बुंदेलखंड (उत्तर प्रदेश):
पिछले लगभग एक पखवाड़े से सभी का ध्यान चेन्नई की बाढ़ की तरफ है, और इसी दौरान सूखे की मार झेल रहे कुछ इलाकों की ओर किसी की नज़र नहीं गई... उत्तर प्रदेश के 75 में से 50 जिले आधिकारिक रूप से 'सूखाग्रस्त' घोषित किए जा चुके हैं, और ऐसा ही एक इलाका है बुंदेलखंड, जहां के लालवाड़ी गांव में हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि लोग वे सब कुछ खाने और अपने बच्चों को खिलाने के लिए मजबूर हैं, जो आमतौर पर वे अपने जानवरों को खिलाया करते हैं - यानी घासफूस...
स्थानीय भाषा में 'फिकार' कही जाने वाली इस सूखी घास का गुच्छा लालवाड़ी के निवासी कीचड़ में से ढूंढकर निकालते हैं, और फिर उन्होंने हमें दिखाया उसका बीज, जिसे मिट्टी में से पहचानकर निकालना भी मुश्किल था...
प्रसाद नामक लालवाड़ी निवासी ने बताया, "आमतौर पर ये घास हम पालतू जानवरों को खिलाते हैं... लेकिन अब हमारे पास कोई चारा नहीं है, और खुद भी यही खाने के लिए मजबूर हैं..."
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देखें वीडियो
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गांव में एक वृद्ध सहरिया (जनजाति) युगल - परम और हसरबाई - भी रहता है, जिनके परिवार में कुल सात लोग हैं... वहां हमें दिखाया गया कि इन बीजों से उनका भोजन किस तरह तैयार होता है... पहले बीजों को सिलबट्टे पर पीसकर आटा बनाया जाता है... फिर उससे तैयार होता है हरे-काले-से रंग का आटा, जिसे गूंथा जाता है... और फिर उन्हें बेलकर लकड़ियों से जलते चूल्हे पर रखे मिट्टी के तवे पर सेंकी जाती हैं रोटियां...
इन 'खास' रोटियों के साथ खाई जाने वाली सब्ज़ी (भाजी या तरकारी) भी कम विचित्र नहीं होती... टोकरीभर हरी पत्तियां, जो दिखने में पालक जैसी हैं, लेकिन कही जाती हैं 'समई', और यह दरअसल खरपतवार है, जो नदी किनारे खुद-ब-खुद उग जाती है... इसे थोड़े-से पानी के साथ पकाया जाता है, और इसमें मसाले के तौर पर भी ज़्यादा कुछ नहीं डाल पाते ये लोग... बस, ज़रा-सा तेल और नमक...
जब इस रोटी को इस सब्ज़ी के साथ अपने बच्चों को खिलाने लगे वे लोग, तो हमने भी उसे चखकर देखा... इतना कड़वा स्वाद कि खाना लगभग नामुमकिन... पकाए जाने के बावजूद कच्ची घास और मिट्टी का स्वाद साफ महसूस किया जा सकता है... बच्चे भी मुश्किल से ही खा पाते हैं... घर के बड़े उन्हें समझाते हैं, 'खा लो, बेटे', लेकिन सब व्यर्थ...
इस इलाके में तो सामान्य दिनों में भी भोजन काफी सादा होता है - आटे या मक्का की रोटियों के साथ सादी दाल और सब्ज़ी... लेकिन ये तो सामान्य दिन भी नहीं हैं... बुंदेलखंड में पिछली तीन फसलें खराब हुई हैं - दो साल सूखे की वजह से, और बीच में एक साल बेमौसम बरसात की वजह से...
सो, इलाके पर इसका असर, खासतौर पर गरीबों पर, जबर्दस्त रहा है... दिन में तीन बार भोजन करने वाले अब दो ही बार कर पा रहे हैं, और खाने का स्तर भी बहुत नीचे आ गया है... घास की बनी रोटियां इस बात का साफ संकेत है कि वे सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुके हैं...
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि प्रोटीन का सबसे बड़ा स्रोत - यानी दाल - अब इन लोगों के 'दूर की बात' हो गई है, जबकि सामान्य दिनों में लालवाड़ी के खेतों में उड़द के पौधे लहलहाते दिखा करते थे, जिनमें से कुछ को बेचकर वे लोग बाकी अपने घरों के लिए रख लिया करते थे... अब उनके पास कुछ भी नहीं बचा है...
