26 जनवरी को जगमगाता राष्ट्रपति भवन
नई दिल्ली:
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी भारत में सबसे पुराने लोकतंत्रिक देश अमेरिका में अलग-अलग तरीके से राष्ट्रपति चुनाव होते हैं. यहां पर संविधान में राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया निहित है. माना जाता है कि भारत के संविधान निर्माताओं ने विभिन्न देशों की चुनाव पद्धतियों का खासा अध्ययन करने के बाद कई अच्छे प्रावधानों को शामिल किया. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का पांच साल का कार्यकाल 24 जुलाई, 2017 को खत्म हो रहा है. वहीं उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी का कार्यकाल 10 अगस्त, 2017 को खत्म होने वाला है. उपराष्ट्रपति को जहां लोकसभा और राज्यसभा के इलेक्टेड एमपी चुनते हैं, वहीं राष्ट्रपति को इलेक्टोरल कॉलेज चुनता है जिसमें लोकसभा, राज्यसभा और अलग अलग राज्यों के विधायक होते हैं. भारत में राष्ट्रपति का चुनाव यही इलेक्टोरल कॉलेज करता है, जिसमें इसके सदस्यों का प्रतिनिधित्व आनुपातित होता है. यहां पर उनका सिंगल वोट ट्रांसफर होता है, पर उनकी दूसरी पसंद की भी गिनती होती है. इस प्रक्रिया को ऐसे आसानी से समझा जा सकता है.
राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मंडल जिसे इलेक्टोरल कॉलेज भी कहा जाता है, करता है. संविधान के अनुच्छेद 54 में इसका वर्णन है. यानी जनता अपने राष्ट्रपति का चुनाव सीधे नहीं करती, बल्कि उसके वोट से चुने गए प्रतिनिधि करते हैं. चूंकि जनता राष्ट्रपति का चयन सीधे नहीं करती है, इसलिए इसे परोक्ष निर्वाचन कहा जाता है.
कौन करता है वोट : भारत के राष्ट्रपति के चुनाव में सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुने गए सदस्य और लोकसभा तथा राज्यसभा में चुनकर आए सांसद अपने वोट के माध्यम से करते हैं. उल्लेखनीय है कि सांविधानिक ताकत का प्रयोग कर जिन सांसदों को राष्ट्रपति नामित करते हैं वे सांसद राष्ट्रपति चुनाव में वोट नहीं डाल सकते हैं.
इसके अलावा भारत में 9 राज्यों में विधानपरिषद भी हैं. इन विधान परिषद के सदस्य भी राष्ट्रपति चुनाव में मत का प्रयोग नहीं कर सकते हैं. यहां से यह स्पष्ट है कि राष्ट्रपति का चयन जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ही करते हैं. इसलिए राष्ट्रपति परोक्ष रूप से जनता द्वारा ही चयनित होता है.
सिंगल वोट ट्रांसफरेबल सिस्टम पर आधारित प्रक्रिया
भारत में राष्ट्रपति के चुनाव में एक विशेष तरीके से वोटिंग होती है. इसे सिंगल ट्रांसफरेबल वोट सिस्टम कहते हैं. यानी एकल स्थानंतर्णीय प्रणाली. सिंगल वोट यानी वोटर एक ही वोट देता है, लेकिन वह कई उम्मीदवारों को अपनी प्राथमिकी से वोट देता है. यानी वह बैलेट पेपर पर यह बताता है कि उसकी पहली पसंद कौन है और दूसरी, तीसरी कौन. यदि पहली पसंद वाले वोटों से विजेता का फैसला नहीं हो सका, तो उम्मीदवार के खाते में वोटर की दूसरी पसंद को नए सिंगल वोट की तरह ट्रांसफर किया जाता है. इसलिए इसे सिंगल ट्रांसफरेबल वोट कहा जाता है.
वोट डालने वाले सांसदों और विधायकों के वोट का प्रमुखता अलग-अलग होती है. इसे वेटेज भी कहा जाता है. दो राज्यों के विधायकों के वोटों का वेटेज भी अलग अलग होता है. यह वेटेज राज्य की जनसंख्या के आधार पर तय किया जाता है और यह वेटेज जिस तरह तय किया जाता है, उसे आनुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था कहते हैं.
