मौलाना जलालुद्दीन उमरी (फाइल फोटो)
नई दिल्ली:
जमाअत इस्लामी हिन्द के अमीर (अध्यक्ष) मौलाना जलालुद्दीन उमरी ने कहा है कि समान सिविल कोड की कोई संवैधानिक हैसियत नहीं है। भारत के संविधान ने यहां के अल्पसंख्यकों को अपने पर्सनल लॉ के मुताबिक अमल करने की स्वाकृति दी, इसलिए सरकार ऐसा कोई कदम नहीं उठा सकती है, जिसके द्वारा मुसलमान या अल्पसंख्यक पर्सनल लॉ को खत्म कर दिया जाए। मौलाना उमरी ने सवाल उठाया कि तीन तलाक को एक तलाक कैसे माना जा सकता है?
जमाअत अध्यक्ष का मानना है कि भारत जैसे देश में समान सिविल कोड नाफिज़ करना असंभव है, क्योंकि यहां विभिन्न धर्मों के लोग बसते हैं। मुस्लिम पर्सनल का संबंध मुसलमानों के धर्म से जुड़ा है और मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई संशोधन लाना या उसे खत्म करना भारतीय संविधान द्वारा दी गई धर्म पर चलने की आज़ादी के उलट होगा। समान सिविल कोड की स्थापना संविधान में सुझाव की हैसियत रखता है और कार्यरूप देना सरकार के हाथ में है। अगर अदालत को खानदानी क़ानून के सिलसिले में कोई आपत्ति है तो वह संबंधित धर्म के विद्वानों या विशेषज्ञों से परामर्श कर सकते हैं। मगर यह कि दुनिया के मुस्लिम पर्सनल लॉ को खत्म करके समान सिविल कोड का निफाज़ कर दिया जाए अनुचित होगा।
एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि जमाअत हमेशा से शरियत की सुरक्षा के लिए ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की मदद करती आ रही है और करती रहेगी।
असहिष्णुता के संदर्भ में उन्होंने जमाअत का रुख स्पष्ट करते हुए कहा की देश के राष्ट्रपति ने भी कम से कम तीन बार इस विषय पर अपनी चिंता दर्शायी है। देश में इस विषय को लेकर मंथन चल रहा है कि देश में असहिष्णुता का रुझान बढ़ रहा है, लेकिन जमाअत समझती है कि यह असहिष्णुता से बढ़कर फांसीवादिता है और इसे उसी नज़र से देखना चाहिए। इसे निवारण का विकल्प भी सोचना चाहिए। उन्होंने देश के विख्यात साहित्यकारों, वैज्ञानिकों, कलाकारों और कवियों द्वारा अपना पुरस्कार वापस किए जाने को स्वागत योग्य कदम बताया।
गो-हत्या के मसले पर अपना रुख साफ़ करते हुए उन्होंने कहा की ये मसला इसलिए छेड़ा गया था कि इसके द्वारा बिहार के चुनावों में राजनीतिक लाभ मिलेगा, लेकिन जनता ने उनकी इस साजिश को नाकाम कर दिया। ऐसा मालूम होता है कि सरकार पूरी तरह फांसीवादी ताकतों के शिकंजे में फंस चुकी है और अत्याचार और हिंसा के माहौल को खत्म करने का अब उसमें हौसला बाकी नहीं रहा है। मगर इससे पूरी दुनिया में देश की छवि बिगड़ रही है और हिन्दुस्तान का बहुवाद और लोकतांत्रिक माहौल खराब हो रहा है।
जमाअत अध्यक्ष का मानना है कि भारत जैसे देश में समान सिविल कोड नाफिज़ करना असंभव है, क्योंकि यहां विभिन्न धर्मों के लोग बसते हैं। मुस्लिम पर्सनल का संबंध मुसलमानों के धर्म से जुड़ा है और मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई संशोधन लाना या उसे खत्म करना भारतीय संविधान द्वारा दी गई धर्म पर चलने की आज़ादी के उलट होगा। समान सिविल कोड की स्थापना संविधान में सुझाव की हैसियत रखता है और कार्यरूप देना सरकार के हाथ में है। अगर अदालत को खानदानी क़ानून के सिलसिले में कोई आपत्ति है तो वह संबंधित धर्म के विद्वानों या विशेषज्ञों से परामर्श कर सकते हैं। मगर यह कि दुनिया के मुस्लिम पर्सनल लॉ को खत्म करके समान सिविल कोड का निफाज़ कर दिया जाए अनुचित होगा।
एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि जमाअत हमेशा से शरियत की सुरक्षा के लिए ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की मदद करती आ रही है और करती रहेगी।
असहिष्णुता के संदर्भ में उन्होंने जमाअत का रुख स्पष्ट करते हुए कहा की देश के राष्ट्रपति ने भी कम से कम तीन बार इस विषय पर अपनी चिंता दर्शायी है। देश में इस विषय को लेकर मंथन चल रहा है कि देश में असहिष्णुता का रुझान बढ़ रहा है, लेकिन जमाअत समझती है कि यह असहिष्णुता से बढ़कर फांसीवादिता है और इसे उसी नज़र से देखना चाहिए। इसे निवारण का विकल्प भी सोचना चाहिए। उन्होंने देश के विख्यात साहित्यकारों, वैज्ञानिकों, कलाकारों और कवियों द्वारा अपना पुरस्कार वापस किए जाने को स्वागत योग्य कदम बताया।
गो-हत्या के मसले पर अपना रुख साफ़ करते हुए उन्होंने कहा की ये मसला इसलिए छेड़ा गया था कि इसके द्वारा बिहार के चुनावों में राजनीतिक लाभ मिलेगा, लेकिन जनता ने उनकी इस साजिश को नाकाम कर दिया। ऐसा मालूम होता है कि सरकार पूरी तरह फांसीवादी ताकतों के शिकंजे में फंस चुकी है और अत्याचार और हिंसा के माहौल को खत्म करने का अब उसमें हौसला बाकी नहीं रहा है। मगर इससे पूरी दुनिया में देश की छवि बिगड़ रही है और हिन्दुस्तान का बहुवाद और लोकतांत्रिक माहौल खराब हो रहा है।
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