सूखे की स्थिति ने हर बार उत्तर प्रदेश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियों की लगातार अनदेखी को उजागर किया है... राज्य में आज भी पुरानी व्यवस्था लागू है - गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवार महीने भर में 35 किलो अनाज सस्ती दर पर पाने के हकदार हैं... गांव में कुछ ऐसे लोग मिले, जिन्होंने बताया कि उन्हें मिलता है - 18 किलोग्राम चावल और 15 किलोग्राम गेहूं...
लेकिन ज़्यादातर लोगों को यह भी नहीं मिलता, जबकि वे भी इसी गरीब वर्ग के सदस्य हैं... उनके मुताबिक उनकी समस्या है - "हमें अपने नए राशन कार्ड अब तक नहीं मिल पाए हैं..."
वर्ष 2013 में पारित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम यह राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह सब्सिडी दिए जाने वालों की सूची को लगातार अपडेट करती रहे। बहुत-से गरीब राज्य, मसलन बिहार, इस कवायद को पूरा कर चुके हैं... उत्तर प्रदेश ने यब काम नहीं किया है, और उन्होंने इस अधिनियम को लागू करने का फैसला भी दो महीने पहले ही किया है... मौजूदा वक्त में राज्य अपनी कुल एक-चौथाई आबादी को गरीबी रेखा से नीचे मानता है, जबकि अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ के अनुसार, नए अधिनियम के तहत यह आंकड़ा 75 फीसदी के करीब है...
इन सूचियों को अपडेट करना, वह भी उत्तर प्रदेश जैसे विस्तृत राज्य में, महीनों का काम है... ज्यां द्रेज़ जैसे कार्यकर्ताओं का सुझाव है कि अस्थायी तौर पर राज्य सरकार को ललितपुर (लालवाड़ी इसी जिले में है) जैसे सभी सूखाग्रस्त जिलों में एक समान सार्वजनिक वितरण प्रणाली लागू कर देनी चाहिए, जबकि फिलहाल ऐसा कोई संकेत नहीं है कि राज्य यह या इस तरह का कोई भी आपातकालीन कदम उठा रही है...
...तो वे लोग क्या करेंगे...? कैसे रहेंगे...? ज़्यां द्रेज़ अपने आकलन में कहते हैं - "उत्तर प्रदेश में जो सामने आ रहा है, वह है इंसान की पैदा की हुई भुखमरी..."
स्थानीय भाषा में 'फिकार' कही जाने वाली इस सूखी घास का गुच्छा लालवाड़ी के निवासी कीचड़ में से ढूंढकर निकालते हैं, और फिर उन्होंने हमें दिखाया उसका बीज, जिसे मिट्टी में से पहचानकर निकालना भी मुश्किल था...
प्रसाद नामक लालवाड़ी निवासी ने बताया, "आमतौर पर ये घास हम पालतू जानवरों को खिलाते हैं... लेकिन अब हमारे पास कोई चारा नहीं है, और खुद भी यही खाने के लिए मजबूर हैं..."
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गांव में एक वृद्ध सहरिया (जनजाति) युगल - परम और हसरबाई - भी रहता है, जिनके परिवार में कुल सात लोग हैं... वहां हमें दिखाया गया कि इन बीजों से उनका भोजन किस तरह तैयार होता है... पहले बीजों को सिलबट्टे पर पीसकर आटा बनाया जाता है... फिर उससे तैयार होता है हरे-काले-से रंग का आटा, जिसे गूंथा जाता है... और फिर उन्हें बेलकर लकड़ियों से जलते चूल्हे पर रखे मिट्टी के तवे पर सेंकी जाती हैं रोटियां...
इन 'खास' रोटियों के साथ खाई जाने वाली सब्ज़ी (भाजी या तरकारी) भी कम विचित्र नहीं होती... टोकरीभर हरी पत्तियां, जो दिखने में पालक जैसी हैं, लेकिन कही जाती हैं 'समई', और यह दरअसल खरपतवार है, जो नदी किनारे खुद-ब-खुद उग जाती है... इसे थोड़े-से पानी के साथ पकाया जाता है, और इसमें मसाले के तौर पर भी ज़्यादा कुछ नहीं डाल पाते ये लोग... बस, ज़रा-सा तेल और नमक...