सांसदों के मत का वेटेज ऐसे होता है तय
सांसदों के मतों के वेटेज का तरीका कुछ अलग है. सबसे पहले सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुने गए सदस्यों के वोटों का वेटेज जोड़ा जाता है. अब इस सामूहिक वेटेज को लोकसभा के चुने हुए सांसदों और राज्यसभा की कुल संख्या से भाग दिया जाता है. इस तरह जो अंक मिलता है, वह एक सांसद के वोट का वेटेज होता है. अगर इस तरह भाग देने पर शेष 0.5 से ज्यादा बचता हो तो वेटेज में एक का इजाफा हो जाता है.
ऐसे तय होती है विधायक के वोट की ताकत
राज्यों के विधायकों के मत के वेटेज के लिए उस राज्य की जनसंख्या देखी जाती है. इसके साथ ही उस प्रदेश के विधानसभा सदस्यों की संख्या को भी देखा जाता है. वेटेज निकालने के लिए प्रदेश की जनसंख्या को चुने गए विधायकों की संख्या से भाग दिया जाता है. इस तरह जो अंक मिलता है, उसे फिर 1000 से भाग दिया जाता है. अब जो अंक आता है, वही उस राज्य के एक विधायक के वोट का वेटेज होता है. 1000 से भाग देने पर अगर शेष 500 से ज्यादा हो तो वेटेज में 1 जोड़ दिया जाता है..
मतों की गिनती की प्रक्रिया
भारत में राष्ट्रपति के चुनाव में सबसे ज्यादा वोट हासिल करने से ही जीत तय नहीं होती है. राष्ट्रपति वही बनता है, जो वोटरों यानी सांसदों और विधायकों के वोटों के कुल वेटेज का आधा से ज्यादा हिस्सा हासिल करे. यानी इस चुनाव में पहले से तय होता है कि जीतने वाले को कितना वोट चाहिए.
इस समय राष्ट्रपति चुनाव के लिए जो इलेक्टोरल कॉलेज है, उसके सदस्यों के वोटों का कुल वेटेज 10,98,882 है. जीत के लिए प्रत्याशी को हासिल 5,49,442 वोट करने होंगे. जो प्रत्याशी सबसे पहले यह वोट हासिल करता है, वह राष्ट्रपति चुन लिया जाएगा.
इस सबसे पहले का मतलब समझने के लिए वोट काउंटिंग में प्रायॉरिटी पर गौर करना होगा. सांसद या विधायक वोट देते वक्त अपने मतपत्र पर बता देते हैं कि उनकी पहली पसंद वाला कैंडिडेट कौन है, दूसरी पसंद वाला कौन और तीसरी पसंद वाला कौन आदि आदि. सबसे पहले सभी मतपत्रों पर दर्ज पहली वरीयता के मत गिने जाते हैं. यदि इस पहली गिनती में ही कोई कैंडिडेट जीत के लिए जरूरी वेटेज का कोटा हासिल कर ले, तो उसकी जीत हो गई. लेकिन अगर ऐसा न हो सका, तो फिर एक और कदम उठाया जाता है.
रेस से कैसे बाहर हो जाते हैं प्रत्याशी
पहले उस कैंडिडेट को रेस से बाहर किया जाता है, जिसे पहली गिनती में सबसे कम वोट मिले. लेकिन उसको मिले वोटों में से यह देखा जाता है कि उनकी दूसरी पसंद के कितने वोट किस उम्मीदवार को मिले हैं. फिर सिर्फ दूसरी पसंद के ये वोट बचे हुए उम्मीदवारों के खाते में ट्रांसफर किए जाते हैं. यदि ये वोट मिल जाने से किसी उम्मीदवार के कुल वोट तय संख्या तक पहुंच गए तो वह उम्मीदवार विजयी माना जाता है. अन्यथा दूसरे दौर में सबसे कम वोट पाने वाला रेस से बाहर हो जाएगा और यह प्रक्रिया फिर से दोहराई जाएगी. इस तरह वोटर का सिंगल वोट ही ट्रांसफर होता है. यहां यह बात गौर करने की है कि जिस पार्टी के पास लोकसभा में बहुमत है वह अपने दम पर राष्ट्रपति का चयन नहीं कर सकता है. यदि उस दल का राज्यसभा में भी बहुमत है तब भी वह अपने प्रत्याशी के लिए चुनाव आसानी से नहीं जीत सकता. यानी ऐसे वोटिंग सिस्टम में कोई बहुमत समूह अपने दम पर जीत का फैसला नहीं कर सकता है. छोटे-छोटे दूसरे समूह के वोट निर्णायक साबित हो सकते हैं. यानी जरूरी नहीं कि लोकसभा और राज्यसभा में जिस पार्टी का बहुमत हो, उसी का दबदबा चले. राज्यों के विधायकों का वोट भी अहम है. देखा जाए तो राष्ट्रपति सही मायने में पूरे देश की नुमाइंदगी करता है.
