजी, जो ड्यूरेटेन में बहादुरी से लड़ने के बावजूद दो झीलों के बीच संकरी-सी जगह पर रौंद डाली गई।

और इसके बाद सैमसोनोव के पास शर्मिन्दा होकर पीछे हटने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। इसकी वजह से नर्वस ब्रेकडाउन हो गया (याद करें, तवांग में कौल भी बीमार हुए थे?) और फिर ज़ार के पास हार की ख़बर ले जाने की शर्मिन्दगी से बचने के लिए उसने रूसी सीमा के पास जंगल के किनारे पर पहुंचकर खुद को गोली मार ली। वह आखिरी शिकार था, उस अभूतपूर्व और स्तब्ध कर देने वाली हार का, जिसके बाद 10 करोड़ और जानों का जाना तय हो गया।

मेरे दिमाग में वर्ष 1983 में, जब श्रीलंकाई संकट बस शुरू ही हुआ था, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हुई एक बैठक की यादें ताज़ा हो आती हैं, जहां भारतीय सेना एक बेहद वरिष्ठ जनरल ने, जिनका लहजा पूरी तरह ब्रिटिश था, ज़ोर देकर कहा था, अगर हमारी सरकार इजाज़त दे, तो वे श्रीलंका को उसी तरह चीरकर रख देंगे, जैसे छुरी मक्खन को चीर देती है। हम जानते ही हैं, उसके बाद क्या हुआ था। टैननबर्ग का युद्ध साफ दिखाता है कि इंसान की योजनाओं और भाग्य की करनी के बीच एक परछाई भी रहती है, जिसे पहले से नहीं देखा जा सकता।

सो, अगर हम बड़ी-बड़ी मूछें तानकर टीवी पर बोलने वाले रिटायर हो चुके फौजियों की सुनने लगें, तो दक्षिण एशिया खुद को इस 21वीं शताब्दी में भी वैसे ही हालात में पाएगा, जो 20वीं शताब्दी में थे, और जिनकी वजह से करोड़ों जानें गईं।

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मैं पोलैंड युद्ध की तलाश में नहीं गया, बल्कि यह सीखने गया कि क्यों हमें शांति को आगे आने देना चाहिए, क्यों उसे मौका देना चाहिए। युद्ध से ज़्यादा भयावह कुछ नहीं। युद्ध शान का प्रतीक नहीं है, युद्ध नर्क है।

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