जब इस रोटी को इस सब्ज़ी के साथ अपने बच्चों को खिलाने लगे वे लोग, तो हमने भी उसे चखकर देखा... इतना कड़वा स्वाद कि खाना लगभग नामुमकिन... पकाए जाने के बावजूद कच्ची घास और मिट्टी का स्वाद साफ महसूस किया जा सकता है... बच्चे भी मुश्किल से ही खा पाते हैं... घर के बड़े उन्हें समझाते हैं, 'खा लो, बेटे', लेकिन सब व्यर्थ...
इस इलाके में तो सामान्य दिनों में भी भोजन काफी सादा होता है - आटे या मक्का की रोटियों के साथ सादी दाल और सब्ज़ी... लेकिन ये तो सामान्य दिन भी नहीं हैं... बुंदेलखंड में पिछली तीन फसलें खराब हुई हैं - दो साल सूखे की वजह से, और बीच में एक साल बेमौसम बरसात की वजह से...
सो, इलाके पर इसका असर, खासतौर पर गरीबों पर, जबर्दस्त रहा है... दिन में तीन बार भोजन करने वाले अब दो ही बार कर पा रहे हैं, और खाने का स्तर भी बहुत नीचे आ गया है... घास की बनी रोटियां इस बात का साफ संकेत है कि वे सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुके हैं...
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि प्रोटीन का सबसे बड़ा स्रोत - यानी दाल - अब इन लोगों के 'दूर की बात' हो गई है, जबकि सामान्य दिनों में लालवाड़ी के खेतों में उड़द के पौधे लहलहाते दिखा करते थे, जिनमें से कुछ को बेचकर वे लोग बाकी अपने घरों के लिए रख लिया करते थे... अब उनके पास कुछ भी नहीं बचा है...
सूखे की स्थिति ने हर बार उत्तर प्रदेश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियों की लगातार अनदेखी को उजागर किया है... राज्य में आज भी पुरानी व्यवस्था लागू है - गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवार महीने भर में 35 किलो अनाज सस्ती दर पर पाने के हकदार हैं... गांव में कुछ ऐसे लोग मिले, जिन्होंने बताया कि उन्हें मिलता है - 18 किलोग्राम चावल और 15 किलोग्राम गेहूं...
लेकिन ज़्यादातर लोगों को यह भी नहीं मिलता, जबकि वे भी इसी गरीब वर्ग के सदस्य हैं... उनके मुताबिक उनकी समस्या है - "हमें अपने नए राशन कार्ड अब तक नहीं मिल पाए हैं..."
वर्ष 2013 में पारित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम यह राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह सब्सिडी दिए जाने वालों की सूची को लगातार अपडेट करती रहे। बहुत-से गरीब राज्य, मसलन बिहार, इस कवायद को पूरा कर चुके हैं... उत्तर प्रदेश ने यब काम नहीं किया है, और उन्होंने इस अधिनियम को लागू करने का फैसला भी दो महीने पहले ही किया है... मौजूदा वक्त में राज्य अपनी कुल एक-चौथाई आबादी को गरीबी रेखा से नीचे मानता है, जबकि अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ के अनुसार, नए अधिनियम के तहत यह आंकड़ा 75 फीसदी के करीब है...
इन सूचियों को अपडेट करना, वह भी उत्तर प्रदेश जैसे विस्तृत राज्य में, महीनों का काम है... ज्यां द्रेज़ जैसे कार्यकर्ताओं का सुझाव है कि अस्थायी तौर पर राज्य सरकार को ललितपुर (लालवाड़ी इसी जिले में है) जैसे सभी सूखाग्रस्त जिलों में एक समान सार्वजनिक वितरण प्रणाली लागू कर देनी चाहिए, जबकि फिलहाल ऐसा कोई संकेत नहीं है कि राज्य यह या इस तरह का कोई भी आपातकालीन कदम उठा रही है...
...तो वे लोग क्या करेंगे...? कैसे रहेंगे...? ज़्यां द्रेज़ अपने आकलन में कहते हैं - "उत्तर प्रदेश में जो सामने आ रहा है, वह है इंसान की पैदा की हुई भुखमरी..."
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