दूसरी वरीयता के वोट ट्रांसफर होने के बाद सबसे कम वोट वाले प्रत्याशी को बाहर करने की नौबत आने पर अगर दो कैंडिडेट्स को सबसे कम वोट मिले हों, तो बाहर उसे किया जाता है, जिसके फर्स्ट प्रायॉरिटी वाले वोट कम होते हैं. अगर अंत तक किसी प्रत्याशी को तय वेटेज न मिले, तो भी इस प्रक्रिया में कैंडिडेट बारी-बारी से रेस से बाहर होते रहते हैं और आखिर में जो बचेगा, वही जीतेगा.
राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मंडल जिसे इलेक्टोरल कॉलेज भी कहा जाता है, करता है. संविधान के अनुच्छेद 54 में इसका वर्णन है. यानी जनता अपने राष्ट्रपति का चुनाव सीधे नहीं करती, बल्कि उसके वोट से चुने गए प्रतिनिधि करते हैं. चूंकि जनता राष्ट्रपति का चयन सीधे नहीं करती है, इसलिए इसे परोक्ष निर्वाचन कहा जाता है.
कौन करता है वोट : भारत के राष्ट्रपति के चुनाव में सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुने गए सदस्य और लोकसभा तथा राज्यसभा में चुनकर आए सांसद अपने वोट के माध्यम से करते हैं. उल्लेखनीय है कि सांविधानिक ताकत का प्रयोग कर जिन सांसदों को राष्ट्रपति नामित करते हैं वे सांसद राष्ट्रपति चुनाव में वोट नहीं डाल सकते हैं.
इसके अलावा भारत में 9 राज्यों में विधानपरिषद भी हैं. इन विधान परिषद के सदस्य भी राष्ट्रपति चुनाव में मत का प्रयोग नहीं कर सकते हैं. यहां से यह स्पष्ट है कि राष्ट्रपति का चयन जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ही करते हैं. इसलिए राष्ट्रपति परोक्ष रूप से जनता द्वारा ही चयनित होता है.
सिंगल वोट ट्रांसफरेबल सिस्टम पर आधारित प्रक्रिया
भारत में राष्ट्रपति के चुनाव में एक विशेष तरीके से वोटिंग होती है. इसे सिंगल ट्रांसफरेबल वोट सिस्टम कहते हैं. यानी एकल स्थानंतर्णीय प्रणाली. सिंगल वोट यानी वोटर एक ही वोट देता है, लेकिन वह कई उम्मीदवारों को अपनी प्राथमिकी से वोट देता है. यानी वह बैलेट पेपर पर यह बताता है कि उसकी पहली पसंद कौन है और दूसरी, तीसरी कौन. यदि पहली पसंद वाले वोटों से विजेता का फैसला नहीं हो सका, तो उम्मीदवार के खाते में वोटर की दूसरी पसंद को नए सिंगल वोट की तरह ट्रांसफर किया जाता है. इसलिए इसे सिंगल ट्रांसफरेबल वोट कहा जाता है.
वोट डालने वाले सांसदों और विधायकों के वोट का प्रमुखता अलग-अलग होती है. इसे वेटेज भी कहा जाता है. दो राज्यों के विधायकों के वोटों का वेटेज भी अलग अलग होता है. यह वेटेज राज्य की जनसंख्या के आधार पर तय किया जाता है और यह वेटेज जिस तरह तय किया जाता है, उसे आनुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था कहते हैं.
सांसदों के मत का वेटेज ऐसे होता है तय
सांसदों के मतों के वेटेज का तरीका कुछ अलग है. सबसे पहले सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुने गए सदस्यों के वोटों का वेटेज जोड़ा जाता है. अब इस सामूहिक वेटेज को लोकसभा के चुने हुए सांसदों और राज्यसभा की कुल संख्या से भाग दिया जाता है. इस तरह जो अंक मिलता है, वह एक सांसद के वोट का वेटेज होता है. अगर इस तरह भाग देने पर शेष 0.5 से ज्यादा बचता हो तो वेटेज में एक का इजाफा हो जाता है.
ऐसे तय होती है विधायक के वोट की ताकत
राज्यों के विधायकों के मत के वेटेज के लिए उस राज्य की जनसंख्या देखी जाती है. इसके साथ ही उस प्रदेश के विधानसभा सदस्यों की संख्या को भी देखा जाता है. वेटेज निकालने के लिए प्रदेश की जनसंख्या को चुने गए विधायकों की संख्या से भाग दिया जाता है. इस तरह जो अंक मिलता है, उसे फिर 1000 से भाग दिया जाता है. अब जो अंक आता है, वही उस राज्य के एक विधायक के वोट का वेटेज होता है. 1000 से भाग देने पर अगर शेष 500 से ज्यादा हो तो वेटेज में 1 जोड़ दिया जाता है..
मतों की गिनती की प्रक्रिया
भारत में राष्ट्रपति के चुनाव में सबसे ज्यादा वोट हासिल करने से ही जीत तय नहीं होती है. राष्ट्रपति वही बनता है, जो वोटरों यानी सांसदों और विधायकों के वोटों के कुल वेटेज का आधा से ज्यादा हिस्सा हासिल करे. यानी इस चुनाव में पहले से तय होता है कि जीतने वाले को कितना वोट चाहिए.
इस समय राष्ट्रपति चुनाव के लिए जो इलेक्टोरल कॉलेज है, उसके सदस्यों के वोटों का कुल वेटेज 10,98,882 है. जीत के लिए प्रत्याशी को हासिल 5,49,442 वोट करने होंगे. जो प्रत्याशी सबसे पहले यह वोट हासिल करता है, वह राष्ट्रपति चुन लिया जाएगा.
इस सबसे पहले का मतलब समझने के लिए वोट काउंटिंग में प्रायॉरिटी पर गौर करना होगा. सांसद या विधायक वोट देते वक्त अपने मतपत्र पर बता देते हैं कि उनकी पहली पसंद वाला कैंडिडेट कौन है, दूसरी पसंद वाला कौन और तीसरी पसंद वाला कौन आदि आदि. सबसे पहले सभी मतपत्रों पर दर्ज पहली वरीयता के मत गिने जाते हैं. यदि इस पहली गिनती में ही कोई कैंडिडेट जीत के लिए जरूरी वेटेज का कोटा हासिल कर ले, तो उसकी जीत हो गई. लेकिन अगर ऐसा न हो सका, तो फिर एक और कदम उठाया जाता है.
रेस से कैसे बाहर हो जाते हैं प्रत्याशी
पहले उस कैंडिडेट को रेस से बाहर किया जाता है, जिसे पहली गिनती में सबसे कम वोट मिले. लेकिन उसको मिले वोटों में से यह देखा जाता है कि उनकी दूसरी पसंद के कितने वोट किस उम्मीदवार को मिले हैं. फिर सिर्फ दूसरी पसंद के ये वोट बचे हुए उम्मीदवारों के खाते में ट्रांसफर किए जाते हैं. यदि ये वोट मिल जाने से किसी उम्मीदवार के कुल वोट तय संख्या तक पहुंच गए तो वह उम्मीदवार विजयी माना जाता है. अन्यथा दूसरे दौर में सबसे कम वोट पाने वाला रेस से बाहर हो जाएगा और यह प्रक्रिया फिर से दोहराई जाएगी. इस तरह वोटर का सिंगल वोट ही ट्रांसफर होता है. यहां यह बात गौर करने की है कि जिस पार्टी के पास लोकसभा में बहुमत है वह अपने दम पर राष्ट्रपति का चयन नहीं कर सकता है. यदि उस दल का राज्यसभा में भी बहुमत है तब भी वह अपने प्रत्याशी के लिए चुनाव आसानी से नहीं जीत सकता. यानी ऐसे वोटिंग सिस्टम में कोई बहुमत समूह अपने दम पर जीत का फैसला नहीं कर सकता है. छोटे-छोटे दूसरे समूह के वोट निर्णायक साबित हो सकते हैं. यानी जरूरी नहीं कि लोकसभा और राज्यसभा में जिस पार्टी का बहुमत हो, उसी का दबदबा चले. राज्यों के विधायकों का वोट भी अहम है. देखा जाए तो राष्ट्रपति सही मायने में पूरे देश की नुमाइंदगी करता है.
दूसरी वरीयता के वोट ट्रांसफर होने के बाद सबसे कम वोट वाले प्रत्याशी को बाहर करने की नौबत आने पर अगर दो कैंडिडेट्स को सबसे कम वोट मिले हों, तो बाहर उसे किया जाता है, जिसके फर्स्ट प्रायॉरिटी वाले वोट कम होते हैं. अगर अंत तक किसी प्रत्याशी को तय वेटेज न मिले, तो भी इस प्रक्रिया में कैंडिडेट बारी-बारी से रेस से बाहर होते रहते हैं और आखिर में जो बचेगा, वही जीतेगा.
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